Friday 23 December 2016

DEEP REVIEW: Dangal


दंगल: अच्छी फिल्म पर बेस्ट नहीं
RATING- 4*
खेलों को लेकर बनाई जाने वाली फिल्मों का एक प्लस प्वाइंट यह होता है कि आप भावनात्मक रूप से फिल्म के साथ जुड़ जाते हैं। आप किसी खिलाड़ी के संघर्ष की कहानी को खुद से जोडऩे लगते हैं। पिछले कुछ समय में आई कई फिल्मों जैसे ‘मैरीकॉम’,’ एमएस धोनी’, ‘सुल्तान’ की सफलता इसका सबूत हैं। और अगर फिल्म किसी खिलाड़ी की सच्ची कहानी पर आधारित हो तो बात ही क्या है। यही वजह है कि धोनी ने तो सफलता का कीर्तिमान ही बना दिया। कुछ यही बात ‘दंगल’ में नजर आती है। निर्देशन की कमजोरी के बावजूद ‘दंगल’ आपके दिलो दिमाग पर शुरू के दस मिनट में ही छा जाती है। आपको महावीर सिंह फोगट के किरदार से सहानुभूति हो जाती है। सहानुभूति इसलिए क्योंकि वह अपने बेटे के जरिये देश के लिए गोल्ड जीतना चाहते हैं और भगवान की कृपा से उनके घर में एक के बाद एक चार बेटियां पैदा हो जाती हैं। इससे ज्यादा इमोशनल बात और क्या हो सकती है।


2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स में कुश्ती का गोल्ड मैडल जीतने वाली गीता फोगाट व उनके पिता व पूर्व पहलवान महावीर सिंह फोगाट के जीवन पर आधारित यह फिल्म भी यही दिखाती है कि अगर किसी खिलाड़ी को इंटरनेशनल लेवल पर सफल होना है तो उसे पारिवारिक सपोर्ट सबसे ज्यादा जरूरी है। सरकारी सुविधाएं और सरकारी अफसरों का खिलाडिय़ों के प्रति नजरिया दूसरे नंबर पर आते हैं। यह कड़वा सच है कि पारिवारिक सपोर्ट व घर में सकारात्मक माहौल के बिना बड़ा खिलाड़ी बन पाना आसान नहीं है।

इसी साल आई सलमान खान की ‘सुल्तान’ से 50 प्रतिशत तक मेल खाने वाली ‘दंगल’ की कहानी सत्य घटना का पुट हो जाने के कारण अलग नजर आने लगती है। दोनों ही फिल्में हरियाणा की बैकग्राउंड पर बनी हैं और दोनों में ही पहलवानों, खासतौर से महिला पहलवानों, की कहानी कही गई है। एक में लड़की अपने पति के लिए अपना करियर दांव पर लगा देती है तो दूसरी में बेटी अपने पिता का अरमान पूरा करती है। सुल्तान चूंकि काल्पनिक कहानी पर आधारित थी इसलिए थोड़ी नाटकीय थी। कहानी की बात करें, महावीर सिंह फोगाट जब बेटा पाने में सफल नहीं हो पाते तो बेटियों पर ही दांव खेलते हैं। तमाम तरह के सामाजिक विरोध के बावजूद महावीर सिंह दो बेटियों को नेशनल लेवल की चैंपियन बनाने में सफल रहते हैं। उनका सपना पूरा तब होता है जब एक बेटी कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीतती है।

फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि अगर आप नेशनल स्तर पर सफलता हासिल कर भी लेते हैं जरूरी नहीं कि आपको इंटरनेशनल स्तर पर भी उसी तरह से कामयाबी मिल जाए। कोचिंग का एक बड़ा रोल है। नेशनल टीम का कोच उस भावना से नहीं सोच सकता जिस तरह से एक पिता या फिर देश के लिए कुछ करने का सपना रखने वाला खिलाड़ी।
फिल्म के निर्देशक नितेश तिवारी के निर्देशन में उतनी परिपक्वता नहीं नजर आती जितनी इस तरह की फिल्मों में दरकार होती है। कई स्थानों पर वे पंच देने का मौका मिस कर देते हैं। जब गीता अपने पिता को कुश्ती में हराकर पटियाला लौटती है तो उस सीन को और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता था। इसी तरह जब महावीर सिंह अपनी बेटियों के बाल कटवाते हैं वह सीन और अधिक गंभीरता से फिल्माया जाना चाहिए था। उस सीन को लेकर दर्शक को अगर हंसी आ रही है तो इसका मतलब है कि निर्देशक उस सीन की अहमियत समझाने में विफल रहा है। यह फिल्म का एक टर्निंग प्वाइंट था। फिल्म में एक सीन में जब किशोर उम्र की गीता व उसकी बहन एक सहेली की शादी में जाती हैं तो दुल्हन से कहती हैं कि ऐसा बाप किसी को न मिले जो अपनी बेटियों से कुश्ती करवाता है। इस पर उनकी सहेली कहती है कि तुम खुशकिस्मत हो कि तुम्हारा बाप तुम्हें कुछ बनाना चाहता है दूसरे पिताओं की तरह नहीं जो अपनी बेटियों को बोझ समझते हैं और शादी करके इससे छुटकारा पा लेते हैं। यह सीन संवादों की कमजोरी की वजह से हल्का लगता है जबकि यह बहुत ही खास सीन था। इसी तरह पटियाला स्थित एनआईएस (नेशनल इंस्टीट्यूट आफ स्पोट्र्स) को फिल्म में इस तरह से पेश किया गया है जैसे वहां खिलाड़ी खेलने के बजाय मौज मस्ती करने ही जाते हैं। वहां की कोचिंग को भी बहुत ही सतही स्तर की बताया गया है। हो सकता है कि गीता फोगट के केस में ऐसा रहा हो लेकिन एनआईएस देश का सबसे बड़ा खेल संस्थान है और न जाने कितने खिलाड़ी वहां से निकलते हैं। खैर फिल्मों में अक्सर ऐसा दिखाया जाता रहा है।

फिल्म की कहानी अच्छी है लेकिन संवाद उतने उच्च कोटि के नहीं हैं। प्रीतम का संगीत केवल फिल्म देखने तक ही सीमित है। ‘सुल्तान’ संगीत के लिहाज से इससे अधिक मजबूत फिल्म थी। अभिनय में आमिर खान हमेशा की तरह अव्वल साबित हुए हैं। बिना किसी निर्देशकीय सपोर्ट के बगैर भी उन्होंने बेहतरीन काम किया है। उनकी पत्नी के रूप में साक्षी तंवर का चुनाव एकदम परफेक्ट है और उन्होंने अपने किरदार से पूरा न्याय किया है। बाकी कलाकारों का काम भी बेहतर है। फिल्म के बारे में सोचा था कि बहुत लंबा चौड़ा लिखा जा सकेगा लेकिन फिल्म देखने के बाद यह कमोबेश आमिर खान की दूसरी फिल्मों से कमजोर ही प्रतीत होती है। यह देखने वाली बात होगी कि यह सुल्तान से आगे निकल पाती है या नहीं?


- हर्ष कुमार सिंह

Wednesday 5 October 2016

Main Aur Amitabh- the untold story

मैं और अमिताभ- अनकही कहानी

अमिताभ बच्चन को लेकर इतना कुछ लिखा जाता है और लिखा जा चुका है कि कुछ भी नया नहीं लगेगा। इसलिए कुछ ऐसा लिख रहा हूं जो बिल्कुल निजी तौर पर मैंने अनुभव किया। 

मैं ही नहीं जिन लोगों का जन्म 70 या 80 के दशक में हुआ है वो अमिताभ बच्चन के फैन मिलेंगे ही यह जान लीजिए। जो फिल्म प्रेमी नहीं हैं उनके बारे में मैं नहीं कह सकता। अमिताभ की फिल्में देखकर बड़े हुए और उनके प्रशंसक होने के नाते उनके जीवन से जुड़ी हर एक गतिविधि को अखबारों व मैगजीन के जरिये फॉलो किया। मैगजीन से याद आया। उन दिनों एक वीकली मैगजीन आया करती थी 'साप्ताहिक हिंदुस्तान’ (हिंदुस्तान टाइम्स प्रकाशन द्वारा टाइम्स ग्रुप की 'धर्मयुग’ की टक्कर में शुरू की गई पत्रिका)। मैगजीन में एक सेक्शन फिल्मों का भी हुआ करता था। एक पूरे पेज का रंगीन पोस्टर छपा करता था। हर बार किसी अभिनेता या अभिनेत्री का रंगीन चित्र। ऐसे ही एक बार अमिताभ का फोटो छपा। काले रंग की पैंट और नीले रंग का कोट पहने हुए बच्चन का फुलर पोज। अमिताभ के दोनों हाथ कोट के नीचे पहनी जैकेट की जेबों में। गजब का फोटो था। घर में मां द्वारा मंदिर में लगाई गई भगवान की कुछ पुरानी तस्वीरों के कांच के फ्रेम पड़े थे। एक में से हनुमान जी की पुरानी फोटो निकालकर मैंने अमिताभ की फोटो लगाकर शो केस में रख दी। ये तस्वीर मुझे इसलिए याद रही क्योंकि इसी फोटो को देखकर मैंने बाल निकालने सीखे। जी हां, इससे पहले मां जिस तरह बाल निकाल दिया करती थी उसी तरह से सारा दिन। यही वो फोटो थी जिसे देखकर मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न खुद ही कंघी का जाए। अमिताभ ने किस तरह से अपने बाल निकाले हुए हैं, शीशा बगल में ही रख लिया और उसे देख-देखकर बाल बहाने शुरू कर दिए। मां ने बाद में देखा तो गुस्सा भी किया लेकिन मैं नहीं माना। मुझे तो बाल बच्चन स्टाइल में ही बहाने थे। हालांकि यह कभी हो नहीं पाया क्योंकि कभी भी बड़े बाल नहीं रख पाया और ये आरजू अधूरी ही रह गई।

अमिताभ की कौन सी फिल्म पहली बार देखी थी कुछ खास नहीं लेकिन एक बहुत पुराना किस्सा याद आ रहा है। बड़े भाई बच्चन के फैन थे। उन्होंने कई बार साथ ले जाकर मुझे फिल्में दिखाई। 'दोस्ताना’, 'शोले’ (रिलीज के कुछ साल बाद), 'मजबूर’, 'अमर अकबर एंथनी’, 'शक्ति’, 'इंकलाब’ जैसी फिल्में उन्होंने ही दिखाई। 'दोस्ताना’ के समय की बात है। 1980 के अक्टूबर महीने में रिलीज हुई 'दोस्ताना’ को लेकर बहुत ही हंगामा मचा हुआ था। इसमें अमिताभ बच्चन व शत्रुघ्न सिन्हा एक साथ आ रहे थे। जीनत अमान हिरोईन थी। गाने रेडियो पर बज रहे थे और सब फिल्म देखने के लिए बेचैन थे। भाई साहब ने एक दिन यह फिल्म देखने का फैसला किया और पहुंच गए मुझे साइकिल पर बैठाकर अलंकार सिनेमा। अलंकार (अब बंद हो चुका है) शहर में बस स्टैंड के ठीक सामने बना हुआ था और इसमें सब लोग फैमिली के साथ फिल्में देखने जाया करते थे। कोई भी अच्छी सी फिल्म आ गई तो बस जानिये की टिकट नहीं मिलेंगे। हम मैटिनी शो देखने पहुंचे थे लेकिन 2.30 बजे से पहले ही टिकट बिक चुके थे। खिड़की बंद थी और उस समय के रिवाज के अनुसार सारी टिकटें ब्लैकियों के पास थीं। भाई साहब कालेज में पढ़ते थे और उनका सिद्धांत था कि फिल्म देखनी है लेकिन ब्लैक में टिकट लेकर नहीं। दोस्तों के साथ जाते थे तो टिकट वैसे ही मिल जाती थी। अब टिकट मिल नहीं रही थी। मैं भी निराश। भाई साहब का मूड आफ हो गया। बोले-आज नहीं देखते फिल्म फिर किसी दिन देखेंगे। मेरे अरमानों पर तो जैसे बिजली गिर गई। मुंह लटकाकर दोनों घर आ गए। कुछ दिन बाद (कितने दिन ये याद नहीं) फिर पहुंचे। फिर वही हाल। भाई साहब कालेज में पढ़ रहे थे तो बजट कुछ कम ही हुआ करता था। फिल्म भी बालकनी में नहीं फस्र्ट क्लास में देखी जाती थी। मुझे याद है कि 4 रुपये का टिकट बालकनी का और 2.25 रुपये का फस्र्ट का। अब दूसरे दिन भी कैसे वापस घर जाएं। भाई साहब ने मेरे उतरे हुए मुंह की ओर देखा और बोले- 'तेरी वजह से टिकट ब्लैक में ले रहा हूं।‘ मन तो उनका भी था फिल्म देखने का लेकिन टिकट ब्लैक में लेने का इल्जाम मुझ पर थोपना चाहते थे। मुझे मंजूर था या इल्जाम। बस फिल्म देखने को मिल जाए। 2.25 रुपये वाली टिकट तीन रुपये में लेकर देखी गई और सच जानिये मजा आ गया। अफसोस इस बात का रहा कि फिल्म का मेरा सबसे पंसदीदा गाना फिल्म का टाइटल गीत निकल गया। यह गाना निकल इसलिए गया क्योंकि फिल्म के पहले सीन में ही यह गाना आ जाता है। टिकट खरीदने के चक्कर में देर हो गई फिल्म शुरू हो गई। खैर ये तो अमिताभ बच्चन की सभी फिल्मों में हुआ करता था। तीन से साढ़े तीन घंटे तक की फिल्में होती थी। शो रेगुलर समय से आधा पौना घंटा पहले ही शुरू हो जाते थे। उस समय इतनी गनीमत हुआ करती थी कि यदि आपकी 10-20 मिनट की फिल्म निकल गई है तो आप गेटकीपर से रिक्वेस्ट करके अगले शो में खड़े होकर फिल्म देख लेते थे। अब 10-20 मिनट की तो फिल्म देख लें लेकिन आधा पौने घंटे की फिल्म कैसे देखी जा सकती थी। गेटकीपर भी बाहर निकाल देता था। 'शान’ फिल्म बहुत ही लंबी थी। पिता जी के साथ देखी थी लेकिन ये भी अधूरी। इन बातों का मलाल बहुत हुआ करता था। बाद में ये सभी फिल्में कई-कई बार देखकर मन की भड़ास निकाली। तो ऐसा था अमिताभ बच्चन की फिल्म को सिनेमाहाल में पहली बार देखने का अनुभव। पहली बार इसलिए कह रहा हूं कि दस साल की उम्र में ये देखी थी इसलिए याद है। इससे पहले पिता जी ने 'शोले’, 'जंजीर’ या और कोई दूसरी फिल्म भी दिखाई होगी लेकिन मुझे याद नहीं है। बाद में पिताजी के साथ पूरे परिवार ने 'सुहाग’, 'नमक हलाल’, 'शराबी’, 'नसीब’ जैसी फिल्में भी देखी।

1981 की गर्मियों में प्रकाश मेहरा निर्देशित 'लावारिस’ रिलीज हुई थी। पहले गर्मियों में फिल्में रिलीज करना अच्छा माना जाता था। बच्चों के स्कूल बंद हो जाते थे और छुट्टियों में बच्चों की फिल्म देखने की तमन्ना पूरी हो जाए तो बस समझिए कि छुट्टी वसूल। आज की तरह टीवी व इंटरनेट नहीं था। दूरदर्शन पर ही एकाध फिल्म आया करती थी। बड़े-बड़े निर्माता गर्मियों में रिलीज को अच्छा मानता थे। डेढ़ दो महीने तक लोग फिल्म देखते थे और अगर अच्छी हो तो परिवार के साथ दो-तीन बार भी देख लेते थे लोग। उस समय टिकटों के रेट भी आज की तरह महंगे नहीं थे। हर वर्ग के लोग फिल्में देखने लायक तो पैसे निकाल ही लेते थे। 'लावारिस’ ब्लाकबस्टर साबित हो रही थी। शायद यही वजह थी कि पिता जी ने ये फिल्म मुझे भी दिखाने का फैसला किया। पिता जी भी फिल्मों के शौकीन कालेज टाइम से ही थे। उन्होंने मां से कहा कि वे आफिस से सीधे सिनेमा हाल पहुंच जाएंगे और तुम दोनों (मैं और मां) वहीं पहुंच जाना 12 बजे तक। मीनाक्षी सिनेमा (जो हाल ही में बंद हुआ है) घर से बहुत दूर था इसलिए मां और मैं रिक्शा से सिनेमा हाल पहुंचे। हम 12 बजे से पहले ही पहुंच गए और टिकट खिड़की के पास ही पिता जी का इंतजार करने लगे। खिड़की बंद थी और टिकट बिक चुके थे। बस कुछ ब्लैकिये ही बाहर घूम रहे थे। फिल्म भी शुरू हो चुकी थी। हम इंतजार कर रहे थे कि पिता जी कब आएंगे। पिता जी पहुंचे 12.15 बजे के करीब। शायद उन्हें अंदाजा था कि फिल्म की स्थिति क्या है। इसलिए आनन-फानन में ब्लैकिये से टिकट ले लिए। मेरे ख्याल से बालकनी वाला 4-5 रुपये का टिकट 15 रुपये में मिला था। अंदर पहुंचे तो अंधेरा। गाना चल रहा था 'अपनी तो जैसे तैसे’। जिन लोगों ने 'लावारिस’ देखी है वो जानते होंगे कि ये गाना कितनी देर बाद आता है। हमारी फिल्म लगभग एक घंटे की निकल चुकी थी। मेरा मूड खराब। पिता जी गेटकीपर से सीट की व्यवस्था कराने के लिए कह रहे थे। पूरी बालकनी में एक ही सीट खाली थी। उस पर मां बैठ गई। पिता जी और मैं खड़े हुए फिल्म देख रहे हैं। गेटकीपर कहीं से एक स्टूल लाया और वहीं मां की सीट की बगल में रख दिया। कहा- 'अभी टिकट चेक कर लूं। इंटरवल में आपको एडजस्ट करा दूंगा। जरूर कोई बिना टिकटवाला बैठा होगा।‘ यही हुआ। इंटरवल में जाकर सीट का इंतजाम हुआ और मैं और मां एक जगह और पिता जी कहीं और बैठे। एक और फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' पिता जी ने दिखाई थी और उसमें जब अंदर पहुंचे तो गाना चल रहा था रोते हुए आते हैं सब। यानी एक घंटे की फिल्म ये भी निकल गई।

अमिताभ बच्चन के चोटिल होने के बाद 'कुली’ (83) रिलीज हुई थी तो 25 सप्ताह से भी ज्यादा समय तक हमारे शहर में चली थी और भाई साहब ने मुझे दिखाई पर रिलीज के कई हफ्ते बाद। पर इतना तो आभास हो गया था कि अमिताभ बच्चन जैसा स्टार कोई नहीं। 'त्रिशूल’, 'द ग्रेट गैंबलर’, 'मि.नटरवरलाल’, 'सिलसिला’ जैसी फिल्में भी इसी दौर में आई लेकिन इन्हें देखने का मौका नहीं मिल सका। 'कालिया’, 'खुद्दार’, 'सत्ते पे सत्ता’, 'बेमिसाल’, 'जुर्माना’ आदि भी नहीं देख पाया। या यूं कहिए कि भाई साहब या पिता जी ने मुझे नहीं दिखाई। उन्होंने खुद देखी हों तो पता नहीं। हां इस दौर की एक फिल्म 'शक्ति’ जरूर भाई साहब ने दिखाई। फिल्म बहुत ही गजब की लगी। हालांकि ये थोड़ी अलग स्टाइल की फिल्म थी, गंभीर सी लेकिन उस समय तक इतनी समझ तो विकसित हो चुकी थी कि फिल्म की कहानी, डायलाग व अभिनय का आकलन कर सकें। कुछ साल बाद पता चला कि फिल्म के लिए दिलीप कुमार को बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला। वैसे ये कहानी भी दिलीप कुमार को ध्यान में लिखकर लिखी गई थी लेकिन मेरा आज भी मानना है कि अमिताभ बच्चन ने उनसे बेहतर अभिनय किया था लेकिन चूंकि उनका रोल एक सहायक अभिनेता की तरह से थोड़ा निगेटिव शेड के साथ पेश किया गया था इसलिए दिलीप कुमार बाजी मार ले गए।

1984 में 'शराबी’ आई और पिता जी ने पूरे परिवार के साथ ये फिल्म देखी। सही बताऊं तो ये फिल्म मुझे उस समय ज्यादा अच्छी नहीं लगी क्योंकि इसमें एक्शन नहीं था। अब देखते हैं तो लगता है कि शायद ये उनके कैरियर की सबसे बेहतरीन भूमिका है। बेहतरीन संवाद और अमिताभ की शानदार अदायगी।
थोड़ा बड़े हुए तो बच्चन के प्रति दीवानगी और बढ़ चुकी थी। ये वो दौर था जब देश में राजनीतिक उथल-पुथल चल रही थी। इंदिरा गांधी की मौत के बाद उनके बेटे राजीव गांधी ने दोस्ती का हवाला देकर बच्चन को राजनीति में उतार लिया। 1984-85 में देश में आम चुनाव हुए और अमिताभ को इलाहाबाद से कांग्रेस का टिकट दिया गया। उनके सामने थे दिग्गज राजनीतिक हेमवती नंदन बहुगुणा। उस समय तक राजनीति की समझ नहीं थी। बड़े भाई साहब अक्सर पिता जी के साथ राजनीति पर चर्चा करते थे तो सुनता था कि अमिताभ का बहुगुणा के सामने जीतना मुश्किल होगा। बालक मन था। ये सुनकर लगता था कि भला अमिताभ बच्चन से पापुलर कोई कैसे हो सकता है? वही हुआ भी, बच्चन ने चुनाव जीता और जोरदार तरीके से जीता।

वैसे जितना याद है मेरे हिसाब से ये दौर अमिताभ बच्चन के कैरियर का सबसे लो फेज रहा। अखबारों में उनकी आलोचना ही पढऩे की मिलती थी। इस दौर में केवल एक ही फिल्म उनकी रिलीज हुई और वो थी 'मर्द’ (85)। मुझे साफ याद है कि शहर के प्रकाश सिनेमा में ये फिल्म लगी थी। दर्शक क्षमता के हिसाब से यह सिनेमा हाल बहुत छोटा था। इसी वजह से जैसे ही खिड़की खुलती थी वैसे ही हाउसफुल। मैंने एक दो दोस्तों के साथ इसे अकेले देखने का प्रयास भी किया लेकिन टिकट लेने में सफल नहीं हो सके। ब्लैक में लेकर देखने लायक पैसे नहीं होते थे। लगभग 10-12 हफ्ते बाद बड़े भाई साहब ने ही फिल्म दिखाई और ये फिल्म हमारे शहर में 28 हफ्ते चलने के बाद उतरी। बाद में एक दो बार दोस्तों के साथ भी देख ली।

राजनीति में बिजी रहने की वजह से बच्चन की कोई और फिल्म इस दौर में नहीं आई। बाद में पता चला कि अमिताभ ने राजनीति को अलविदा कह दिया और फिल्मों पर ही ध्यान देने का फैसला किया। मीडिया उनसे नाराज था और उनके इंटरव्यू वगैरह नहीं छपते थे। अमिताभ ने खुद ही मीडिया से किनारा कर लिया था। उनके इस खराब दौर में जो सबसे पहली फिल्म आई वो थी 'शहंशाह’ (88)। 'शहंशाह’ को लेकर बवाल मचा था। तीन साल बाद कोई फिल्म आ रही थी। इस समय तक अकेले ही फिल्म देखने की परमिशन मिल चुकी थी। इसी दौर में वे फिल्में भी देखी जो पहले देखने से चूक गए थे। उस समय रिलीज के बाद जब दोबारा फिल्म रिलीज होती थी तो उसके टिकट सस्ते होते थे और हमारे जैसे स्टूडेंट्स की जेब एडजस्ट कर लेती थी। खैर 'शहंशाह’ के बारे में पता चला कि मिलन सिनेमा में लगेगी। शहर के एक छोर पर बना यह सिनेमा हाल सबसे दूर वाला सिनेमा माना जाता था। 10-15 साल हुए ये सिनेमा भी बंद हो चुका है। एक दोस्त खबर लाया कि फिल्म की एक हफ्ते पहले से एडवांस बुकिंग होगी। ये हमारे छोटे से शहर के लिए बहुत ही बड़ी बात थी। कभी किसी फिल्म की एडवांस बुकिंग सुनी नहीं थी। गर्व के साथ टिकट एडवांस में बुक कराई गई और पहले दिन ही देखी गई। दस हफ्ते तक फिल्म में टिकट नहीं मिले थे लेकिन अखबार में जब खबरें पढ़ते थे तो लिखा होता था कि फिल्म फ्लॉप जा रही है और बच्चन की राजनीति से बालीवुड में वापसी ठंडी रही है। किशोर अवस्था का मन और बस यही ख्याल चलता रहता था कि आखिर इस फिल्म को फ्लॉप कैसे कहा जा रहा है?

इसके बाद आई 'अग्निपथ’, 'हम’, व 'खुदागवाह’ जैसी फिल्मों के प्रति भी मीडिया का रिस्पांस कुछ यही रहा। हालांकि ये तीनों ही फिल्में उनके कैरियर की बेहतरीन फिल्में हैं। इसके बाद 'आज का अर्जुन’ जैसी फिल्म से उन्होंने वापसी की। हालांकि ये फिल्म मुझे पसंद नहीं आई। 'बड़े मियां छोटे मियां’, 'हम किसी से कम नहीं’ 'लाल बादशाह’, 'सूर्यवंशम’ और न जाने ऐसी कितनी ही फिल्में पिछले 10-15 साल में आई जिन्हें मैंने देखा भी नहीं। शायद इसकी वजह यह रही कि बच्चन ने इनमें अपने किरदार अपनी बढ़ती आयु के अनुकूल नहीं किए।
इसके बाद 2000 में 'मोहब्बतें’ व 'कभी खुशी कभी गम’ जैसी फिल्में आई जिनसे अमिताभ ने खुद को मुख्य नायक की भूमिका से अलग कर लिया। इसी के बाद वह दौर शुरू हुआ जिसमें एक से एक विविध भूमिकाओं में हम इस महान अभिनेता को देखते हैं।

एक सवाल हमेशा मन में रहता है कि इस गाने में अमित जी ने हाथ छोड़कर बाइक चलाई थी। उनसे इस बार मिलूंगा तो जरूर पूछूंगा कि ये कैसे किया था उन्होंने। पिछली बार उनसे मिला था तो भूल गया था।

अमित जी के 75वें जन्मदिन पर यही कहना चाहूंगा कि हिंदी सिनेमा के वे सबसे महान अभिनेता हैं और यकीन मानिए वे ही आगे भी बने रहेंगे। कोई आसपास भी नजर नहीं आ रहा है।

- हर्ष कुमार


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अमिताभ बच्चन से अप्रैल 2015 में दिल्ली में मिलने का मुझे मौका भी मिला बाद जिसके अनुभव को आप मेरे ब्लॉग की पुरानी पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

Friday 30 September 2016

DEEP REVIEW: MS Dhoni - The Untold Story

शानदार क्रिकेटर को सलाम करती जानदार फिल्म 
RATING- 5*
 क्रिकेट के दीवानों और भारतीय क्रिकेट के सबसे महान कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के चाहने वालों के लिए ये एक जबर्दस्त फिल्म है। फिल्म एक वर्तमान क्रिकेटर के जीवन पर आधारित फिल्म है और इसके बावजूद किसी भी विवाद को खड़ा नहीं करती। तीन घंटे की फिल्म केवल धोनी के निजी जीवन पर ही फोकस किए रहती है। पहले हाफ में धोनी के स्कूल ब्वॉय से इंटरनेशनल क्रिकेटर बनने के सफर को बयां करती है तो दूसरे हाफ में धोनी के प्रेम संबंध आदि को दिखाते हुए वहां समाप्त हो जाती है जहां 2011 में भारत ने उनकी कप्तानी में विश्व कप जीता था। और सही भी है, इससे बाद की कहानी तो अभी जारी है और धोनी खेल ही रहे हैं।
 ये फिल्म ऐसे समय में आई है जब पूरा भारत इस पर सोच रहा है कि एक बच्चे के लिए खेल ज्यादा जरूरी है या फिर पढाई। ओलंपिक जैसे बड़े आयोजन में भारत एक अदद स्वर्ण पदक के लिए तरस रहा है। खेलों को बढ़ावा देने के लिए तमाम तरह की योजनाएं बनाने की बात की जा रही है लेकिन सरकारों का खेल प्रेम केवल इस बात तक ही सीमित हो गया है कि अगर कोई खिलाड़ी अच्छा खेलता है तो उसे इनामों से लाद दो या फिर कोई नौकरी दे दो। कोई इस पर नहीं सोचता कि गांव में दूरदराज के छोटे इलाकों में अंकुरित हो रहे खिलाडिय़ों को आगे बढऩे का सुरक्षित प्लेटफार्म कैसे दिया जाए। धोनी की बायोपिक में इस विषय को उठाने का प्रयास भी किया गया है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे पूर्व बीसीसीआई प्रमुख स्व. जगमोहन डालमिया ने क्रिकेट में छिपी हुई बी क्लास शहरों की टैलेंट को ढूंढने के लिए एक विशेष अभियान चलाया और उसी के बाद धोनी को टीम में चांस मिला।
हर आम आदमी की तरह धोनी के पिता पान सिंह (अनुपम खेर), जो एक पंप आपरेटर हैं, धोनी को खेल की बजाय पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए ही कहते रहते हैं। केवल धोनी की मां व बहन (भूमिका चावला) ही उसकी हौसला बढ़ाती हैं। इस फिल्म में यह मुद्दा भी खास जोर देकर उठाया गया है कि सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद भी खिलाडिय़ों का संघर्ष खत्म नहीं होता। धोनी (सुशांत सिंह राजपूत) पहले फुटबाल खेलते थे। स्कूल के खेल टीचर के कहने पर विकेटकीपर के रूप में क्रिकेट टीम में ले लिए जाते हैं और यहीं से उनका सफर शुरू होता है। पहले सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की ओर से खेलते हैं लेकिन अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने के बाद रेलवे की टीम में पहुंच जाते हैं। वहां टीसी की नौकरी तो मिल जाती है लेकिन सारा समय टिकट चेक करने की भागदौड़ में ही निकल जाता है। खेल के लिए समय ही नहीं मिलता। यहां धोनी कुंठा का शिकार होने लगते हैं और नौकरी छोड़कर केवल क्रिकेट को ही अपना सब कुछ बना लेने का फैसला कर लेते हैं। यहीं फिल्म का इंटरवल हो जाता है।
इंटरवल के बाद की फिल्म में कुछ ऐसे वाकये दिखाए गए हैं जिनके बारे में धोनी ने कभी कुछ नहीं कहा लेकिन चूंकि फिल्म उनकी सहमति से बनी है तो यह माना जा सकता है कि ऐसा हुआ ही होगा। धोनी ए टीम में चुने जाते हैं और फिर भारतीय टीम का भी हिस्सा बन जाते हैं। धोनी की एक प्रेम कहानी भी है जो उनके पाकिस्तान के पहले दौरे के समय शुरू हुई थी। हवाई जहाज में भारतीय टीम के साथ एक प्रियंका (दिशा पटनी) नाम की लड़की भी सफर कर रही होती है। प्रियंका धोनी को नहीं पहचानती और उनसे सचिन का आटोग्राफ लेकर देने का निवेदन करती है। धोनी उसकी तमन्ना पूरी कर देते हैं। खुश होकर प्रियंका कहती है कि अगले मैच में उनका खेल बहुत अच्छा होगा और यही होता है। धोनी अपनी पहली सेंचुरी बनाते हैं और यहीं से शुरू हो जाती है प्रेम कहानी। दोनों मिलते भी हैं और एक दूसरे से प्यार का इजहार न भी करते हैं। प्रियंका के दोस्ती से आगे बढऩे के सवाल पर धोनी बार-बार कहते हैं अभी जल्दी क्या है बहुत समय है। दिल्ली में एक सड़क हादसे में प्रियंका की मौत हो जाती है और ये प्रेम कहानी खत्म हो जाती है। धोनी की दूसरी प्रेम कहानी (पत्नी के साथ) भी कुछ इसी तरह शुरू होती है। साक्षी (कायरा आडवाणी) उस होटल में इंटर्न कर रही है जहां भारतीय टीम के कप्तान धोनी ठहरे हुए हैं। मजे की बात यह है कि साक्षी भी उन्हें नहीं पहचाना पाती और उसका यही भोलापन धोनी को भा जाता है। दूसरी प्रेम कहानी आगे बढ़ जाती है, ठीक पहले प्रेम की तरह। साक्षी भी आगे बढऩे को कहती है लेकिन धोनी फिर टाल जाते हैं। तभी उन्हें लगता है कि कहीं पहले प्यार की तरह यह कहानी भी अधूरी न रह जाए इसलिए धोनी शादी करने का फैसला कर लेते हैं। बस इसके बाद भारत उनकी कप्तानी में वल्र्ड कप जीतता है। धोनी छक्का लगाकर मैच जिताते हैं और फिल्म खत्म हो जाती है।

'ए वेडनसडे', 'स्पेशल 26' व 'बेबी' जैसी बेहतरीन फिल्में बनाने वाले नीरज पांडे से जैसी फिल्म की उम्मीद की जाती है वैसी ही उन्होंने बनाई है। कहानी भी उन्होंने खुद ही संभाली है इसलिए तीन घंटे लंबी होने के बावजूद फिल्म कहीं भी बोझिल नहीं होती। शुरू से ही दर्शकों का भावनात्मक लगाव धोनी के साथ हो जाता है और वह लगातार बना रहता है। पांडे ने सबसे बड़ी सफलता यह पाई है कि उन्होंने कहीं भी फिल्म को विवादों में नहीं पडऩे दिया। उदाहरण के तौर पर जब 2008 में भारतीय टीम का चुनाव होता है तो धोनी कहते हैं कि मुझे ये तीन खिलाड़ी नहीं चाहिए। धोनी चयनकर्ताओं से कहते हैं कि हमें अगले विश्व कप (2011) की तैयारी करनी चाहिए और अगर मैं अपनी मनपंसद टीम नहीं चुन सकता तो फिर मुझे कप्तान बने रहने का भी कोई हक नहीं। इस तरह के नाजुक मुद्दे को पांडे ने बहुत ही गंभीरता से हैंडल किया है। तीनों खिलाडिय़ों का नाम नहीं लिया गया है। युवराज सिंह के साथ धोनी का कितना पंगा हुआ है लेकिन फिल्म में युवराज सिंह का कैरेक्टर बहुत ही सधे हुए तरीके से हैंडल कर लिया गया है। कई अन्य मौकों पर भी नीरज ने फिल्म को बेहतरीन तरीके से संभाला है।
 अभिनय के लिहाज से सुशांत सिंह राजपूत ने बढिय़ा काम किया है। इस फिल्म से सबसे ज्यादा फायदा उन्हीं को मिलने वाला है। अनुपम खेर ने धोनी के पिता का रोल जीवंत कर दिया है। पांडे की फिल्मों में वैसे भी अनुपम खेर का रोल हमेशा ही शानदार होता है। दोनों हिरोईनों ने भी अपना काम बढिय़ा किया है। धोनी की बड़ी बहन के रूप में भूमिका चावला ने पूरा न्याय किया है। ऐसी फिल्मों में कास्टिंग डायरेक्टर का रोल अहम होता है। सभी किरदारों के लिए कलाकारों का चयन बढिय़ा है। संगीत का फिल्म में कोई स्कोप ही नहीं है अलबत्ता बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म के अनुकूल है।

 

ये फिल्म कुछ सबक छोड़ती है-

1. खेल में भी कैरियर है और यह बात हमें भी समझनी चाहिए। इसलिए इस फिल्म को देखें और बच्चों के साथ देखें। आप खुद में और अपने बच्चों में बदलाव की इच्छा महसूस जरूर करेंगे।
2. फिल्म में धोनी का किरदार एक और संदेश देता है। वो यह कि खुद में भरोसा रखें और वही करें जो आपका दिल कहता है। यही धोनी ने हर बार किया और सफलता को हासिल किया।

माही को पूरे देश की ओर से सेल्यूट। 

  •  हर्ष कुमार सिंह

Friday 16 September 2016

DEEP REVIEW: Pink

हकीकत ज्यादा फसाना कम, जरूर देखें  

RATING- 5*

सच की जीत होती है। हर फिल्म की तरह यह फिल्म भी यही संदेश देती है। समाज के कई ज्वलंत मुद्दों पर फिल्म बेबाक तरीके से अपनी बात कहने का प्रयास करती है। अगर आप गंभीर सिनेमा के प्रशंसक है तो फिल्म के हर पहलू की आप तारीफ करते थकेंगे नहीं। निर्देशक की ईमानदार कोशिश की भी दाद देनी चाहिए और उसी तरह से सभी कलाकारों के अभिनय की भी। जिन लोगों की बेटियां व जवान होते बेटे हैं वे इस फिल्म को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। बेटे वालों को तो जरूर ये देखनी चाहिए अगर अपने बेटों को बुराई से बचाकर रखना है तो।
फिल्म के सकारात्मक संकेत देखिए। जैसे ही घटनाक्रम शुरू होता है तो अमिताभ बच्चन की बार-बार रहस्यमय उपस्थिति भी दिखाई जाती है और वहीं से दर्शक इस बात से आश्वस्त हो जाता है कि फिल्म में पीडि़त लड़कियों को न्याय मिलकर रहेगा। यही नहीं जब केस की कोर्ट में सुनवाई शुरू होती है तो जज साहब भी पहले ही दिन से लड़कियों के पक्ष में नजर आते हैं। शायद इसकी वजह यह थी कि आरोपी किसी बड़े बाप का बेटा था। पर क्या वास्तविक जीवन में भी ऐसा होता है? केस लडऩे के लिए अमिताभ बच्चन जैसा वकील और बड़े लोगों से चिढ़ा हुआ एक जज, क्या किसी रीयल केस में भी हो सकते हैं?

बहरहाल बहस में न पड़कर अगर फिल्म के जरिये दिए गए संदेश की बात करें तो सबसे बड़ा सबक यही मिलता है कि भले ही आप बेकसूर हैं लेकिन आपको इसे साबित करने के लिए बहुत प्रयास करने पड़ते हैं और अपमान सहना पड़ता है। खासतौर से लड़कियों के लिए तो खुद को 'चरित्रवान' साबित करने के लिए तो न जाने क्या-क्या सहना पड़ता है। एक सीन बहुत ही अच्छा है। जब तापसी व बच्चन मार्निंग वाक पर होते हैं तो पास से गुजरता एक लड़का कहता है कि ये है सूरजकुंड कांड वाली लड़की। तापसी सुनकर अपनी जैकेट की हुड से चेहरा ढंक लेती है लेकिन बच्चन उसके सिर से हुड उतार देते हैं। लड़कियों को साहसी बनने का संदेश ये सीन देता है और इसमें समाज का कुरूप चेहरा भी उजागर करने का प्रयास है।


फिल्म की कहानी दिल्ली में लड़कियों के साथ पिछले कुछ साल में हुई शारीरिक व मानसिक शोषण की घटनाओं से जुड़ी है। तीन लड़कियां पार्टी में तीन रईसजादों के साथ जाती हैं जहां लड़के उनका उत्पीडऩ करने का प्रयास करते हैं। एक लड़की (तापसी) बचाव में एक युवक राजवीर (अंगद बेदी) को घायल कर देती है जो बड़े बाप का बेटा है। राजवीर व उसके दोस्त लड़कियों को धमकाने लगते हैं। तापसी को उठाकर उससे रेप भी करते हैं अपना प्रभाव दिखाने के लिए। लड़कियां चुप न रहकर केस लडऩे का फैसला करती हैं और दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) वकील के रूप में उनका साथ देते हैं और अंत में न्याय भी दिलाते हैं।



इंटरवल के बाद पूरी फिल्म कोर्ट में चलती है और कोर्ट रूम के सीन बहुत ही शानदार तरीके से लिखे गए हैं। अमिताभ बच्चन पूरे समय वकील के रूप में कोर्ट में मौजूद रहते हैं इसलिए बोर होने का तो सवाल ही नहीं उठता। अमिताभ बच्चन ने अपने इतने लंबे कैरियर में शायद पहली बार वकील की भूमिका निभाई और क्या अभिनय उन्होंने किया है। एक बुजुर्ग व बीमार वकील के किरदार को अमिताभ ने जीवंत कर दिया है। तीनों लड़कियों ने भी अपने किरदार ईमानदारी से निभाए हैं लेकिन तापसी पन्नु व कीर्ति कुल्हारी को कोर्ट में कुछ अच्छे सीन मिले हैं और उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया है। दरअसल फिल्म दिल्ली आधारित है और इसलिए तापसी पन्नु व कीर्ति एकदम फिट बैठती हैं। तापसी (मीनल अरोरा) ने करोलबाग की पंजाबी लड़की का रोल किया है तो कीर्ति (फलक अली) ने दिल्ली में काम करने वाली लखनऊ की एक मुस्लिम लड़की का किरदार निभाया है और दोनों इसमें फिट नजर आती हैं। तापसी पन्नु सुंदर हैं और पूरी फिल्म में ही उन्होंने लगातार सबका ध्यान खींचने में सफलता पाई है। कीर्ति ने जब मौका मिला तो जमकर टक्कर ली। तीसरा लड़की आंद्रिया तैरंग को नार्थ ईस्ट की लड़कियों से दिल्ली में भेदभाव का मुद्दा फिल्म के साथ जोडऩे के लिहाज से रखा गया है और वह यह मकसद पूरा कर देती हैं। कास्टिंग अन्य किरदारों के लिए भी बहुत अच्छी की गई है। जज के रोल में धृतमान चटर्जी ने जान डाल दी है तो सरकारी वकील के रूप में पीयूष मिश्रा ने भी जबर्दस्त काम किया है।

निर्देशक अनिरुद्ध राय चौधरी ने सभी किरदारों के लिए जो बॉडी लैंग्वेज गढ़ी है वो पूरी फिल्म में नजर आती है। सभी पहलुओं पर उनकी कड़ी पकड़ रहती है। कहानी व पटकथा कसी हुई है। इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है कि जिस घटना पर पूरी कहानी आगे चलती है उसे क्लाईमैक्स में दिखाया गया है। इसके बावजूद कहीं भी इसकी कमी नहीं खलती कि आखिर उस रात हुआ क्या था?

फिल्म में कई संदेश बहुत ही अच्छे तरह से दिए गए हैं। कई सवालों के जवाब निर्देशक ने देने का प्रयास किया है। लड़कियों को क्या पहनना चाहिए, कैसे व्यवहार करना चाहि
ए। शराब लड़के पीएं तो सही है और अगर लड़की पीए तो गलत? लड़कियां अकेले रहती हैं तो उनका कैरेक्टर गलत है, और वे धंधा करने वाली हैं? कोर्ट में लड़कियों को अपने कुंवारेपन को लेकर कैसे-कैसे सवालों का सामना करना पड़ता है इसे बहुत ही बेहतरीन तरीके से पेश किया गया है। अमिताभ बच्चन जब अपनी ही मुवक्किल (तापसी) से ऐसे सवाल करने लगते हैं तो बड़ा अजीब जरूर लगता है लेकिन अंत में सवालों में ही जवाब भी निकल आता है और सब भौंचक्क रह जाते हैं।

फिल्में समाज का दर्पण होती हैं और ये बात 'पिंक' में पूरी तरह से साबित हो जाती है। अहम सवाल यह है कि इस तरह की फिल्म को बाक्स आफिस पर रिस्पांस कैसा मिलता है। अगर फिल्म कमर्शियल रूप से सफल रहती है तो फिल्म सफल है नहीं तो फिर इस तरह की फिल्म केवल एक खास वर्ग व पुरस्कारों तक ही सीमित होकर रह जाती हैं। इसे टैक्स फ्री करने में कोई हर्ज नहीं था। शुरू ही में टैक्स फ्री कर दिए जाने से फिल्म ज्यादा लोगों तक पहुंच पाती।

- हर्ष कुमार सिंह

Saturday 10 September 2016

DEEP REVIEW (Career): Katrina Kaif - Parveen Boby of our era?

क्या कैटरीना कैफ वर्तमान दौर की परवीन बाबी हैं ? क्या कैटरीना कैफ का कैरियर खात्मे की ओर चल पड़ा है? 'बार-बार देखो' की ओपनिंग औसत भी नहीं लग पाई। इससे पहले 'फितूर' के साथ भी यही हुआ था। ऐसे बहुत से सवाल उठ रहे हैं जिनका जवाब इस स्टोरी में हमने जानने की कोशिश कीः-

'बार-बार देखो' को आमिर खान के लिए लिखा गया था तो 'फितूर' को सिद्धार्थ राय कपूर ने अपने भाई आदित्य कपूर (आशिकी व दावत ए इश्क) को री लांच करने के लिए बनाया था। 'बार-बार देखो' के लिए आमिर खां ने तो हां नहीं की, बाद में सिद्धार्थ मल्होत्रा आए, लेकिन फिर भी फरहान अख्तर, रीतेश सिडवानी और करण जौहर जैसे निर्माताओं की टीम ने इसमें कैटरीना कैफ को लीड एक्ट्रेस बनाए रखा। शायद उन्हें उम्मीद थी कि भले ही आमिर फिल्म नहीं कर रहे हैं लेकिन कैटरीना के नाम पर फिल्म चल जाएगी। इससे पहले फरहान अख्तर कैट के साथ 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' कर चुके थे और उनसे प्रभावित थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि फिल्म को अच्छा रिस्पांस मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दूसरी और यूटीवी के मालिक व विद्या बालन के पतिदेव सिद्धार्थ राय कपूर भी अपने भाई आदित्य कपूर को स्थापित करने के लिए एक बड़ी हिट बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने 'फितूर' जैसी फिल्म बनाई जिसमें कश्मीर का विवादित विषय था। हिरोईन के रूप में कैटरीना कैफ को भी मना लिया गया। आदित्य कपूर के साथ कोई भी हिरोईन काम करने के लिए राजी नहीं हो रही थी लेकिन संबंध निभाने में पक्की कैटरीना ने हां कर दी। सिद्धार्थ को लगा कि फिल्म कैट के नाम पर चल जाएगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दोनों ही फिल्में बाक्स आफिस पर एक ही दिन में ढेर हो गई।
इन फिल्मों के निर्माताओं का हश्र कुछ भी रहा हो लेकिन इतना तो तय हो गया कि कैटरीना कैफ का जादू अब ढल रहा है। 
दीपिका, जैकलीन और अनुष्का की चमक के सामने कैटरीना की विदेशी ब्यूटी फीकी पड़ रही है। वैसे भी कैट के बारे में मशहूर है कि मिस कैफ (33) भी तभी अच्छा काम करती नजर आती हैं जब उन्हें बड़े प्रोजेक्ट मिलते हैं। 'जब तक है जान' या 'धूम 3' जैसे प्रोजेक्ट छोड़ दें तो अन्य फिल्मों में कैटरीना बहुत ही साधारण नजर आती हैं। अपने 13 साल के कैरियर में कई बड़ी हिट फिल्मों में काम कर चुकी कैटरीना कैफ जिस तरह से एक के बाद एक फ्लाप फिल्में दे रही हैं उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि अब कैट का टाप पर जमे रह पाना आसान नहीं होगा। यशराज के बैनर में 'धूम 3' व 'जब तक है जान' के बाद कैटरीना की एंट्री बंद हो चुकी है।कहा जा सकता है कि उनके कैरियर का टॉप का वक्त गुजर चुका है।

कैटरीना के बारे में कहा जा सकता है कि उन्होंने फिल्म इंटस्ट्री में अच्छे दोस्त बनाए और उनके सहारे आगे बढ़ी। 2003 में 'बूम' जैसी बहुत ही घटिया फिल्म से कैरियर की शुरूआत करने वाली कैटरीना कैफ को इसके बाद दक्षिण भारत की फिल्मों की ओर रुख करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसी समय सलमान खान उनके गॉड फादर बने और उन्हें 'मैंने प्यार क्यों किया' के जरिये बालीवुड में एक अच्छा ब्रेक दिया। कहा जा सकता है कि यह पहली फिल्म थी जिसके बल पर कैटरीना को बालीवुड में पहचान मिली। इसके बाद 'सरकार', 'हमको दीवाना कर गए', 'नमस्ते लंदन' जैसी फिल्मों ने कैटरीना को स्थापित किया।
वक्त के साथ-साथ कैटरीना सलमान से दूर होती चली गई और रनबीर कपूर के साथ 'राजनीति' करने के बाद उनकी कैमिस्ट्री अच्छी खासी बन गई। सलमान खान के साथ 'पार्टनर' के बाद से उनकी जोड़ी टूट गई। इस दौरान 'वेलकम' जैसी फिल्में जरूर कैटरीना ने की लेकिन उनके कैरियर में एक ठहराव सा आने लगा। 'युवराज' व 'न्यूयार्क' जैसी फिल्में नहीं चल सकी। रनबीर के साथ उनके निजी रिश्ते कैसे भी रहे हों लेकिन दोनों की जोड़ी फिल्मों में नहीं चल सकी। रनबीर के साथ 'अजब प्रेम की गजब कहानी' के अलावा उनकी कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं आई। रनबीर का साथ उन्हें बड़ी फिल्में नहीं दिला पाया। इसी समय सलमान खान व कबीर खान (न्यूयार्क) की बदौलत कैटरीना को यशराज फिल्म्स में एंट्री मिली जो उनके कैरियर का सबसे बेहतरीन पड़ाव साबित हुई।
 सलमान व कबीर की बदौलत कैटरीना को 'एक था टाइगर', 'धूम 3' व 'जब तक है जान' जैसी बड़ी फिल्में मिलीं। ये उनके कैरियर की बुलंदी थी। इनमें कैट ने सलमान, आमिर व शाहरुख के साथ काम किया। फिल्में सफल भी रही और कैटरीना को बालीवुड में नंबर वन हिरोईनों में भी गिना जाने लगा।
बालीवुड में कहा जाता है कि अगर आपके ताल्लुकात नहीं हैं तो आपको फिल्में भी नहीं मिलती हैं। यशराज बैनर में कैटरीना ज्यादा नहीं टिक सकीं। इसके अलावा करण जौहर जैसे समकालीन निर्देशकों की गुडलिस्ट में भी वह शामिल नहीं हो सकी। यहीं से शुरूआत हुई कैटरीना के कैरियर के पतन की। जिस राह पर चलकर कैटरीना कैफ ने फिल्मों में पैर जमाए उसी पर चलकर अब जैकलीन फर्नांडीज जैसी हिरोईनें आगे निकल रही हैं। साजिद नाडियाडवाला जैसे निर्माता जैकलीन को तीन-तीन फिल्मों में रिपीट कर रहे हैं। दूसरी ओर कैटरीना 13 साल से ज्यादा समय हिंदी फिल्मों में गुजारने के बाद भी हिंदी नहीं सीख पाई। किसी नामी अवार्डट को वह हासिल नहीं कर पाईं। एक तरह से उनकी तुलना बीते दौर की हिरोईन परवीन बाबी से कर दी जाए तो गलत नहीं होगा।
यशराज फिल्म्स ने 'जब तक है जान' में यश चोपड़ा ने कैटरीना को अपनी लीड एक्ट्रेस के रूप में कास्ट किया था लेकिन रोल को पसंद किया गया अनुष्का शर्मा के। अनुष्का ने साबित कर दिया कि अगर निर्देशक उन्हें मौका दें तो वे कमाल कर सकती हैं। कैटरीना लीड में थी लेकिन इसके बाद भी फिल्म में अनुष्का छा गई।

अब कैटरीना के पास 'जग्गा जासूस', 'राजनीति 2', 'सन आफ सरदार 2', 'पार्टनर 2' जैसी ही फिल्में हैं। इनमें से जिन भी फिल्मों के सीक्वल बन रहे हैं उनका भविष्य अधर में ही है। ऐसे में कहा नहीं जा सकता कि कैट का कैरियर बहुत आगे जाएगा।
इस के अलावा किसी बैनर के साथ उन्होंने ऐसी कोई फिल्म नहीं की जिसे कहा जा सके कि वे उनके लिए माइल स्टोन साबित हुई। आफ स्क्रीन तो उनके रोमांस बहुत ही पापुलर हुए लेकिन ऑन स्क्रीन नहीं। दीपिका पादुकोण जिस तरह से रणवीर सिंह के साथ अपनी आन व आफ स्क्रीन कैमिस्ट्री को निभाया है वैसा भी कैट नहीं कर पाई। ऐसे में उनका कैरियर ग्राफ तो नीचे आना ही था। 'चिकनी चमेली' व 'शीला की जवानी' जैसे आइटम सांग ही कैटरीना की लिस्ट में परफोर्मेंस के नाम पर नजर आते हैं।

-हर्ष कुमार सिंह

Thursday 25 August 2016

DEEP REVIEW: A Flying Jatt

खामियों और भूलों से भरी हुई फिल्म है 'ए फ्लाइंग जट' 

RATING- 1*


अगर निर्देशक के नजरिये से देखा जाए तो उसने इस फिल्म के जरिये दो संदेश देने की कोशिश की है। पहली, दुनिया के लिए प्रदूषण सबसे बड़ा खतरा है और इसे केवल पेड़ लगाकर ही खत्म किया जा सकता है। दूसरा, सिखों का 12 बजे वाला मजाक उन्हें नीचा दिखाने के लिए चलाया गया है जबकि इसका ताल्लुक उनकी बहादुरी से जुड़े तीन सौ साल पुराने एक किस्से से है। दोनों ही अच्छे प्रयास हो सकते थे अगर इन्हें थोड़ा गंभीरता से दिखाया गया होता।

दरअसल जब फिल्म शुरू होती है तो दर्शकों की लगता है कि ये किसी कृष टाइप सुपर हीरो की कहानी है। इंटरवल तक यही होता भी है। टाइगर श्राफ सुपरमैन की तरह उड़ते रहते हैं और उटपटांग हरकतें करते हैं। इंटरवल के बाद भाषणबाजी का सिलसिला शुरू होता है कि प्रदूषण कितना खतरनाक है। प्रदूषण को लेकर सबसे पहले चिंता होती है विलेन के के मेनन को। जैसे ही उन्हें पता चलता है कि उनकी बेटी को अस्थमा हो गया है वे तुरंत ही सुधर जाते हैं। वाह क्या बात है। कहानी एक लाइन की है। एक जमीन है जिस पर टाइगर व उसकी मां अमृता रहते हैं। उसे के के खाली कराना चाहते हैं अपने व्यवसायिक हित के लिए। बस यही आधार है बाकी सब पुरानी फिल्मों की जूठन है।

कई बार तो फिल्म देखते हुए ऐसा लगने लगता है कि शायद निर्देशक रेमो डिसूजा को कुछ याद आ गया तो उन्होंने तुरंत कहानी में जोड़ दिया। हां, याद आया। जैकलीन फर्नांडीज भी है फिल्म में। निर्देशक इंटरवल तक उन्हें भी भूल जाते हैं। फिर अचानक ही उन्हें याद आता है कि जैकलीन भी तो हैं। इंटरवल से पहले जैकलीन को जहां एक संवाद भी बोलने का मौका नहीं मिला था वहीं अचानक उनके लिए दो-दो गाने सेकेंड हाफ में फिट कर दिए गए हैं। फस्र्ट हाफ में तो ऐसा लग रहा था कि शायद फिल्म में कोई गीत है ही नहीं। एक भांगड़ा गीत था वह भी लीड स्टार के बजाए साइड हीरो पर फिल्माया गया था। हां, याद आया। फिल्म में सुपर हीरो का एक भाई भी है। ये भाई पूरी फिल्म में हीरो के दोस्त की तरह व्यवहार करता है लेकिन है वह उसका भाई। निर्देशक ने हीरो के भाई का प्रयोग मनचाहे तरीके से किया है। जब कभी उसे फ्लाइंग जट बनाना होता था तो सुपर हीरो की ड्रैस पहना दी जाती थी और जब टाइगर का भाई बनाना होता था तो साधारण कपड़े पहना दिए जाते थे। कई बार उसे कामेडियन की तरह पेश कर दिया जाता है। इंटरवल के बाद अचानक ही डिसूजा को याद आता है कि फिल्म में हंसी मजाक बहुत हो गई और अब इमोशन होना चाहिए। इसके लिए उन्होंने टाइगर के भाई की कुर्बानी देने में एक मिनट की देर नहीं लगाई। के के मेनन द्वारा तैयार किए गए महामानव राका (हल्क टाइप हालीवुड स्टार नाथन जोंस) के हाथों हीरो के भाई को कुत्ते की मौत मरवा दिया जाता है। हां, याद आया। खैर अंत में फ्लाइंग जट राका को मारता है। उसे मारने के लिए निर्देशक ने क्या जोरदार आइडिया निकाला। राका को मारने के लिए फ्लाइंग जट उसे धकेल कर चांद पर ले जाता है। क्योंकि वहां प्रदूषण नहीं है। शायद चांद पर आक्सीजन थी वरना टाइगर सांस कैसे ले रहे थे? हां, यहां ये भी बता दूं कि राका को कोई भी घाव इसलिए नहीं होता था क्योंकि वह धुआं सूंघकर खुद को ठीक कर लेता था और चांद पर उसे जब धुंआ नहीं मिलता है तो वह आसानी से मर जाता है। क्या गजब की स्टोरी बनाई है लेखक ने। यानी हर बात का तोड़ है।

टाइगर श्रॉफ को भी शायद ये लगने लगा है कि लोग उनकी मार्शल आर्ट व डांस की कला को ही पसंद करते हैं। लगातार तीसरी फिल्म में भी टाइगर वही सब करते नजर आ रहे हैं जो वे पहले भी कर चुके हैं। उनके लिए चिंता की बात यह है कि उनकी फिल्मों का स्तर भी लगातार गिरता जा रहा है। 'हीरोपंती' औसत थी, 'बागी' ठीक ठाक थी लेकिन 'ए फ्लाइंग जट' तो कुछ भी नहीं है। यानी धीरे-धीरे उनका ग्राफ नीचे आ रहा है। टाइगर की डायलाग डिलीवरी तो खराब है ही साथ ही उनकी हिंदी भी खराब है। उन्हें अपनी इस कमजोरी को सुधारना होगा नहीं तो उन्हें लोग केवल नाच गाने व एक्शन के लिए ही कब तक झेलते रहेंगे। इस फिल्म के प्रमोशन के दौरान टाइगर ने यह कहा है कि बचपन में उनका मजाक भी उड़ाया जाता था, वे सही कहते हैं। कई बार वे एकदम लड़कियों की तरह कमनीय नजर आते हैं तो कभी एकदम ही मैन। फिल्म में भी सनी लियोनी के गाने पर उन्हें नचवा कर निर्देशक ने उनका मजाक उड़वाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।


जैकलीन फर्नांडीज की ये लगातार तीसरी फिल्म है (हाउसफुल 3 और ढिशूम के बाद) जिसमें वे फालूत का किरदार निभाते नजर आई हैं। जिस तरह से उनकी फिल्म में एंट्री होती है समझ में नहीं आता कि निर्देशक उनसे क्या कराना चाहता है। टाइगर इस तरह उन्हें देखते हैं कि जैसे शायद पहली बार देख रहे हैं लेकिन अगले ही सीन में वे उनकी साथी स्कूल टीचर के रूप में नजर आ जाती हैं। उन्हें जिस तरह चशमिश के रूप में दिखाया जाता है उसे देखकर लगता है कि शायद कहानी कुछ इस तरह आगे बढ़ेगी कि उनके लुक के कारण सुपर हीरो उन्हें पसंद नहीं करेगा लेकिन ऐसा नहीं होता और फ्लाइंग जट उन पर हर हाल में लट्टू रहता है। यानी आप जो सोचते हैं निर्देशक वही नहीं होने देता। जैकलीन भी टाइगर की तरह हिंदी नहीं बोल पाती हैं और उनके लिए डबिंग आर्टिस्ट की मदद ली जाती है। उन्हें अपनी इसे सुधारना चाहिए। श्रीदेवी से लेकर श्रुति हसन तक तमाम ऐसी हिरोईनें बालीवुड में आई हैं जो हिंदी भाषी नहीं थी लेकिन फिर बाद में हिंदी सीखकर अच्छे किरदार करने में सफल रही। वैसे फिल्म में जैकलीन के साथ कुछ ज्यादा ही अन्याय किया गया है। उनके कास्ट्यूम बहुत ही घटिया हैं। एक गाना तो नाइट सूट में ही फिल्मा दिया गया। फिल्म के एक गाने 'बीट पे बूटी' के बारे में बहुत कुछ सुना था लेकिन इस गाने को बहुत ही घटिया तरीके से फिल्माया गया है। लगता है एकता कपूर ने बजट कम कर दिया था। उन्हें लगा होगा कि क्यों फिल्म को ओवर बजट किया जाए। रेमो से भी इतने खराब फिल्मांकन की उम्मीद नहीं थी।

फिल्म में लंबे अर्से बाद अमृता सिंह नजर आई हैं। वे पूरी फिल्म में शराबी महिला की ओवर एक्टिंग करती नजर आती हैं। उनकी शराब पीने की आदत किसी को नहीं भाती है। न ही इससे हास्य पैदा होता है और न ही किरदार में कोई विशेषता आती है। कई बार तो अमृता सिंह को देखकर दया आती है। वे अपने समय में अच्छी कलाकार रही हैं और अब उन्हें किस तरह के वाहियात रोल मिल रहे हैं। फिल्मी दुनिया भी कितनी अजीब है। अमृता मां के किरदार निभा रही हैं वहीं उनके पूर्व पति सैफ अली खां एक बार फिर पिता बनने जा रहे हैं। वैसे टाइगर के पिता जैकी श्राफ भी अमृता के साथ हीरो आ चुके हैं इसलिए वे टाइगर की मां के रोल में अटपटी नहीं लगती।

कुल मिलाकर 'ए फ्लाइंग जट' एक ऐसी फिल्म है जिसमें कुछ भी ओरिजनल नहीं है। अंग्रेजी व हिंदी की पुरानी फिल्मों से ही तमाम आइडिया चुराकर फिल्म बना दी गई है। हालीवुड की फिल्मों के एक्शन सीन हू ब हू कापी कर दिए गए हैं। सिनेमा के अंदर बैठे दर्शक, यहां तक की बच्चे भी बताने लगते हैं कि अरे ये सीन तो फलां फिल्म में भी था। अंत में यही कहना चाहूंगा कि सुपर पावर वाले हीरो की एक फिल्म तीन दशक पहले शेेखर कपूर ने भी बनाई थी 'मिस्टर इंडिया' के नाम से। इस फिल्म में सुपर पावर का प्रयोग कॉमेडी के अंदाज में बहुत ही शानदार तरीके से दिखाया गया था। उसमें नायक ने कोई स्पेशल ड्रैस भी नहीं पहनी थी। बस एक ट्वीड का पुराना कोट ही पहने नजर आता था मिस्टर इंडिया लेकिन क्या गजब की फिल्म बनी थी। हालीवुड की फिल्मों से प्रेरणा लेने के बजाय अगर हमारे निर्देशक पुरानी हिंदी फिल्मों से ही कुछ सीख लें तो बहुत ही अच्छी फिल्म बनाई जा सकती है। संजय लीला भंसाली ने डंके की चोट पर पुराने दिग्गजों की निर्देशन कला को अपनाया और 'बाजीराव मस्तानी' जैसी ब्लाक बस्टर फिल्म बना डाली।


-हर्ष कुमार सिंह

Friday 29 July 2016

DEEP REVIEW: Dishoom


टाइम पास फिल्म भी नहीं बन पाई 'ढिशूम'

RATING- 1*


डेविड धवन के निर्देशक बेटे रोहित धवन अब पूरी तरह से अपने पिता की लाइन पर चल निकले हैं। उन्होंने 'ढिशूम’ को वर्तमान दौर की 'बड़े मियां छोटे मियां’ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब चूंकि वरुण धवन उनके भाई हैं तो उन पर तो विशेष ध्यान दिया ही जाना था। फिल्म में अगर कोई चीज परफेक्ट है तो वह है वरुण धवन का किरदार। कई बार तो उन्हें ऐसे दिखाया गया है कि जैसे फिल्म के मुख्य हीरो वे हैं जॉन अब्राहम नहीं। रोहित धवन ने कुछ साल पहले 'देसी ब्वॉयज’ नाम की एक फिल्म लिखी व डायरेक्ट की थी। हालांकि फिल्म ज्यादा चली नहीं थी लेकिन फिर भी अक्षय कुमार व जॉन अब्राहम की जोड़ी की वजह से लोगों ने उसे देखा तो और पंसद भी किया था। हालांकि बाक्स आफिस पर वह कोई बड़ा तीर नहीं मार सकी थी। कुछ ऐसी ही 'ढिशूम’ के साथ भी होने वाला है।

फिल्म की स्टोरी लाइन बहुत ही मामूली है। गल्फ के एक देश में भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट टूर्नामेंट का फाइनल मैच खेला जाना है। भारतीय टीम के स्टार प्लेयर विराज शर्मा (विराट कोहली से प्रेरित) की वजह से लगातार घाटा खा रहा एक बुकी उसे किडनेप करा लेता है और उसे अपने हिसाब से खेलने के लिए कहता है। मैच में केवल 36 घंटे बचे हैं। विराज की हकीकत खुलने पर देश में दंगे हो सकते हैं और इसलिए भारत सरकार अपने अधिकारी जॉन को वहां भेजती है विराज को ढूंढने के लिए। वरुण गल्फ कंट्री में ही ट्रेनी पुलिस अफसर है जो जॉन की मदद करता है विराज को ढूंढने में। इसी तलाश के बीच जैकलीन फर्नांडीज, नरगिस फाखरी, अक्षय कुमार, अक्षय खन्ना, राहुल देव आदि एक-एक करके आते रहते हैं। अंत में सब लोग विराज को ढूंढने में विफल रहते हैं तो एक कुत्ता इत्तेफाक से उसका पता बता देता है। सब कुछ बहुत ही बचकाने ढंग से होता है।

क्रिकेटर की तलाश के दौरान जो कुछ भी घटित होता है उसे देखकर कहीं भी ये नहीं लगता कि कुछ ऐसा देख रहे हैं जो पहले नहीं दिखाया गया। फिल्म में नयापन डालने के लिए निर्देशक ने शूटिंग के लिए गल्फ के छोटे-छोटे देशों की लोकेशंस के जरिये आकर्षक बनाने का प्रयास किया है। महेंद्र अमरनाथ, अतुल वासन व रमीज राजा जैसे क्रिकेटर कमेंटटेर के रूप में भी आते हैं। वरुण धवन के मुंह से मोदी जी की तारीफ भी कराई गई है लेकिन इससे भी बात नहीं बन पाई। फिल्म का स्क्रीन प्ले बेहद कमजोर है। कब क्या होने वाला है और क्या हो सकता है इसमें किसी की भी दिलचस्पी नहीं रहती।

एक दो बार वरुण धवन जरूर हंसाने में सफल रहते हैं। फिल्म में कुछ डायलाग मजेदार हैं और लोगों को हंसा देते हैं। म्यूजिक के नाम पर फिल्म में केवल दो ही गाने हैं और वे भी दूसरे हाफ के अंतिम 30 मिनट में। दर्शक इंतजार करते रहते हैं कि कोई गाना ही जाए। पहला हाफ तो यूं ही गुजर जाता है। दोनों ही गीत किसी काम के नहीं हैं। एक गाना फिल्म के अंत में ठूंसा गया है। इसमें परिणीति चोपड़ा आइटम गर्ल के रूप में आई हैं लेकिन गाना इतना कमजोर है कि पहले ही फिल्म से ऊब चुके दर्शक सिनेमा हाल से बाहर निकल लेते हैं और गाना बस यूं ही चलता रह जाता है। ये कमजोर निर्देशन की पहचान है। निर्देशक सोच रहा था कि शायद लोग गाने की इंतजार में अंत तक बैठे रहेंगे। वे भूल गए थे कि यदि गाना जोरदार हो तो वह फिल्म के पहले 10 मिनट में भी अपना असर छोड़ सकता है। 80 के दशक में 'तेजाब' फिल्म की प्रसिद्ध गीत 'एक दो तीन’ शुरू के दस मिनट में ही था और फिल्म जबर्दस्त चली थी। खैर उस फिल्म से तो इसकी तुलना करना ही बेमानी है।

फिल्म में अभिनय के नाम पर जॉन अब्राहम हमेशा की तरह जीरो हैं। जैकलीन बहुत ही चुलबुली लगती हैं लेकिन उनका रोल बहुत ही कम है। इंटरवल से पहले तो वे एक ही सीन में नजर आती हैं। वे अगर अच्छे रोल चुनें तो उनका कैरियर पटरी पर आ सकता है। वरुण धवन ने रोल अच्छा किया है। या यूं कहें कि उनके लिए अच्छे सीन लिखे गए हैं तो ज्यादा सही होगा। अक्षय खन्ना का विलेन के रूप में आना ये साबित कर रहा है कि उनके पास अब काम नहीं है और उन्हें कोई भी रोल मिले वे हां कर देंगे। अक्षय कुमार कैसे एक गे कैरेक्टर करने के लिए राजी हो गए ये समझ में नहीं आया। वे इतने बड़े स्टार हैं उन्हें ऐसे रोल में देखना अजीब लगा। वैसे वे हंसा जाते हैं लोगों को। नरगिस फाखरी क्यों बालीवुड में हैं समझ से बाहर है। दो सीन हैं उनके और उसमें से एक में वे बिकिनी में ही रही हैं।

कुल मिलाकर यदि फिल्म से वरुण धवन को निकाल दिया जाए तो इसमें कुछ भी देखने के लायक नहीं बचेगा। आप किसी के कहने में न आएं। फिल्म बिल्कुल भी देखने के काबिल नहीं है। इस पर दस रुपये भी खराब न करें। बैटर ये होगा कि आप अगर वीकेंड पर फिल्में देखने के आदी हैं तो एक बार 'सुल्तान’ ही दोबारा देख लें।

- हर्ष कुमार सिंह

Thursday 7 July 2016

DEEP REVIEW [Business] : Salman Khan is only "Sultan" in Bollywood

सलमान तो बाक्स आफिस के 'सुल्तान’ हैं तो 'सुल्तान’ ही बनेंगे

Business Rating: 5*


मेगा स्टार अमिताभ बच्चन के बाद सलमान खान पहले सुपर स्टार हैं जिनके नाम पर ही लोग फिल्म देखने चले आते हैं। क्यों? जानिए इस बिजनेस रीव्यू में:-


जैसी की उम्मीद थी सलमान खान की ‘सुल्तान’ ने बाक्स आफिस पर सफलता का परचम लहरा दिया है। इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले नहीं दिखाया गया लेकिन फिर भी ये फिल्म एक ही दिन में 35 करोड़ रुपये से ऊपर कलेक्ट कर रही है। एक ऐसा आंकड़ा जो कई फिल्मों के लाइफटाइम बिजनेस से भी ज्यादा है। इस बार लगातार दो दिन तक इसके लिए मनपंसद सिनेमा में मनचाहे शो टाइम का मनचाहा टिकट ले पाने में विफल होने के बाद मैंने इस बार इस फिल्म का बिजनेस रीव्यू करने की कोशिश की और फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन से जुड़े खास लोगों से भी बात की कि आखिर सलमान की फिल्म ही ऐसा बिजनेस क्यों कर रही है? वैसे मेरा मानना है कि यदि फिल्म के टिकट रेट न बढ़ाए जाते तो फिल्म और भी बड़ी ओपनिंग ले सकती थी। वीकेंड तक तो ठीक है लेकिन सोमवार से फिल्म के टिकट रेट कम करने ही होंगे।

पहली बार पहलवान का किरदार निभा रहे सलमान खान की इस फिल्म ने पूरे देश की तरह दिल्ली-एनसीआर में भी बंपर ओपनिंग ली। 5 दिन लंबे वीकेंड में यह फिल्म ओपनिंग के तमाम कीर्तिमान ध्वस्त कर हिंदी सिनेमा की पिछले कुछ सालों की सबसे बड़ी हिट साबित होने जा रही है। मैं समझ रहा था कि फिल्म का बिजनेस 'बजरंगी भाईजान’ के आसपास होगा लेकिन शायद ये फिल्म उसकी कलेक्शन तो पार नहीं कर पाए। 'बजरंगी भाईजान’ का बिजनेस 300 करोड़ के पार गया था। क्रिटिक्स का मानना है कि फिल्म का सेकेंड हाफ वीक है और 'बजरंगी भाईजान’ की तरह जोरदार क्लाइमेक्स इस फिल्म में नहीं है। फिर भी सलमान खान की फिल्म है और 200 करोड़ का आंकड़ा तो एक हफ्ते के भीतर ही पार कर सकती है।

'सुल्तान’ ईद पर रिलीज होनी है ये तो सबको साल भर पहले से ही पता था लेकिन इसका पहला वीकेंड पांच दिन लंबा होगा ये किसी ने नहीं देखा था। चूंकि ईद की तारीख पहले से फाइनल नहीं की जा सकती इसलिए अनुमान के आधार पर ही ये मान लिया गया था कि 6 जुलाई को ईद होगी और इसलिए बुधवार होने के बावजूद सारी स्क्रीन बुधवार से ही बुक कर ली गई। इससे पहले सलमान की 'किक’ वीरवार को रिलीज हुई थी। ईद 7 जुलाई की हो गई लेकिन इससे फिल्म की एडवांस बुकिंग पर फर्क नहीं पड़ा। बुधवार को दिल्ली में सारे शो एडवांस में ही फुल रहे। वीरवार को तो खैर ईद थी इसलिए यही हालत रही दूसरे दिन भी। मल्टीप्लेक्सों में कुछ सीट बहुत आगे की पंक्ति में पड़ जाने की वजह से जरूर खाली रह जाती हैं। चूंकि हर 20 मिनट में शो शुरू हो रहा है ऐसे में दर्शकों के पास च्वाइस है कि वह मनपसंद सीट न मिलने पर अगले शो में अपनी पसंद की सीट चुन ले। इसलिए कुछ सीट तो बच ही जाती हैं।

मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक सुभाष घई की वितरण कंपनी मुक्ता आट्र्स के (दिल्ली-एनसीआर, वेस्ट यूपी व पंजाब) सीईओ संजय घई ने बताया कि दिल्ली व एनसीआर में लगभग 400 स्क्रीन हैं और सभी 'सुल्तान’ के लिए बुक हैं। उन्होंने बताया कि 400 स्क्रीन का मतलब है कि एक दिन में कम से कम 1700 शो चल रहे हैं और 90 से 100 प्रतिशत के बीच बुकिंग है। ऐसे में फिल्म की ओपनिंग का अंदाज लगाया जा सकता है। संजय घई से जिस समय मैंने बात की वो देहरादून में थे और वहां सपना सिनेमा की ओपनिंग में भाग ले रहे थे। संजय मुक्ता द्वारा दिल्ली-एनसीआर, वेस्ट यूपी व उत्तराखंड में संचालित की जा रही 50 से भी ज्यादा स्क्रीन का भी काम देखते हैं। उन्होंने बताया कि हर ओर सलमान ही सलमान की धूम है। संजय का मानना है कि सलमान खान की फिल्म की सबसे खास बात ये होती है कि उनकी फिल्में पूरी तरह से पारिवारिक होती हैं। उन्होंने आज तक आन स्क्रीन किसिंग सीन नहीं किया है। 'सुल्तान’ भी पूरी तरह से परिवार के साथ बैठकर देखने वाली फिल्म है।

वीरवार से ईद का जश्न शुरू हो गया है और ये कम से कम रविवार तक पूरे जोर से चलना तय मानिए। ऐसे में एक दिन का बिजनेस पूरे देश में कम से कम 35 करोड़ भी लगा लिया जाए तो 175 करोड़ से ज्यादा का बिजनेस तो इसी हफ्ते मान लीजिए। यहां ये ध्यान रखने वाली बात है कि पहले दिन की कलेक्शन 36 करोड़ रही जो सलमान की 'प्रेम रतन धन पायो’ (38) से कम रही। जबकि 'प्रेम रतन धन पायो’ को रीव्यू बहुत ही खराब मिले थे। 'सुल्तान’ के रीव्यू तो बहुत ही अच्छे हैं। इसका फायदा भी फिल्म को मिलना चाहिए। कोई माने या न माने लेकिन फिल्म के रीव्यू अच्छे आते हैं तो बिजनेस बढ़ता है। इसका ताजा उदाहरण है 'बाजीराव मस्तानी’।

दिल्ली में सलमान के फैंस की दीवानगी का आलम ये है कि बुधवार व वीरवार को कनाट प्लेस में मौजूद रीगल, रिवोली, ओडियन, प्लाजा सिनेमा में कहीं भी करंट की टिकट नहीं थी। एडवांस में ही सब स्क्रीन फुल थी। रीगल सिनेमा सिंगल स्क्रीन है और आज भी परंपरागत रूप से चार शो ही चलाता है। इसमें चार क्लास हैं और सबसे महंगा टिकट 120 से 150 के बीच ही रहता है लेकिन 'सुल्तान’ के लिए टिकट के रेट 200 रुपये कर दिए गए हैं।

एनसीआर में एक ही स्थान पर 15 स्क्रीन संचालित करने वाले उत्तर भारत के सबसे बड़े सिनेमा कांपलेक्स 'पीवीआर लॉजिक्स’ नोएडा सिटी सेंटर में 50 से भी ज्यादा शो एक ही दिन में हो रहे हैं। हर 20 मिनट में एक शो। यहां प्रीमियर श्रेणी (सबसे सस्ती क्लास) के शो में वीकेंड में 200 रुपये की टिकट रहती है लेकिन 'सुल्तान’ के लिए ये भी 300 रुपये कर दी गई है। जबकि यूपी में मनोरंजन कर दिल्ली से कम है। पीवीआर लॉजिक्स में ही मौजूद गोल्ड व आईमैक्स श्रेणी में टिकटों के रेट 800 से 2000 रुपये हैं लेकिन सब हाउस फुल हैं। फिल्म विशेषज्ञों का मानना है कि इसका बिजनेस 'बजरंगी भाईजानÓ, 'पीके’ से भी ज्यादा होगा।

मार्किटिंग का कमाल देखिये। ई वॉलेट साइट PayTM ने EIDwithSULTAN प्रोमो कोड दिया है और दो से ज्यादा टिकट लेने पर 100 रुपये कैश बैक की आफर है। इसके लिए बाकायदा लोगों को एसएमएस किए जा रहे हैं। ऐसे में फिल्म अगर थोड़ी बुरी भी है तो चल सकती है लेकिन ये फिल्म तो देखने वाले अच्छी ही बता रहे हैं ऐसे में इसे हिट होने से कौन रोक सकता है भला?


स्क्रीन: 
कुल 5450
भारत 4350
ओवरसीज 1100
दिल्ली-एनसीआर 400

- हर्ष कुमार सिंह




Friday 3 June 2016

DEEP REVIEW: Housefull3

कम से कम एक बार तो देखी ही जा सकती है 'हाउसफुल 3'
RATING- 3*


'हाउसफुल-3' एक माइंडलैस कॉमेडी है। यानी दिमाग घर पर रखकर जाएं। ऐसा लगता है कि कॉमेडी फिल्मों की फ्रेंचाइजी  फिल्मकारों के लिए फायदे का सौदा साबित होती हैं। हाउसफुल पर तीन फिल्में बन चुकी हैं। इसके अलावा वेलकम, ग्रैंड मस्ती, गोलमाल सीरीज की भी कई फिल्में बन चुकी हैं। इन फिल्मों में निर्माताओं को सीमित निवेश में अच्छा खासा लाभ मिल जाता है और इसलिए इन फिल्मों में कहानी की कोई ज्यादा गुंजाइश नहीं होती। इन फिल्मों की सबसे खास बात ये होती है कि इनकी स्टार कास्ट भी जल्द ही फाइनल हो जाती है। जो कलाकार पहले की फिल्मों में काम कर चुके होते हैं उन्हें एकाध बदलाव के साथ अगली फिल्म में भी काम मिल जाता है। 'हाउसफुल' में अक्षय कुमार, जैकलीन फर्नांडीज, रीतेश देशमुख पहले से ही काम करते रहे हैं। अब अभिषेक बच्चन, लीजा हेडन व नरगिस फाखरी को भी जोड़ दिया गया। बोमन ईरानी तो स्थायी हैं ही। कुल मिलाकर कहने का मतलब ये है कि ये फिल्में केवल पैसा कमाने के लिए बनाई जाती हैं और लगता है कि 'हाउसफुल 3' भी पैसा कमा ही लेगी।

फिल्म में कई सीन ऐसे हैं जिन पर लोग खूब हंसते हुए नजर आते हैं। निर्देशक जोड़ी साजिद-फरहाद ने खुद ही कहानी व डायलाग लिखे हैं। लेखन का काम उन्होंने वैसा ही किया है जैसा कि इस तरह की फिल्मों के लिए जरूरी होता है। खासतौर से अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी में अनुवाद करके डायलाग बना देने का अंदाज खास पसंद आएगा दर्शकों को। उदाहरण के तौर पर- सम टाइम बैक को घड़ी के पीछे, किक माई ऐस की जगह मेरे गधे पर मारो जैसे शब्दों का इस्तेमाल सभी कलाकारों से जमकर कराया गया है और लोग खूब हंसते हैं। फिल्म में अंग्रेजी का इस्तेमाल कुछ ज्यादा ही हुआ है। यहां तक की तीनों हिरोईन तो 90 प्रतिशत समय अंग्रेजी में ही बात करती नजर आती हैं।ऐसे में इस फिल्म में मल्टीप्लैक्स की आडियंस के लिए तो बहुत कुछ है लेकिन सिंगल स्क्रीन के लिए कुछ ज्यादा नहीं है। फिल्म में एक्शन बिल्कुल नहीं है। क्लाइमैक्स में कुछ एक्शन की गुंजाइश थी लेकिन डायरेक्टर ने वैक्स म्यूजियम का सीन डालकर उसकी संभावनाओं को कम कर दिया। उनकी लक्ष्य लोगों को हंसाने का था और उसमें वे सफल रहे हैं।
फिल्म की कहानी लंदन के रईस बटुक (बोमन ईरानी) की तीन बेटियों गंगा, जमुना व सरस्वती (जैकलीन, लीजा और नरगिस) की है। तीनों अपने प्रेमियों (अक्षय कुमार, रीतेश और अभिषेक) से शादी करना चाहती हैं लेकिन बटुक, जो वास्तव में उनका पिता नहीं है, चाहता है वे तीनों उसके तीन बेटों से शादी करे जिससे वह उनके असली पिता व अंडरवल्र्ड डॉन ऊर्जा नागरे (जैकी श्राफ) की सारी संपत्ति हड़प सके। नागरे ने पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने के बाद बटुक को अपनी बेटियों के साथ बचपन में ही लंदन भेज दिया था। वे तीनों बटुक को ही अपना पिता मानती थीं। अंत में नागरे जेल से छूटकर लंदन ही पहुंच जाता है। बटुक की पोल खुलती है और बाप को बेटियां व बेटियों को उनके प्रेमी मिल जाते हैं। इससे पहले बोमन का बेवकूफ बनाने के लिए तीनों हीरो उसकी बेटियों की सहमति से अंधा (रीतेश), लंगड़ा (अक्षय) और गूंगा (अभिषेक) बनकर आते हैं और खूब कॉमेडी होती है।
वैसे फिल्म कहानी के फ्रंट पर बहुत कमजोर है लेकिन फिल्म को संवाद अच्छे मिल गए हैं और सारी भरपाई हो जाती है। कुछ कमजोरियां भी हैं। जैसे- पहले ही सीन में तीन नकाबपोश लंदन में हीरों की चोरी करते हुए दिखाए जाते हैं। ये सीन काफी लंबा है और बहुत ही स्टाइलिश है। सब समझते हैं कि शायद ये तीनों नायक ही हैं लेकिन निकलते हैं बटुक के खलनायक टाइप बेटे। ये बात समझ में नहीं आती कि फिल्म के पहले ही सीन में इन तीनों को नायकों की तरह से क्यों दिखाया गया जबकि उन्हें इंटरवल के समय जेल से बाहर आते हुए ही वापस दिखाया जाना था। उन्हें जेल ही भेजा जाना था तो किसी भी मामले में भेजा जा सकता था, या पहले से ही जेल में दिखाया जा सकता था। केवल उन्हें खलनायक दिखाने के लिए शायद यह सीन क्रिएट किया गया।

फिल्म में जिस तरह से कलाकारों की भीड़ है उसमें सबके लिए करने को बहुत ही सीमित संभावनाएं थी। फिर भी जिस तरह से कलाकारों को मौके दिए गए हैं उससे लगता है कि अक्षय कुमार व जैकलीन की जोड़ी निर्माता-निर्देशक की फेवरेट रही। अक्षय तो खैर बड़े स्टार हैं ही, उन्हें ज्याादा स्पेस मिलना ही था। उनके किरदार को दो तरह की पर्सनेलिटी (सैंडी और सुंडी) में तब्दील करके उनके लिए गुंजाइश बढ़ा दी गई और अक्षय ने मौके का पूरा फायदा भी उठाया। खासतौर से सुंडी के किरदार में उन्होंने मजा लगा दिया।
हिरोईनों में जैकलीन को ज्यादा तवज्जो दी गई है। वह 'हाउसफुल' के हर भाग में रही हैं इसलिए उन्हें मेन रोल में रखा गया। वैसे जैकलीन ने मौके का फायदा भी खूब उठाया। वे तीनों हिरोइनों में सबसे ज्यादा आकर्षक भी लगी हैं। उन्होंने अपने अभिनय, नृत्य व हाव-भाव सभी में सुधार दिखाया है। वे आत्मविश्वास से लबरेज हैं और उनमें बड़ी स्टार बनने के तमाम गुण मौजूद हैं। फिल्म देखने के बाद ये साफ हो गया कि क्यों नरगिस फाखरी निर्माता से नाराज हो गई और प्रमोशन में बहुत कम नजर आई। उनका रोल बहुत ही कम है। गानों में भी जैकलीन को हाईलाइट किया गया है। दूसरे कलाकारों में अभिषेक व रीतेश ने अच्छी कॉमिक टाइमिंग दिखाई है। अभिषेक ने पहली बार कॉमेडी की कोशिश की है और वे अच्छी खासी कॉमेडी कर लेते हैं। नरगिस व लीजा के लिए करने को कुछ था ही नहीं और न ही उन्होंने कुछ करने की कोशिश की है। कुछ स्थानों पर हिरोइनों के मेकअप में खामियां नजर आती हैं। चेहरे पर पिंपल तक साफ नजर आ जाते हैं। लीजा के लिप कलर तक कई बार उड़े व खराब तरीके से लगे नजर आते हैं। ये कमियां मल्टीप्लैक्स आडियंस आसानी से पकड़ लेती है। 
गीत संगीत अच्छा है। कोई भी गीत बहुत बड़ा हिट नहीं है लेकिन दो गीत ठीक-ठाक हैं और देखते समय सुनने में भी अच्छे लगते हैं। फिल्म का मकसद सबको हंसाना था और इसमें ये सफल रहती है।  फिल्म में अगर रीतेश देशमुख के कुछ डबल मीनिंग संवादों को छोड़ दिया जाए तो ये एक फैमिली फिल्म है और एक बार परिवार के साथ वीकएंड पर देखी जा सकती है। 


- हर्ष कुमार सिंह

Friday 20 May 2016

DEEP REVIEW: Sarbjit- watch it for Randeep Hooda only

सरबजीतः रणदीप हुड्डा के बेमिसाल अभिनय के लिए देखें 

RATING- 4*

पाकिस्तान की जेल में कई साल तक बंद रहने के बाद वहां कैदियों द्वारा मार दिए गए भारतीय कैदी सरबजीत का कहानी को अखबारों में पढ़ा तो आप सबने होगा लेकिन इसे फिल्म के रूप में देखना एक अलग ही अनुभव है। कमजोर निर्देशन के बावजूद फिल्म प्रभाव छोड़ने में सफल रहती है। जब आप सिनेमाहाल से बाहर निकलते हैं तो दिमाग में सरबजीत के रूप में रणदीप हुड्डा ही छाए रहते हैं। उन्होंने किरदार को जीवंत कर दिया है, अभिनय से भी और अपने शरीर से भी। अच्छी फिल्म के शौकीनों को कम से कम एक बार जरूर ये फिल्म देखनी चाहिए।

सरबजीत से पहले बाक्सर मैरीकाम की लाइफ पर फिल्म बना चुके ओमंग कुमार ने एक बार फिर अच्छा प्रयास किया है लेकिन जो कमी ‘मैरीकाम’ में रह गई थी वो ‘सरबजीत’ में भी है। लगता है कि फिल्म जल्दी निपटाने के चक्कर में ओमंग कलाकारों को रीटेक का मौका ज्यादा नहीं देते। कुछ सीन अच्छे लिखे गए हैं लेकिन उन्हें बहुत ही जल्दबाजी में शूट किया गया है इसलिए वे प्रभावित नहीं कर पाते। जेल में बंद कैदी सरबजीत के रूप में रणदीप हुड्डा ने कमाल कर दिया है। अपने शरीर को जिस तरह से उन्होंने उन प्रताडना भरे लम्हों के लिए तैयार किया है वो बालीवुड के दूसरे अभिनेताओं के लिए सबक देने वाला है। पिछले कुछ साल में तो किसी अभिनेता ने ऐसा जीवंत कैरेक्टर नहीं निभाया है। कई बार तो रणदीप को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वह वास्तव में सरबजीत ही हैं। पाकिस्तान की जेल में उन्हें यातनाएं देकर विकलांग बना दिया जाता है उसके बाद तो हुड्डा ने अपनी संवाद अदायगी ही बदल दी। टूटे हुए दांतों से सिसक-सिसककर बाहर आती आवाज ने उनके अभिनय में और भी चार चांद लगा दिए हैं। ये रणदीप हुड्डा के कैरियर की सबसे बेहतरीन फिल्म है और निश्चित रूप से उन्हें इससे बहुत फायदा मिलने वाला है। पुरस्कार तो मिलेंगे ही।
कायदे से सरबजीत पंजाब के उस नौजवान की कहानी है जो शराब के नशे में गलती से बोर्डर पारकर पाकिस्तान की सीमा में चला जाता है और पाकिस्तानी रेंजर उसे जासूस समझकर धर लेते हैं। इसके बाद सिलसिला शुरू होता है संघर्ष का। सरबजीत की बहन दलबीर कौर (ऐश्वर्या राय) उसे छुड़ाने के लिए कई साल तक संघर्ष करती है। सरबजीत की पत्नी (रिचा चड्ढा) व उसकी दो बेटियों व एक बूढ़े पिता के संघर्ष की कहानी भी साथ-साथ चलती है। सरबजीत 1990 में पाकिस्तान की सीमा में घुसा था और 2 मई 2013 को उसकी लाहौर की कोट लखपत जेल में कुछ कैदियों ने हत्या कर दी थी। चूंकि घटनाक्रम लगभग 23 साल के अंतराल को लेकर था इसलिए घटनाक्रम बहुत तेजी से चलता है। कहानी में वास्तविकता का पुट होने के कारण नकारात्मकता बेहद है इसलिए बीच-बीच में फ्लैशबैक में सरबजीत की जवानी के सीन व पति पत्नी के बीच के रोमांस आदि से जुड़े सीन भी रखे गए हैं लेकिन यकीन मानिये इनमें किसी की दिलचस्पी नहीं पैदा होती, बल्कि ये बाधा ही बनते हैं। सब सरबजीत व दलबीर की कहानी ही देखना चाहते हैं।

ऐश्वर्या राय के लिए ये टेलर मेड रोल था। एक युवती से बुजुर्ग महिला के किरदार तक, रोल को निभाने के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की है और वे दलबीर कौर को जीने में सफल रही हैं। हालांकि जिन लोगों ने दलबीर कौर को देखा है तो वे समझ सकते हैं कि दोनों की शारीरिक संरचना में कोई समानता नहीं है। फिर भी सवाल ये था कि इस किरदार को निभाता कौन। किसी नई कलाकार को लिया जाता तो फिल्म की बाक्स आफिस पर पकड़ कमजोर हो जाती। रणदीप ने उम्र बढ़ने के साथ-साथ अपने शरीर को उसी तरह से ढाला है लेकिन ऐश्वर्या राय को मेकअप में उतनी सावधानी नहीं बरती गई। उनके बाल जरूर सफेद हो जाते हैं लेकिन चेहरे पर रौनक बनी रहती है जो बहुत बड़ी खामी है। निर्देशक ने ऐसी गलती कैसे कर दी ?
जैसा कि मैंने लिखा है ओमंग कुमार सीन जल्दी में फिल्माते हैं और इसकी वजह से सीन प्रभाव पैदा नहीं कर पाते। उदाहरण के तौर पर वो सीन देखें जहां पाकिस्तान में सरबजीत के दूसरे वकील (दर्शन कुमार) को अपना ही पुतला जलाते हुए दिखाया गया है। ये सीन इतनी तेजी से आता है और खत्म हो जाता है कि दर्शक ये भी समझ नहीं पाते कि आखिर हुआ क्या है। ये सीन बहुत ही बेहतरीन लिखा गया है और इसे और थोड़ी गंभीरता से फिल्माया जाता तो ये अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहता और लोग इस सीन के मर्म को भी समझ पाते। इस तरह की गलती कई सीन में की है ओमंग कुमार है। लगता है कि उन्हें केवल सरबजीत व दलबीर के किरदारों में ही ज्यादा दिलचस्पी थी। उन्हें ही ज्यादा तवज्जो दी गई है। रिचा चड्ढा जैसी अच्छी कलाकार को वेस्ट कर दिया गया है। उन्हें फिल्म के अंत में एक ही सीन करने को मिला और उसी में वे छा गई।
फिल्म का संगीत भी बहुत कमजोर है। एक भी गीत प्रभावित नहीं करता। हालांकि फिल्म देखते समय सभी गीत ठीक-ठाक लगते हैं लेकिन हॉल से निकलने के बाद एक भी याद नहीं रहता। ‘मैरीकॉम’ में भी ऐसा ही हुआ था। संगीत अच्छा हो तो फिल्म की रिपीट वैल्यू बढ़ जाती है। ‘एयरलिफ्ट’ भी सच्चे घटनाक्रम पर आधारित थी लेकिन तीन गाने अच्छे होने के कारण उसकी सफलता भी बड़ी ही रही। अब देखना ये है कि ‘सरबजीत’ का बाक्स आफिस पर भविष्य क्या होता है।

नोटः अगर आप अच्छे अभिनय पर आधारित फिल्म देखने के इच्छुक हैं तो ये फिल्म आपके लिए है। रणदीप के लिए ये फिल्म देखें।

- हर्ष कुमार






Friday 29 April 2016

DEEP REVIEW: Baaghi- an overdose of action

बागीः एक्शन के बोझ से दबी हुई एक कमजोर फिल्म

RATING- 1*
जब सलमान खान ने ‘मैंने प्यार किया’ (1989) के साथ जोरदार एंट्री की थी तो उन्हें उसी वक्त ये बात समझ आ गई थी कि उनसे अब लोगों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं। ऐसे में उन्हें सोच समझकर फैसला लेना होगा कि उनकी अगली रिलीज कौन सी होनी चाहिए। उस समय वे दो फिल्में कर रहे थे। एक तो सुपर हिट डायरेक्टर सावन कुमार की ‘सनम बेवफा’ और दूसरी दीपक शिवदासानी की ‘बागी’। सावन कुमार बड़ा नाम थे और उनकी फिल्म पूरी तरह तैयार भी थी लेकिन सलमान ने अपनी दूसरी रिलीज ‘बागी’ को बनाया। ‘बागी’ रोमांस व एक्शन से भरपूर फिल्म थी। युवा दर्शक जो सलमान के पीछे पागल हो चुके थे उन्हें ‘बागी’ में सलमान का अवतार बहुत पसंद आया। बाद में ‘सनम बेवफा’ भी रिलीज हुई और बहुत बड़ी ब्लाकबस्टर साबित हुई। तब से आज तक सलमान ने पीछे मुड़कर नहीं देखा है।
इस कहानी को यहां बताने का उद्देश्य मेरा केवल इतना था कि टाइगर श्राफ व श्रद्धा कपूर जैसे उभरते सितारों को भी फिल्म साइन करने से पहले उसकी कहानी पर जरूर गौर करनी चाहिए। श्रद्धा कपूर की कई फिल्में आ चुकी हैं। वे बहुमुखी-प्रतिभाशाली हैं और बड़ी सफलता का स्वाद चख चुकी हैं। उनके लिए तो कोई खतरा नहीं है लेकिन टाइगर की ये केवल दूसरी फिल्म है ऐसे में उन्हें बहुत सोच समझकर फिल्में करनी होंगी। क्योंकि उनकी सीमाएं हैं। ‘बागी’ में टाइगर को एक्शन करने के अलावा कुछ भी नहीं करना था और डायरेक्टर ने इतना एक्शन फिल्म में भर दिया कि कहानी उसके बोझ तले दबकर मर ही जाती है।
फिल्म में कहानी बिल्कुल नहीं है। केवल एक्शन ही एक्शन है और कंफ्यूज निर्देशक साबिर खान (उन्होंने ‘हीरोपंती’ में टाइगर को लांच भी किया था) शुरू से आखिर तक ये ही तय नहीं कर पाए कि वे रोमांटिक फिल्म बनाना चाह रहे हैं, एक्शन फिल्म बनाना चाह रहे हैं या दक्षिण भारत की एक मार्शल आर्ट को प्रमोट करना चाह रहे हैं। बस जैसे ही उन्हें लगने लगता है कि फिल्म सुस्त हो रही है वे टाइगर के लिए एक एक्शन सीन लेकर आ जाते हैं और बाकी सारा काम तो एक्शन डायरेक्टर को ही करना होता है। टाइगर श्राफ ने अपने शरीर को इस तरह से गढ़ा है कि एक्शन सींस में वे कमाल कर देते हैं लेकिन इसके अलावा वे कुछ भी नहीं कर पाते। जब वे डांस करते हैं तो बिल्कुल भी नेचुरल नहीं लगते। बल्कि ऐसा लगता है कि जैसे वे एक्शन ही कर रहे हैं। ये हकीकत है और उन्हें इससे बचना होगा। वे हृतिक रोशन नहीं हैं। ना ही उनके पीछे राकेश रोशन जैसा घर का डायरेक्टर है जो लगातार हिट फिल्में बनाता रहेगा। अगर अच्छा निर्देशक न हो तो हृतिक रोशन भी एक बहुत ही सतही किस्म के एक्टर बन जाते हैं। टाइगर की तो खैर बात ही छोड़िए वे तो बिल्कुल नए हैं।
‘बागी’ का कहानी कुछ तो है ही कमजोर ऊपर से फ्लैश बैक में सब कुछ दिखाने के चक्कर में फिल्म को और अधिक उबाऊ बना दिया गया है। श्रद्धा कपूर पर टाइगर व खलनायक सुधीर बाबू (तेलुगु फिल्मों के जाने-माने कलाकार व पूर्व बैडमिंटन स्टार) दोनों ही फिदा हैं। सुधीर पहले ही सीन में श्रद्धा को किडनैप करके थाईलैंड ले जाते हैं। टाइगर उसे छुड़ाने के लिए वहां जाते हैं और खूब एक्शन करके अपने काम में सफल रहते हैं। बस ये ही कहानी है बाकी सब कुछ मसाला है।
फिल्म में एक के बाद एक कई गीत भी आते हैं लेकिन इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जिसे आप थियेटर से बाहर आकर याद रख सकें। यानी जब भी कोई गीत आता है तो लगता है कि उसे ठूंसा गया है और जबरन उसकी सिचुएशन बनाई गई है। गानों से बेहतर तो सुनील ग्रोवर हैं। वे श्रद्धा के पिता के रोल में जब भी आते हैं तभी गुदगुदा जाते हैं। उनकी कॉमिक टाइमिंग गजब की है और वे फिल्मों में कॉमेडियन के रूप में अपनी जगह बना सकते हैं।
प्रतिभा व एक्टिंग के मामले में श्रद्धा कपूर बाजी मारती हैं। कमजोर कहानी व निर्देशन के बावजूद वे अपनी छाप छोड़ने में सफल रहती हैं। उनकी आवाज इतनी मधुर है कि संवाद बोलते समय भी उसमें एक खनक महसूस होती है। श्रद्धा अपनी सिंगिंस को भी सीरियसली लें तो उनके लिए बेहतर होगा। वे पहले भी गाती रही हैं और उन्हें इसे जारी रखना चाहिए। इस फिल्म में वे सुंदर भी लगती हैं लेकिन डायरेक्टर ने एक तरह से उन्हें वेस्ट ही किया है। उनका सारा ध्यान केवल टाइगर पर था। जबकि फिल्म में लंबे-लंबे एक्शन सींस ने टाइगर के अंदर के कलाकार को बाहर ही नहीं आने दिया। टाइगर की डायलाग डिलीवरी बहुत ही कमजोर है। वे हिंदी सही तरह से नहीं बोल बाते। ये उनके लिए घातक साबित हो सकता है। पहले रणवीर सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही महसूस होता था लेकिन बाजीराव के रोल में उन्होंने शुद्ध हिंदी में संवाद बोलकर ये सिद्ध कर दिया कि इरादा मजबूत हो तो कुछ भी संभव है। टाइगर को ऐसा ही करना होगा। उन्हें बहुत कुछ सीखना होगा।

दो सवालः
1. कोई बताएगा कि फिल्म में बार-बार बारिश क्यों आती थी?
2. श्रद्धा कपूर को भी एक्शन में इतना परफेक्ट क्यों दिखाया गया, टाइगर तो उन्हें बचाने के लिए आ रहे थे?

- हर्ष कुमार

Thursday 14 April 2016

DEEP REVIEW: Ki & Ka- A must watch, movie with a message

की एंड काः नसीहत कम सबक ज्यादा, देखें जरूर 

RATING- 4*


अक्सर हमें निजी व सार्वजनिक जीवन में ऐसे तमाम उदाहरण मिलेंगे जहां महिलाओं, खासकर प्रतिभाशाली महिलाओं, को घर की चौखट के अंदर रसोई में मरते-खपते देखते हैं। इसके लिए उन्हें कभी कोई क्रेडिट नहीं दिया जाता, ये कहकर कि ये तो उनका काम है। कभी ये किसी के दिमाग में नहीं आया कि क्या मर्द भी औरतों की भूमिका में आ सकते हैं ? हमेशा चुनौतीपूर्ण विषयों पर फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर आर बल्की ने इस बार इसी मसले पर फिल्म बनाई है। फिल्म एक प्रयोग के साथ शुरू होती है और बहस करते हुए समाधान पर खत्म होती है। ये बात और है कि अपनी बात कहने के लिए फिल्म में कुछ नाटकीयता भी रखी गई है लेकिन फिल्म अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब रहती है।

फिल्म की समीक्षा इसकी रिलीज के दूसरा हफ्ता खत्म होने पर करने की सबसे बड़ी वजह ये है कि फिल्म के प्रोमो व इसके बारे में आ रहे इंप्रेशन से इसे देखने का मन ही नहीं हो रहा था। पर फिल्म के बारे में अलग-अलग माध्यमों से कई तरह का फीडबैक मिल रहा था और खासतौर से करीना कपूर के अभिनय के बारे में जो प्रतिक्रियाएं आ रही थी उसी की वजह से फिल्म मैंने देखी। फिल्म देखने के बाद लगा कि अगर नहीं देखता तो गलती होती। फिल्म अपने विषय को पूरी ईमानदारी के साथ फोकस करती है। अगर औरतें चूल्हा चौका कर सकती हैं तो मर्द क्यों नहीं। जिस तरह से हर सफल आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है उसी तरह से एक सफल औरत के पीछे मर्द का हाथ क्यों नहीं हो सकता।

फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है इसकी परेफेक्ट कास्टिंग। करीना व अर्जुन कपूर इस प्रयोगधर्मी फिल्म के लिए एकदम फिट हैं। करीना उम्र में अर्जुन से बड़ी हैं और वर्किंग हैं। दूसरी ओर अर्जुन आईआईएम-बी का टापर है लेकिन फिर भी सफलता की अंधी दौड़ में शामिल नहीं होना चाहता। वह चाहता है कि जिस तरह से उसकी मां ने अपने घर-परिवार के लिए अपना सब कुछ दे दिया वह भी कुछ ऐसा ही करे। इसके पीछे अर्जुन का तर्क है कि घर चलाना और संवारना एक आर्ट है और इसलिए उसकी मां एक बड़ी आर्टिस्ट थी। अर्जुन के पिता (रजत कपूर) दिल्ली के सबसे बड़े बिल्डर हैं और दूसरे पिताओं की तरह चाहते हैं कि वह उनका कारोबार संभाले। शुरू में करीना को भी यह लगता है कि शायद वह मजाक कर रहा है लेकिन अर्जुन गंभीरता से अपने काम को लेता और शादी के पहले दिन से ही कुशल ग्रहणी की तरह अपना जिम्मेदारी संभाल लेता है। जो चुनौतियां उसके सामने आनी थी वो आती हैं और अंत में वह यह साबित करने में सफल होता है कि मर्द भी किसी से कम नहीं।

फिल्म में कई बार मौके आते हैं जब झूठ का सहारा लिया जा सकता था लेकिन बल्की ने ऐसा नहीं किया और अपने विषय के प्रति ईमानदार रहे। अलबत्ता ये बात और है कि जिस वर्ग के किरदारों के माध्यम से उन्होंने अपने सच को स्थापित किया है वह वर्ग ही फिलहाल इसे स्वीकार कर सकता है। आम भारतीय समाज में शायद इस तरह के प्रयोग न चल पाएं। बहरहाल बल्की की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने इस विषय पर फिल्म बनाई और काफी हद तक दर्शकों को आकर्षित करने में भी सफल रहे।

अभिनय के लिहाज से करीना कपूर सब पर भारी पड़ती हैं। वे यह साबित कर देती हैं कि अगर उन्हें अच्छा रोल मिले और निर्देशक थोड़ी सी छूट दे दे तो वे कमाल कर सकती हैं। उनका अभिनय ‘जय गंगाजल’ की प्रियंका व ‘नीरजा’ की सोनम कपूर से कहीं ऊंचे दर्जे का है। वे कहीं भी नाटकीय नहीं होती। बेहद सुंदर लगती हैं और एक कामकाजी महिला के किरदार को उन्होंने इतने बेहतरीन तरीके से निभाया है कि कहीं लगता ही नहीं कि वे अभिनय कर रही हैं। दफ्तर की कामकाजी महिला के अलावा अपने पति के साथ रोमांस करने के लिए उत्तेजित महिला के चरित्र को भी उन्होंने शानदार तरीके से निभाया है। उनके कास्ट्यूम भी बेहतर डिजाइन किए गए हैं। अगर बेस्ट सीन की बात करें तो करीना अस्पताल में जब अर्जुन पर फटती हैं तो कमाल कर देती हैं। उनके अभिनय के सामने आज के दौर की तमाम हिरोइन बौनी नजर आती हैं।
अर्जुन कपूर अब तक जिस तरह के रोल करते रहे हैं उससे अलग नजर आए हैं और दर्शकों को खूब भाते हैं। खासतौर से जब वे अपनी जीवनशैली को लेकर टीवी पर इंटरव्यू देते हैं तो बहुत ही सहज और वास्तविक नजर आते हैं। रोमांटिक सीन में उनकी करीना के साथ जबर्दस्त कैमिस्ट्री नजर आई है। सारे रोमांटिक सीन बहुत ही कमाल के हैं और बेहतरीन तरीके से फिल्माए गए हैं। एक सीन के लिए अमिताभ बच्चन व जया बच्चन भी आए हैं और फिल्म के एक खास मोड़ पर उनके किरदार कहानी के लिए सहायक साबित होते हैं।
संगीत के लिहाज से भी फिल्म ठीक-ठाक है। गीत भले ही सुनने में एक ही (हाई हील) अच्छा है लेकिन फिल्म देखते समय वे सीन की डिमांड के हिसाब से बहुत ही अच्छे लगे हैं।
सीख:- अगर आप शादीशुदा हैं तो ये फिल्म मियां-बीवी के लिए है, और अगर शादी नहीं हुई और करने का इरादा है तो फिर तो इसे जरूर देखें, आपकी कुछ मुश्किल ही कम करेगी।

- हर्ष कुमार