रणवीर सिंह के फैंस को यह फिल्म निराश नहीं करेगी। पूरी तरह से मसाला फिल्म है। कहानी 80-90 के दशक की मनमोहन देसाई की फिल्मों की तरह से है और उसकी ट्रीटमेंट रोहित शेट्टी की सिंघम स्टाइल की है।
'बाजीराव मस्तानी' व 'पदमावत' की शानदार सफलताओं के बाद रणवीर सिंह जिस स्टारडम पर पहुंच गए हैं वहां रणवीर सिंह की इस तरह की फिल्म उनके फैंस को तो तृप्त कर देगी लेकिन अभिनेता के रूप में यह फिल्म उन्हें ज्यादा संतुष्टि नहीं देगी। फिल्म में उन्होंने शानदार अभिनय किया है और पूरी तरह से जान झोंक दी है, इसके बाद भी रणवीर सिंह को 'सिम्बा' अपनी यादगार फिल्मों में नहीं शुमार करना चाहेंगे।
फिल्म 'सिम्बा' का विस्तृत रीव्यू यहां देखिए-
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शाहरुख खान की यह फिल्म उनके अपने मन की फिल्म है। यहां शाहरुख ने खुद के भीतर छिपे कलाकार को संतुष्ट करने की कोशिश की है। इसमें वे सुपर स्टार के ग्लैमर से बाहर निकलकर एक गली के किरदार को निभाते नजर आए हैं। जो बौना है और बड़ी बड़ी बातें करने के अलावा कुछ नहीं करता। उसकी जिंदगी में न कोई मकसद है न कोई उम्मीद। फिल्म अभिनेत्री से मिलने का सपना ही देखता रहता है।
इस फिल्म में शाहरुख ने आनंद एल राय के साथ टीम बनाई है जो बड़े सितारों के साथ कम ही काम करते हैं। शाहरुख ने उन्हें राजी कर लिया यह बड़ी बात है और इसके बाद राय ने किंग खान को किंग साइज रोल देने के बजाय उनके लिए बौना किरदार गढ़ दिया।
फिल्म के बार में विस्तार से मेरा आकलन देखने के लिए क्लिक करें नीचे दिया लिंक-
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विवादित व चर्चित 'पदमावत' के बाद रणवीर की यह पहली रिलीज होगी। लगभग एक साल के अंतराल के बाद रणवीर सिंह की कोई फिल्म आ रही है। 'पदमावत' में उनके काम को सराहा गया था और वह फिल्म हिट रही थी। 'पदमावत' से पहले रणवीर को 'बेफिक्रे' ने झटका दिया था लेकिन खिलजी के रोल को शानदार तरीके से निभाकर रणवीर ने भरपाई कर ली थी।
करण जौहर रणवीर को लेकर फिल्म बनाने के लिए बेताब थे। इसके अलावा रोहित शेट्टी की अजय देवगन के साथ 'सिंघम रिटर्न्स ' कुछ खास नहीं चली थी। वे भी एक ऐसी ही एक्शन फिल्म बनाना चाहते थे। दोनों ने हाथ मिलाया और फटाफट शूट करने के लिए मशहूर रोहित ने 'सिम्बा' बना डाली। 3 दिसम्बर को ट्रेलर रिलीज हुआ और 28 दिसम्बर को फिल्म रिलीज कर दी जाएगी। यानी न ज्यादा टाइम खर्च न ज्यादा पैसा खर्च। करण जौहर और रोहित शेट्टी की 'सिम्बा' (इसका मतलब क्या होता है?) टिपिकल दक्षिण भारतीय मार्का एक्शन फिल्म नजर आ रही है। रोहित शेट्टी इससे पहले 'सिंघम' व 'सिंघम रिटर्न्स' में जो दिखा चुके हैं उससे आगे बढ़ती नजर नहीं आ रही है यह फिल्म। बस फर्क इतना है कि 'सिंघम' में अजय देवगन थे और 'सिम्बा' में इस समय के सबसे पापुलर स्टार रणवीर सिंह हैं।
फिल्म को और ज्यादा सुर्खियों में लाने के लिए इसमें हिरोईन के रूप में सारा अली खान को ले लिया गया। सारा की पहली फिल्म 7 दिसम्बर को रिलीज होगी। यानी उनकी पहली फिल्म देखे बिना ही उन्हें 'सिम्बा' में ले लिया गया। इसके दो फायदे हैं- 1. वे नया चेहरा हैं और युवाओं में उनके प्रति क्रेज होगा। उनकी पहली फिल्म 'केदारनाथ' भी रिलीज हो चुकी होगी तब तक। 2. कोई स्थापित हिरोईन 'सिम्बा' में शायद काम न करती क्योंकि ये फिल्म पूरी तरह से रणवीर की फिल्म नजर आ रही है और रोहित की फिल्मों में हिरोईनों के लिए कुछ ज्यादा होता भी नहीं है।
ट्रेलर देखने के बाद कुछ नयापन नहीं लगा। मराठी बोलते रणवीर सिंह उतने सहज नहीं नजर आए जितने बाजीराव में नजर आए थे। ट्रेलर से गीत संगीत का कोई अनुमान नहीं होता। केवल बैकग्राउंड में 'पुलिस-पुलिस' गीत बज रहा है। कहानी साफ समझ में आ रही है। रणवीर एक भ्रष्ट पुलिस अफसर है जो केवल पैसा कमाने पुलिस में आया है। एक लड़की से रेप होता है और अपनी बहन के प्रेरित करने पर वह बलात्कारियों को नामो निशान मिटाने की कसम खा लेता है। बस इसके बाद वही खून खराबा।
रेपिस्ट को सजा के तौर पर एनकाउंटर में ठोकने की सिफारिश करती भी यह फिल्म नजर आ रही है। फिल्म में अगर डायलाग मजेदार हुए तो लोगों को रणवीर को किरदार पसंद आ सकता है। वे पहली बार पुलिस अफसर के रोल में आ रहे हैं और बालीवुड का चलन है कि पुलिस अफसर बने बिना यहां नायक सुपर स्टार नहीं बनते। यह फिल्म रणवीर के लिए फायदे का सौदा हो सकती है।
सारा अली खान के लिए मुझे इसमें कोई गुंजाइश नहीं नजर आ रही है। शायद गानों में डांस वांस करना को मिल जाए उन्हें। बस इससे ज्यादा कुछ नहीं। ट्रेलर देखने के बाद कह सकता हूं कि एक बार देखने लायक ही यह फिल्म नजर आती है। रणवीर का लुक साउथ के नायक जूनियर एनटीआर जैसा नजर आ रहा है इसमें। यहां ट्रेलर के शुरू में सिंघम अजय देवगन भी आते हैं। उनकी कहानी से ही जोड़ने की कोशिश भी की गई है, जो मुझे ज्यादा सही विचार नहीं नजर आया।
रजनीकांत और अक्षय कुमार की फिल्म 2.0 भारतीय सिनेमा में वीएफएक्स तकनीक के बढ़ते इस्तेमाल का जीता जागता प्रमाण है। फिल्म में पर्यावरण बचाने के लिए भी संदेश देने का प्रयास किया गया है। फिल्म में मोबाइल रेडिएशन के मुद्दे को गरमजोशी से उठाया गया है। यह ऐसा विषय है जिसके बारे में अभी कोई भी गंभीर नहीं नजर आता। जबकि एक समय ऐसा आएगा कि हम सब इसके दुष्प्रभावों को झेल रहे होंगे और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। इस फिल्म को 14 भाषाओं में डब किया गया हैं।
Rating 4*
full review - watch #HarshKiBaat ः like, subscribe and share-
पिछले कुछ सालों में सामने आई सबसे बड़ी निराशाओं में से एक है ठग्स आफ हिंदोस्तान। अमिताभ बच्चन और आमिर खान को लेकर जो हिट फिल्म बनाई जानी चाहिए थी वह बन नहीं पाई। यह एक बड़ा मौका था फिल्मकारों के लिए जिसे मिस कर दिया गया। अब पता नहीं ये दोनों अभिनेता किसी दूसरी फिल्म में साथ आ पाएंगे या नहीं। निर्माता-निर्देशक ने सोचा था कि उनके हाथ में शोले है जबकि ये आरजीवी की शोले निकली। फिल्म ने किस तरह से दर्शकों को निराश किया यह देखिए समीक्षक हर्ष कुमार सिंह के इन दो वीडियो ब्लॉग मेः-
Rating- 2*
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बड़ी हिट देने की पुरजोर कोशिश नजर आ रही शाहरुख की 'जीरो'
शाहरुख खान की नई फिल्म 'जीरो' उनके कैरियर की सबसे प्रयोगधर्मी मूवी नजर आ रही है। खुद शाहरुख बौने आदमी का रोल कर रहे हैं और हिरोईन अनुष्का शर्मा एक विकलांग लड़की का रोल कर रही हैं। लगता है कि पिछली कई फिल्मों के नतीजे सही न रहने की वजह से किंग खान कुछ नया करने के लिए बेताब थे और इसलिए यह फिल्म बनाई गई है।
हालांकि शाहरुख ने पिछले साल 'जब हैरी मेट सेजल' के रूप में इम्तियाज अली के साथ भी कुछ नया करने की सोची थी लेकिन केवल डायरेक्टर ही नया हो पाया, कहानी पुरानी ढर्रे की (जब वी मेट टाइप की) होने के कारण फिल्म बाक्स आफिस पर नहीं चल पाई। इसके बाद आई 'रईस' के साथ भी कुछ ऐसा ही था। 80 -90 के दशक की पुरानी कहानी थी 'रईस' की जो पैसा तो कमा ले गई लेकिन शाहरुख की सलमान या आमिर जैसी बड़ी हिट देने की आरजू पूरी नहीं हो सकी। ऐसे में 'जीरो' निश्चित रूप से शाहरुख के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण फिल्म है।
मार्किटिंग:
शाहरुख हमेशा ही अपनी फिल्मों की तगड़ी मार्किटिंग के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने 'चेन्नई एक्सप्रेस' व 'हैप्पी न्यू ईयर' जैसी कमजोर फिल्मों को भी हिट की श्रेणी में ला दिया था। पर अब जमाना बदल रहा है। सिनेमा में जाने वाला दर्शक सोच समझकर पैसा निकालता है। अगर उसे विषय भा जाए तो वह 'बधाई हो' जैसी साधारण बजट की फिल्म पर भी नोट बरसा देता है। शाहरुख को भी 'जीरो' से ऐसी ही उम्मीद होगी। उन्होंने अपने जन्मदिन के मौके पर 2 नवंबर को मुंबई के वडाला स्थित आईमैक्स सिनेमा में इसका ट्रेलर लांच किया। इसमें देश भर की मीडिया का बुलाया गया। शाहरुख व निर्देशक आनंद एल राय (तनु वेड्स मनु) के साथ दोनों हिरोईनें अनुष्का व कैटरीना मौजूद रही। भव्य कार्यक्रम हुआ और ट्रेलर लांच कर दिया गया।
ट्रेलर:
ट्रेलर अच्छा है। तीन मिनट से अधिक का यह ट्रेलर पूरी फिल्म की कहानी ही बता देता है। बस देखने के लिए यही बचा है कि शाहरुख किस हिरोईन को अपनाता है। मुझे लगता है कि अनुष्का के साथ ही शाहरुख की शादी होगी। कहानी कुछ यूं नजर आती है- बऊआ सिंह मेरठ में रहता है और बौना है। किसी सुंदर लड़की से शादी करना चाहता है। शादी का एजेंट उसे एक लड़की (अनुष्का) की फोटो दिखाता है। जब बऊआ लड़की से मिलने जाता है तो देखता है कि वह तो व्हील चेयर पर चलती है और ठीक से बोल भी नहीं पाती। ठीक उस तरह जैसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग थे। इसके बाद भी बऊआ उसे पसंद करने लगता है। इसी बीच उसके जीवन में आती है एक बड़ी फिल्म स्टार (कैटरीना)। अब फिल्म यही है कि दोनों में से कौन उसे चुने और वह किसके साथ जाना चाहता है ? यही फिल्म है। ट्रेलर से सब कुछ साफ है बस क्लाईमैक्स नहीं खोला गया है।
आकलनः
ट्रेलर में फिल्म के गीतों के बारे में ज्यादा नहीं पता चलता है। फिल्म
176 मिनट लंबी बताई जा रही है। जो मेरे हिसाब से काफी लंबी है। लगभग तीन
घंटे की फिल्म तभी चल पाती है जब स्क्रिप्ट बहुत ही शानदार हो और संपादन
चुस्त। इसके अलावा संगीत भी शानदार होना चाहिए। तभी तीन घंटे तक आदमी
थियेटर में बैठ सकता है। मराठी फिल्म 'सैराट' (धड़कन) वाले संगीतकार अजय अतुल ने म्यूजिक
दिया है लेकिन गीत कैसे हैं यह साफ नहीं हो सका है ? शाहरुख की पिछली
फिल्मों 'रईस', 'जब हैरी मेट सेजल', 'फैन' व 'दिलवाले' का संगीत कुछ खास नहीं चला
था। देखते हैं इसमें कैसा संगीत है ?
- हर्ष कुमार सिंह trailer of ZERO :-
teaser of ZERO :-
ये भी देखें- "जीरो" और "2.0" में से कौन लग रही है ज्यादा मजबूत-
फिल्म को देखकर कुछ साल पहले आई 'दो दूनी चार' की याद आ जाती है जिसमें ऋषि
कपूर व नीतू सिंह ने एक मिडिल क्लास परिवार की कहानी को जीया था। इस तरह
की फिल्में सपरिवार देखने में मजा आता है। आपको रिश्तों की कद्र करने का
मतलब समझ आ जाएगा। जाइए और फिल्म जरूर देखकर आइए। अच्छा समय बीतेगा आपका।
Rating 3* (edited : rating 5*)
'बधाई हो', फिल्म की पूरी टीम को ऐसी फिल्म बनाने के लिए बधाई। बॉलीवुड के एक बड़े फिल्मकार ने पिछले दिनों कहा था कि इंडस्ट्री में अच्छी कहानियों का अकाल है। उनकी बात सही है। साल में रिलीज होने वाली 100-150 फिल्मों में से 4-5 फिल्में ही ऐसी होती होंगी जिनमें पहले कहानी फाइनल की जाती होगी। बड़े बैनर तो पहले स्टार कास्ट व प्रोजेक्ट के सभी पहलू फाइनल कर लेते हैं और फिर फिल्म शुरू करते हैं। लेकिन जिन 4-5 फिल्मों की मैं बात कर रहा हूं उन्हें देखने के बाद यह साफ हो जाता है कि उनकी कहानी पहले फाइनल हुई। इस साल रिलीज हुई 'अक्टूबर', 'अंधाधुंन' और अब 'बधाई हो' जैसी फिल्में उन्हीं में से हैं। इसके उलट इसी सप्ताह रिलीज हुई दूसरी फिल्म 'नमस्ते इंग्लैंड' प्रोजेक्ट वाली फिल्म है। उसके निर्माता निर्देशक ने पहले सीक्वल (नमस्ते लंदन का) बनाने का फैसला किया और फिर कहानी गढ़ी। शायद स्टारकास्ट भी पहले ही तय हो गई होगी। पर 'बधाई हो' में ऐसा कुछ नहीं है। पहले कहानी चुनी गई फिर स्टारकास्ट। यही इस फिल्म को दूसरों से अलग बना देता है।
फिल्म असाधारण भले ही नहीं है लेकिन एक बार देखने में बिल्कुल भी बुरी नहीं है। आप हंसते हैं, खुशी मनाते हैं और भावुक भी होते हैं। बस एक फेमिली फिल्म में इससे ज्यादा और क्या चाहिए? जितेंद्र कौशिक उर्फ जीतू (गजराज राव) रेलवे में टीटी है और पत्नी प्रियंवदा उर्फ बबली (नीना गुप्ता) से बहुत प्यार करता है। दोनों ही 50 पार कर चुके हैं। बड़ा बेटा नकुल (आयुष्मान खुराना) जवान है और एक बड़ी कंपनी में नौकरी करता है। कंपनी में साथ ही काम करने वाली रेने (सान्या मल्होत्रा) से प्यार करता है। जीतू का छोटा बेटा भी 12वीं में पढ़ रहा है। जीतू मिडिल क्लास परिवारों की तरह एक आदर्श व्यक्ति है और अपनी मां (सुरेखा सीकरी) का बेहद सम्मान करता है। आम घरों की तरह यहां भी सास बहू में बिल्कुल नहीं बनती। इसके बावजूद सब एक दूसरे से प्यार बहुत करते हैं।
घर में उस समय भूचाल आ जाता है जब पता चलता है कि प्रियंवदा गर्भवती हो गई है। गर्भ 19 सप्ताह का हो चुका है और उसे गिराने में खतरा भी है। प्रियंवदा फैसला करती है कि वह बच्चे को जन्म देगी। दोनों बेटे इस खबर से नाराज हो जाते हैं और मां-बाप से बात करना भी बंद कर देते हैं। मां भी नाराज होती है कि यह कोई उम्र है बच्चे पैदा करने की? सामाजिक रूप से भी परिवार को उपहास झेलना पड़ता है। रेने की मां (शीबा चड्ढा), जो कि नकुल को पसंद करती है लेकिन, उसकी मां के गर्भवती होने की खबर सुनकर नाराज हो जाती है। उसका मानना था कि यह जहालत का प्रतीक है और ऐसे घर में रेने कभी खुश नहीं रह सकेगी। इस बात से नकुल को झटका लगता है। वह अपने परिवार की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर पाता। जीतेंद्र की मां भी प्रियंवदा के समर्थन में उठ खड़ी होती है। अंत में सब कुछ ठीक हो जाता है और घर में एक बेटी का आगमन होता है। नकुल व रेने की शादी के साथ फिल्म खत्म होती है।
फिल्म की कहानी बढिय़ा है और स्क्रीन प्ले भी अच्छा लिखा गया है। कहानी पूरी तरह से दिल्ली में केंद्रित है। वेस्ट यूपी के खतौली व मेरठ का भी जिक्र आता है और जीतू के परिवार की भाषा शैली भी वेस्ट यूपी की दिखाई गई है। इस क्षेत्र के लोगों को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। पहला हाफ तो हास्य से भरपूर है। इंटरवल के बाद कुछ इमोशनल सीन हैं। निर्देशक अमित रवींद्रनाथ शर्मा को इस इलाके व इस तरह की भाषा व परिवारों की अच्छी खासी जानकारी है इसलिए फिल्म बहुत ही जीवंत बन पड़ी है। सुरेखा सीकरी ने तो बुजुर्ग मां के रोल को एकदम जीवंत कर दिया है। गजराज राव व नीना गुप्ता ने भी शानदार काम किया है। आयुष्मान खुराना व सान्या मल्होत्रा की जोड़ी प्यारी लगती है। बाकी लोगों ने भी काम अच्छा किया है।
संगीतकार तीन-तीन हैं लेकिन गीत बस फिल्म देखते समय ही अच्छे लगते हैं। कोई हिट गीत नहीं बन पाया। दिल्ली की लोकेशंस को बढिया तरीके से शूट किया गया है और तकनीकी पहलू अच्छे हैं। फिल्म को देखकर कुछ साल पहले आई 'दो दूनी चार' की याद आ जाती है जिसमें ऋषि कपूर व नीतू सिंह ने एक मिडिल क्लास परिवार की कहानी को जीया था। इस तरह की फिल्में सपरिवार देखने में मजा आता है। आपको रिश्तों की कद्र करने का मतलब समझ आ जाएगा। जाइए और फिल्म जरूर देखकर आइए। अच्छा समय बीतेगा आपका।
कहानी व स्क्रीन प्ले इतना जबर्दस्त है कि कब फिल्म शुरू होती है और कब
खत्म आपको पता ही नहीं चलता। आखिरी सीन में जब आयुष्मान सड़क पर पड़े एक
टिन को ठोकर मारता है तो दर्शकों के मुंह से वाह निकल जाता है और सबका
चेहरा खिल उठता है।
Rating 5*
फिल्म का पहला सीन है-एक गोभी के खेत में खरगोश व चौकीदार के बीच लुका छिपी चल रही है। खेत का मालिक हाथ में बंदूक लिए खेत में घूम रहा है और खरगोश को ढूंढ रहा है क्योंकि खरगोश ने गोभियों को कुतर-कुतरकर फसल चौपट कर दी है। मालिक खरगोश को गोली से मारना चाहता है। जैसे ही वह निशाने पर आता है तो गोली दाग देता है। खरगोश का क्या हुआ? कुछ नहीं पता। इस सीन से शुरूआत क्यों की गई यह कोई नहीं बता पाता और जब फिल्म आगे बढ़ती है तो लोग ये भी भूल जाते हैं कि पहला सीन क्या था। बाद में क्लाईमैक्स के समय अचानक यह सीन फिर से आता है और तब पता चलता है कि इस सीन का क्या महत्व है।
यह तो केवल एक सीन है। अगर आप फिल्म देख लेंगे तो हर सीन आपको इसी तरह दिलचस्प लगेगा। अगले सीन में क्या घटित होने वाला है इसका आकलन तो आप लगाएंगे लेकिन जो होगा वो आपकी कल्पना से भी परे होगा। यही इस फिल्म की खूबसूरती है जो इसे दूसरों से अलग करती है। बहुत लंबे अर्से बाद ऐसी फिल्म आई है। इससे पहले श्रीराम राघवन ने एक हसीना थी (2004), जॉनी गद्दार (2007), एजेंट विनोद (2015) व बदलापुर (2018) जैसी फिल्में बनाई हैं। जॉनी गद्दार इन सब में मेरी फेवरेट है और अब अंधाधुन ने मुझे उनका कायल बना दिया है।
सस्पेंस-थ्रिलर फिल्मों की कहानी बताना सबसे बड़ा गुनाह है। पर अगर मैं आपको इसकी कहानी बता दूं तो और कहीं भी बीच में छोड़ दूं तो आप जड़ तक पहुंच नहीं पाएंगे ये मेरा दावा है। फिल्म में हर सीन के बाद एक मोड़ आता है और बेहद रोमांचक तरीके से क्लाइमैक्स की ओर बढ़ती है। कहानी इस तरह है- आकाश (आयुष्मान खुराना) एक संगीतकार है और अंधा होने का नाटक करता है। इसका उसे फायदा भी मिलता है। गर्लफ्रेंड सोफी (राधिका आप्टे) उसे अपने पापा के होटल में प्यानो बजाने का काम दिला देती है। वहीं आकाश के संपर्क में आते हैं सत्तर के दशक के स्टार प्रमोद सिन्हा (अनिल धवन)। अनिल ने अनिल धवन को ही प्ले किया है बस फिल्मी नाम प्रमोद सिन्हा शायद 70 के दशक के प्रसिद्ध निर्देशक प्रमोद चक्रवर्ती व शत्रुघ्न सिन्हा के नामों का कांबिनेशन कर दिया गया है। प्रमोद की जवान बीवी सिमी (तब्बु) बहुत ही बिंदास है और उसे प्यार से पैमी बुलाती है। प्रमोद सिन्हा से मिलने के बाद ही आकाश की जिंदगी बदल जाती है। आकाश की आंखों के सामने ही एक हत्या होती है और वह अंधा होने के कारण पुलिस को यह सब बता भी नहीं पाता है। उसे डर है कि कहीं उसकी पोल न खुल जाए। इसी चक्कर में वह जाल में फंसता जाता है। अंत में वह कैसे तमाम कुचक्रों से बचकर निकलने में कामयाब होता है यही फिल्म है। अंत में वह हीरो बनकर उभरता है।
कहानी व स्क्रीन प्ले इतना जबर्दस्त है कि कब फिल्म शुरू होती है और कब खत्म आपको पता ही नहीं चलता। आखिरी सीन में जब आयुष्मान सड़क पर पड़े एक टिन को ठोकर मारता है तो दर्शकों के मुंह से वाह निकल जाता है और सबका चेहरा खिल उठता है। इसके लिए श्रीराम राघवन को जितनी भी बधाई दी जाए कम है। उन्होंने साबित कर दिया है कि अगर निर्देशक अपने हाथ में लेखन की भी कमान रखे तो वह करिश्मा कर सकता है।
अभिनय की बात करें तो आयुष्मान के जीवन की ये सबसे बेहतर फिल्म है। वे हर फिल्म में लूजर की भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन यहां वे विजेता बनकर उभरे हैं। तब्बू तो निगेटिव किरदार निभाने में विशेषज्ञता हासिल कर चुकी हैं। उन्हें कोई भी अटपटा सा रोल दे दीजिए वे उसमें जान डाल देती हैं। उनका व्यक्तित्व किरदार के हिसाब से जिस तरह ढल जाता है यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। राधिका आप्टे का रोल कोई खास नहीं है लेकिन जितना भी है वे उसमें जमती हैं। एक मॉडर्न लड़की के रोल को उन्होंने बखूबी निभाया है। डॉ. स्वामी के रोल में जाकिर हुसैन व इंस्पेक्टर मनोहर के रूप में मानव विज ने भी गजब की एक्टिंग की है।
संगीत की इसमें ज्यादा गुंजाइश नहीं थी लेकिन जो भी दो तीन गीत हैं मधुर हैं। अलबत्ता मुझे तो अनिल धवन की फिल्मों के गीतों (तेरी गलियों में न रखेंगे, ये जीवन है आदि) की प्यानो पर बजाई गई धुनें ही रोमांचित कर देती हैं। कुल मिलाकर ये एक टॉप क्लास फिल्म है और अगर आप बढिय़ा फिल्म देखना चाहते हैं तो ये फिल्म आपके लिए है। जाइये और सपरिवार देखिए। बच्चे भी आपको धन्यवाद देंगे को क्या फिल्म दिखाई थी आपने।
"अनुष्का ने केवल हावभाव से ही कमाल कर दिया है। जिस समय पति को कुत्ता बना
देखती हैं तो उनके चेहरे पर उभरने वाले दर्द के भाव दर्शकों को भी असहज कर
देते हैं। इसी तरह सिलाई की प्रतियोगिता वाले सीन में पति की गैरहाजिरी में
उनका रोना और फिर पति को देखते ही खिल उठना, सब कुछ कमाल लगता है। किस किस
सीन की बात करें। सब कुछ कमाल ही है।"
Rating 3*
'बढिया है' ये डायलाग बार-बार वरूण धवन इस फिल्म में बोलते रहते हैं और फिल्म पर यह एकदम फिट बैठता है। फिल्म बढिया है और आप एक बार जरूर देखकर आइये परिवार के साथ। इस फिल्म को देखकर मैं हैरान इसलिए हूं कि आखिर आज के दौर की कोई भी सफल हिरोईन इस तरह का रोल निभाने के लिए कैसे तैयार हो गई? तैयार हो भी गई तो इतनी खूबसूरती से कैसे निभा गई? सच अनुष्का शर्मा ने इस फिल्म में कमाल कर दिया है। एक गरीब व सीधी साधी घरेलू महिला के रोल को कोई इतनी सादगी भरे तरीके से भी निभा सकता है इस पर यकीन नहीं होता। एक लाइन में अगर कहना चाहूं तो यह फिल्म पूरी तरह से अनुष्का शर्मा की फिल्म है। उनके कैरियर की अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म अगर इसे कह दूं तो गलत नहीं होगा।
वैसे अगर पूरी फिल्म की बात करें तो इसमें कुछ भी नया नहीं है। इस तरह की सक्सेस स्टोरीज हम हाल ही में 'टॉयलेट एक प्रेम कथा', 'पैडमैन', 'सूरमा', 'गोल्ड' आदि में भली भांति देख चुके हैं लेकिन इस फिल्म की सबसे खास बात यह है कि यह फिल्म पहले सीन से लेकर अंत तक माहौल बनाकर रखती है और इसमें नाटकीयता या फिल्मी लटके झटके नहीं हैं, मूल आत्मा बरकरार रहती है।
निर्देशक शरत कटारिया ने फिल्म को इतनी वास्तविक लोकेशंस पर शूट किया है कि दर्शक खो जाते हैं उस माहौल में। फोटोग्राफी भी लाजवाब है और संगीत भी अनु मलिक ने बढिय़ा दिया है। हालांकि कोई ब्लॉकबस्टर गीत इसमें नहीं है लेकिन टाइटल गीत 'सुई धागा' और 'तेरा चाव लागा' बहुत ही अच्छे लगते हैं। संगीत फिल्म के माहौल के अनुरूप सहज और मधुर है।
दो कहावतें हैं- 1. इरादे हों तो कोई काम कठिन नहीं, 2. हर सफल आदमी के पीछे एक औरत होती है। ये दोनों ही इस फिल्म पर फिट बैठती हैं। कहानी मौजी (वरुण) व ममता (अनुष्का) के जीवन की है। पिता (रघुवीर यादव) के ताने सुन सुनकर बड़ा हुआ मौजी इतना भोला है कि उसकी दुकान के मालिक का बेटा उससे कुत्ते की तरह भी व्यवहार करता है तो वह उसे मजाक समझता है। मौजी को बुरा नहीं लगता लेकिन एक दिन जब ममता अपने पति को मालिकों के घर में कुत्ता बनते देख लेती है तो उसका दिल रो उठता है। वह उसे स्वाभिमान से जीने के लिए और अपना कोई काम करने के लिए कहती है। बीवी की बात से प्रेरणा पाकर वरुण नौकरी छोड़ देता है और अपना खानदानी दर्जी का काम शुरू करने का फैसला करता है। कई दुश्वारियां आती हैं, कभी मशीन नहीं मिलती तो कभी दोस्त ही धोखा देते हैं। अंत में मेहनत सफल होती है और एक बड़े मंच पर मौजी व ममता की जोड़ी को सम्मानित करने के साथ फिल्म खत्म होती है।
एक्टिंग की बात करें तो पहला नाम अनुष्का शर्मा का आएगा। वे शानदार कलाकार तो हैं ही साथ ही मैं उन्हें सबसे साहसी अभिनेत्री का भी दर्जा देना चाहूंगा। उन्होंने अपना साहस 'एनएच 10' जैसी फिल्म का निर्माण करके ही दिखा दिया था। जिस समय उन्हें यह कहानी सुनाई गई होगी तो वे समझ भी नहीं पाई होंगी कि उन्हें कितनी गरीब महिला का रोल निभाना है। पूरी फिल्म 200 रुपये की पोलिएस्टर की साड़ी में ही करना आज के दौर की बहुत कम हिरोईनों के ही बूते की बात है। अनुष्का ने केवल हावभाव से ही कमाल कर दिया है। जिस समय पति को कुत्ता बना देखती हैं तो उनके चेहरे पर उभरने वाले दर्द के भाव दर्शकों को भी असहज कर देते हैं। इसी तरह सिलाई की प्रतियोगिता वाले सीन में पति की गैरहाजिरी में उनका रोना और फिर पति को देखते ही खिल उठना, सब कुछ कमाल लगता है। किस किस सीन की बात करें। सब कुछ कमाल ही है।
वरुण धवन भी नैसर्गिक एक्टर हैं और हर रोल में एकदम फिट हो जाते हैं। उन्होंने भी बेहतरीन काम किया है। रघुवीर यादव व दूसरे कलाकारों ने भी अपने रोल को ठीक से निभाया है। इस तरह की फिल्मों का बाक्स आफिस पर सफल होना बहुत जरूरी है। चूंकि इनकी रिपीट वैल्यू कम होती है इसलिए संदेह बना रहता है कि पैसा वसूल हो भी पाएगा या नहीं। खैर इस फिल्म को परिवार के साथ देखा जा सकता है।
'ठग्स आफ हिंदोस्तान' एक पीरियड-कास्ट्यूम ड्रामा है। इसमें तमाम वे अवयव नजर आ रहे हैं जो 'बाहुबली' जैसी बड़ी फिल्म में थे। कैनवस बड़ा है, स्टार कास्ट बड़ी है, एक्शन है, रोमांच है और सबसे बड़ी बात स्पेशल इफेक्ट्स व डायलाग बहुत अच्छे नजर आ रहे हैं। इससे ज्यादा और क्या चाहिए मनोरंजक फिल्म बनाने के लिए ? 27 सितंबर को रिलीज हुए इसके ट्रेलर से इस फिल्म के एक बड़ी फिल्म होने की झलक मिलती है। अलबत्ता जब अमिताभ बच्चन व आमिर खान पहली बार स्क्रीन पर आएंगे तो चमत्कार तो होगा ही।
इस बहुतप्रतीक्षित फिल्म का निर्देशन किया है विजय कृष्ण आचार्य ने। वे 'टशन' व 'धूम 3' का निर्देशन कर चुके हैं। 'टशन' बाक्स आफिस पर चली तो नहीं थी लेकिन उनके निर्देशन में करंट है यह साफ हो गया था। 'धूम3' ने तो खैर इतिहास बना दिया था। विजय के प्रति यशराज फिल्म्स का विश्वास बरकरार रहा और वे अपनी लगातार तीसरी फिल्म आदित्य चोपड़ा के साथ कर रहे हैं। देखें ट्रेलर-
फिल्म के ट्रेलर से कहानी जो नजर आती है उसका लब्बोलुबाब यह है कि यह अंग्रेजो के खिलाफ आजाद (अमिताभ बच्चन) की लड़ाई का कहानी है जो सन् 1795 के काल में गढ़ी गई है। दिखाया गया है कि ईस्ट इंडिया कंपनी भारत पर राज कर रही है और उसके खिलाफ जंग लड़ रहा है आजाद। हालांकि जब फिल्म के लिए जब बच्चन साहब का लुक जारी किया गया था तो उनका नाम खुदाबख्श ( जो खुदागवाह में डैनी का नाम था) बताया गया था। खैर हो सकता है कि उनके दो नाम हों। दिखाया गया है कि अंग्रेज परेशान हैं आजाद के हमलों से। आजाद उनके जहाज लूट लेता है और दूसरे नुकसान पहुंचाता है। आजाद को हराने के लिए कंपनी बुलाती है मस्तमौला फिरंगी मल्लाह (आमिर खान) को। जो देखने में मसखरा है लेकिन है बहादुर। वह आजाद के गैंग में शामिल हो जाता है लेकिन अंत में उसकी लड़ाई का जज्बा देख खुद आजाद के साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई मे शामिल हो जाता है। कैटरीना कैफ, जो ट्रेलर के हिसाब से एक डांसर नजर आ रही हैं, फिरंगी की प्रेमिका हैं। इसके अलावा फातिमा सना शेख को शायद आजाद की बेटी के रोल में दिखाया गया है। जो उसी की तरह बहादुर है।
फिल्म के ट्रेलर में एक्शन की भरमार है। संगीत की झलक नहीं है। शायद इसके लिए दूसरा ट्रेलर लांच किया जाए। संगीत अजय-अतुल (सैराट फेम) का है और सुने बिना उस पर कमेंट नहीं किया जा सकता। वैसे विजय की पहली दो फिल्मों का संगीत प्रीतम ने दिया था और जबर्दस्त हिट था।
अमिताभ बच्चन के लुक पर काफी मेहनत की गई है और लंबे अरसे बाद वे एक हीरो के रोल में नजर आ रहे हैं। जो एक्शन में माहिर है और फिल्म का सेंटर कैरेक्टर है। आमिर के लिए भी रोल बढ़िया लिखा गया नजर आता है। वे रंग जमाएंगे। कैटरीना जो पहले करती रही हैं वही यहां भी करेंगी। फिल्म का सबसे मजबूत पहलू इसके संवाद नजर आ रहे हैं।
कुल मिलाकर यह फिल्म यशराज फिल्म्स के बैनर का झंडा बुलंद करती नजर आ रही है और दिवाली के मौके पर 8 नवंबर को हो रही इसकी रिलीज सबकी झोली भरने वाली नजर आ रही है। देखते हैं यह बिजनेस की बाहुबली बनती है या नहीं ?
अगर आप लोगों ने 'मनमर्जियां' देखी होगी तो अभिषेक बच्चन का किरदार आपको जरूर पसंद आया होगा। शांत और सौम्य स्वभाव के रॉबी के किरदार में वे बहुत ही कूल नजर आते हैं। अपनी इसी सौम्यता के बल पर वे फिल्म की हिरोईन को भी जीतने में सफल रहते हैं। अभिषेक को इस रोल के लिए तारीफ भी मिली है लेकिन फिर भी 'मनमर्जियां' उनके कैरियर की बेहतरीन फिल्म नहीं कही जा सकती। आज भी अगर उनके कैरियर की बेहतरीन फिल्मों का जिक्र किया जाता है तो 'युवा', 'धूम', 'गुरु', 'सरकार', 'बंटी और बबली' या 'ब्लफमास्टर' का जिक्र करेंगे। जरा इन सभी फिल्मों में उनके द्वारा निभाए गए चरित्र को ध्यान से समझिए। सब के सब चालू, तेज तरार्र और गुस्सैल किस्म के कैरेक्टर। इसका सीधा सा मतलब क्या लगाया जाए? यही कि अभिषेक बच्चन रफ एंड टफ रोल्स में ही बेहतर काम कर सकते हैं।
किरदार जो पसंद आए
2004 में आई 'युवा' फिल्म में अभिषेक बच्चन ने एक गुंडे का किरदार निभाया था। एकदम कमीने किस्म का इंसान जिसके लिए जीवन में न बीवी का महत्व है और न भाई-दोस्त का। न कोई दिशा है न कोई लक्ष्य। इस रोल के लिए अभिषेक ने बाल भी बड़े किए थे। यकीन मानिए अभिषेक ने लल्लन के रोल में जान डाल दी थी। 'धूम' में उन्होंने पुलिस आफिसर का रोल तीनों ही भागों में निभाया है। और उन्हें सभी ने पसंद किया। इसमें एक्शन था, गुस्सा था और चैलेंज था। इसी तरह 'गुरु' में उन्होंने एक ऐसे आदमी का रोल किया जो येड़ा बनकर पेड़ा खाता है और देश का सबसे बड़ा कारोबारी बन जाता है। मणिरत्नम के साथ अभिषेक ने तीन फिल्में (युवा, गुरु और रावण) की और तीनों में ही उनको सराहा गया। 'गुरु' के लिए तो वे सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए नामांकित भी किए गए।
कैरियर का अहम मोड़
अभिषेक को इंडस्ट्री में 18 साल हो चुके हैं और उनकी आयु 42 साल है। बालीवुड में कहावत है कि यहां नायक 35 से 50 साल की आयु में ही असली स्टारडम का मजा चखते हैं। यानी अभी अभिषेक के पास लगभग 8-10 साल का समय बाकी है अपने आपको स्थापित करने के लिए।
फिल्में चुनने में हुई गलितयां
अभिषेक से फिल्मों के चयन में शुरू से ही गलतियां होती रही हैं। शुरूआत में 'रिफ्यूजी' (2000) में तो खैर वे लांच ही हो रहे थे और नौसिखिए थे लेकिन उसी समय उन्होंने 'मैं प्रेम की दीवानी हूं' (2003) के लिए हां करके बड़ी गलती की। इसमें उनका रोल वही था तो 'मनमर्जियां' में है। 26-27 साल के अभिषेक को वह रोल बिल्कुल भी सूट नहीं करता था। इसी बीच 'युवा' (2004) व 'धूम' (2004) आ गई और उनके कैरियर को बूस्ट मिल गया। इसी साल उन्होंने 'फिर मिलेंगे' और 'नाच' जैसी फिल्में करके अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी। इसके अलाव समय-समय पर कुछ मल्टीस्टारर फिल्में करके भी उन्होंने नुकसान उठाया। 'कभी अलविदा ना कहना' (2006), 'दस' (2005) में उन्हें तारीफ मिली लेकिन माइलेज नहीं। सबसे बड़ी गलत कर दी उन्होंने 'उमराव जान' करके। हालांकि ये भी सही है कि उन्हें इसी फिल्म की वजह से अपनी जीवन संगिनी ऐश्वर्या राय मिली लेकिन यह भी तो सही है कि वह एक महिला प्रधान फिल्म थी। इसमें उनके लिए कुछ नहीं था।
2007 में उन्होंने 'गुरु' के जरिए अपनी प्रतिभा से लोगों को परिचित कराया तो 'झूम बराबर झूम', 'लागा चुनरी में दाग', 'द्रोण' जैसी फिल्में करके नुकसान भी उठाया। इनमें उनके लिए कुछ नहीं था। 2009 में आई 'पा' में भी सारी तारीफ उनके पिता को मिली लेकिन अभिषेक बच्चन के भीतर के अभिनेता को परिपक्व होते हुए सबने इसी में देखा। 2010 में 'रावण' ने उन्हें तारीफ तो दिलाई लेकिन बाक्स आफिस पर यह फिल्म फेल रही। इसी समय आई 'गेम', 'प्लेयर्स', 'दम मारो दम' जैसी फिल्मों ने उन्हें बहुत नुकसान पहुंचाया। इस दौर में उनकी फिल्मों ने इतनी खराब प्रदर्शन किया कि उनकी 'धूम 3' की सफलता का भी उन्हें लाभ नहीं मिल सका। इसके अलावा 'हैप्पी न्यू ईयर', 'हाउसफुल 3', 'आल इज वैल' जैसी फिल्मों ने रही सही कसर पूरी कर दी।
दोहराव से बचें
'हाउसफुल 3' के बाद लंबा ब्रेक लिया और अब 'मनमर्जियां' में नजर आए। अभिषेक ने अपने लंबे ब्रेक के बारे में कहा था कि वे कुछ ऐसी फिल्म करना चाहते थे जिसमें उन्हें कुछ नया लगे। 'मनमर्जियां' देखने के बाद तो नहीं लगता कि इसमें कुछ नया वे कर पाए हैं। अब अभिषेक को कुछ नए किरदारों को तलाशना होगा। जो बड़े हों और उन्हें निभाकर आप भी बड़े नजर आएं।
सही वक्त पर सही फैसलें करें
सुनने में आया है कि वे संजय लीला भंसाली की नई फिल्म करने जा रहे हैं। इसमें संजय साहिर लुधियानवी व अमृता प्रीतम की प्रेम कहानी को दिखाने जा रहे हैं। संजय इस क्राफ्ट के मास्टर हैं और रणवीर सिंह के कैरियर को बनाने में उनका बहुत बड़ा हाथ है। अभिषेक के लिए यह रोल एकदम फिट नजर आता है। उनके पिता 'सात हिंदुस्तानी', 'कभी कभी' व 'सिलसिला' में कवि का किरदार निभा चुके हैं। उन्हें खूब तारीफ मिली थी। सुनने में आया था कि प्रियंका चोपड़ा इसमें अमृता प्रीतम का रोल निभाने वाली थी लेकिन वे शादी करने जा रही हैं। अब सुना है कि ऐश्वर्या इस रोल को करेंगी। वैसे भी ऐश्वर्या के साथ अभिषेक के जोड़ी 'गुरु' में खूब पसंद की गई थी। यह फिल्म उनके कैरियर को फायदा पहुंचा सकती है। बेहतर होगा कि अभिषेक एक समय में एक ही फिल्म करें और किरदार पर काम करें। उन्हें मल्टी स्टारर फिल्मों से परहेज करना चाहिए।
क्या करें-
एक्शन फिल्में करें और एक सलाह है कि वे बाल बड़े ही रखें। छोटे बाल उन पर बिल्कुल सूट नहीं करते। क्लीन शेव तो बिल्कुल भी नहीं रहें। अपनी फिटनस पर वर्क करें और झुककर चलना बंद करें।
क्या न करें-
रोमांटिक व नाचने गाने वाले किरदारों से दूर ही रहें तो बेहतर है। इन रोल्स में वे बिल्कुल भी स्वाभाविक नहीं लगते।
"शुरू से आखिर तक तापसी ही छाई रहती हैं। उन्होंने रुमी के किरदार को भरपूर
जिया है। उन्होंने अपने निजी प्रयास से इस किरदार में आग भर दी है। बॉडी
लैंग्वेज, डायलॉग बोलने का अंदाज, कपड़े पहनना और यहां तक शादी शुदा दिखने
में भी उन्होंने अपने तेवर बदलने नहीं दिए हैं। ये उनके कैरियर की सबसे
बेहतरीन फिल्म है।"
Rating - 3*
किसी भी फिल्म को देखने से पहले उसके बारे में कोई अवधारणा नहीं पाल लेनी चाहिए। आजकल इंटरनेट पर हर फिल्म के बारे में इतना सब कुछ प्रसारित किया जाता है कि कई बार तो ऐसा लगने लगता है कि यह फिल्म बहुत ही गजब की होगी या फिर कभी-कभी ये लगता है कि यार ये फिल्म देखी जाए या नहीं? 'मनमर्जियां' के बारे में पहले से ही लग रहा था कि यार इस फिल्म में कुछ गजब का होने जा रहा है। इसे जरूर देखना पड़ेगा। और हो भी क्यों नहीं, अनुराग कश्यप ने पहली बार अपने मार्का स्टाइल से हटकर फिल्म जो बनाई है। पहली बार उन्हें रोमांस और म्यूजिक की कद्र समझ में आई है। नहीं तो अब तक वे प्यार को केवल 'वाइल्ड सैक्स' से ही जज करते आए हैं।
इस फिल्म से अनुराग कश्यप ने अपने आप को बदलने की भरपूर कोशिश की है, पर निर्देशक के अंदर जो फिल्मकार बसा होता है तो बार-बार बाहर आ ही जाता है। इस फिल्म में उन्होंने प्यार के दोनों पहलू ही दिखाने की कोशिश की है। पर बार-बार वाइल्ड सैक्स भारी पड़ता नजर आता है, आदत जो ठहरी अनुराग की। लेकिन चूंकि इस बार अनुराग ने अपने आप को बदलने की ठान ली थी इसलिए उन्हें सच्चे व संस्कारी प्यार की जीत दिखानी पड़ी। यहीं फिल्म मार खा गई। फिल्म में सब कुछ अच्छा चल रहा था लेकिन संस्कारी प्यार को जिताने के चक्कर में एक तो फिल्म को दूसरा हाफ बोझिल हो गया और फिल्म का क्लाईमैक्स ज्यादा स्वीकार्य नहीं बन पाया।
कहानी बहुत ही साधारण सी है। रुमी (तापसी) और विक्की (विक्की कौशल) अमृतसर के दो लव बर्ड्स हैं जो सारी दुनिया से बेफिक्र अपनी मनमर्जियां करते रहते हैं। उनके लिए सैक्स प्यार का ही दूसरी रूप है। इसलिए जब भी मन करता है प्यार करने लगते हैं। रुमी शादी की कहती है तो वह हिम्मत नहीं जुटा पाता। लंदन रिटर्न बैंकर रॉबी (अभिषेक बच्चन) अमृतसर में शादी करने के लिए आता है। कई लड़कियों की तस्वीरें उसे दिखाई जाती हैं लेकिन उसका दिल तो हॉकी खेलने वाली बिंदास रुमी पर अटक जाता है। हालांकि उसे पता चल जाता है कि रुमी और विक्की का क्या चक्कर है, लेकिन फिर भी वह जिद पर अड़ जाता है। उसका तर्क था कि मैं रुमी के लिए खुद को विकल्प क्यों नहीं बना सकता? रुमी और विक्की की आपस की तकरार के चलते रुमी भी शादी के लिए हां कह देती है। रॉबी व रुमी शादी कर कश्मीर हनीमून पर भी जाते हैं, पर दोनों के बीच प्यार नहीं हो पाता। रॉबी रुमी से कहता है कि वो विक्की से शादी कर ले। विक्की भी सुधरने का वायदा करता है और आस्ट्रेलिया चला जाता है कोई काम धंधा करने। अदालत में तलाक की औपचारिकता पूरी करने के लिए रॉबी व रुमी जाते हैं और साइन करके बाहर आते हैं, और सड़क पर चलते-चलते ही बातें करने लगते हैं। दोनों को अहसास होता है कि वे एक दूसरे से प्यार करने लगे हैं। रुमी रॉबी को फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजती है और दोनों फिर से एक हो जाते हैं।फिल्म का अंत सही है या गलत इसका फैसला आप फिल्म देखने के बाद ही करें। एक बार तो देखने लायक है ही यह फिल्म। अगर दूसरा हाफ भी पहले जैसा होता तो मजा आ जाता।
अनुराग कश्यप ने खुद को बदलने की असफल कोशिश की है। इतिहास गवाह है कि फिल्मकारों ने जब-जब अपने स्टाइल को बदलने की कोशिश की है उनसे ऐतिहासिक भूलें हुई हैं। यश चोपड़ा भी 'दीवार' व 'त्रिशूल' बनाने के बाद जब 'सिलसिला' व 'फासले' बनाने गए थे तो गच्चा खा गए थे। ये आसान नहीं होता। अनुराग कश्यप को बिहार व यूपी की बढिय़ा जानकारी जरूर है लेकिन पंजाब को वे ज्यादा नहीं जान पाए। केवल शराब, सिगरेट, डीजे और सैक्स ही पंजाब नहीं है। उनकी नजर में अमृतसर की लड़कियों को जब तक दिन में दो बार 'फ्यार' (प्यार में एफ शब्द जोड़ दें तो) न किया जाए तो उनकी आग ठंडी नहीं होती। फिल्म की शूटिंग उन्होंने वास्तविक लोकेशंस पर की है इसलिए जान बच गई है। शुरू के आधा घंटा तो ऐसा लगता है कि जैसे कोई पंजाबी फिल्म देख रहे हैं। अभिषेक बच्चन के आने के बाद ही फिल्म में बालीवुड फिल्म का लुक आता है। हर मौके पर फिल्म में गीत हैं। सारे पंजाबी हैं, जो सिनेमा में सुनने में अच्छे लगते हैं लेकिन कोई भी सुपर हिट हो जाए इतना दम नहीं है। हां अमित त्रिवेदी ने बैकग्राउंड संगीत में झंडे गाड़ दिए हैं।
सही बताऊं तो यह फिल्म तापसी पन्नू की फिल्म है। शुरू से आखिर तक तापसी ही छाई रहती हैं। उन्होंने रुमी के किरदार को भरपूर जिया है। उन्होंने अपने निजी प्रयास से इस किरदार में आग भर दी है। बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग बोलने का अंदाज, कपड़े पहनना और यहां तक शादी शुदा दिखने में भी उन्होंने अपने तेवर अलग ही रखे हैं। ये उनके कैरियर की सबसे बेहतरीन फिल्म है। इसके बाद उन्हें इसकी चिंता छोड़ देनी चाहिए कि उन पर कहीं अलग हटके रोल करने का ठप्पा तो नहीं लग गया है? मैं बता दूं, वे पूरी तरह से बॉलीवुड में आ चुकी हैं और छा जाने की तैयारी में हैं। वैसे भी फिल्म में अनुराग कश्यप रुमी के किरदार के साथ प्यार में नजर आते हैं। जब भी तापसी पर्दे पर आती हैं तो अनुराग का निर्देशन टॉप फॉर्म में होता है। तापसी के लिए एक ही शब्द कहूंगा-लाजवाब।
अभिषेक बच्चन को कुछ महीने पहले एक इंटरव्यू में कहते सुना था कि एक लंबा ब्रेक लेने के बाद वे एक ऐसी फिल्म करना चाहते थे जो कुछ नयापन आफर करे। और इसलिए उन्होंने अनुराग से दूरियां होने के बावजूद इस फिल्म को किया है। पर उनकी सोच गलत है। ऐसा रोल वे बरसों पहले 'मैं प्रेम की दीवानी हूं' में कर चुके हैं। एक सभ्य व शालीन युवक का किरदार उन्होंने बढिय़ा तरीके निभाया है लेकिन इस फिल्म से उनके कैरियर को नया बूस्ट मिल जाएगा इसका मुझे संदेह है।
विक्की कौशल तो सफलता के घोड़े पर सवार हैं। एक के बाद एक अच्छे रोल उन्हें मिल रहे हैं। कलाकार वे बढिय़ा हैं ही। जो भी किरदार निभाते हैं उसमें घुस जाते हैं। यहां भी उन्होंने वैसा ही किया है। पंजाब के टिपिकल टैटू शैटू वाले डीजे ब्वॉय के रोल में वे छाए रहते हैं। बाकी कलाकारों ने भी अपने काम को ठीक-ठाक तरीके से किया है।
फिल्म को यू/ए सर्टिफिकेट मिला है लेकिन अनुराग ने इसे ए सर्टिफिकेट दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बस किनारे पर रुक गए। फैमिली फिल्म तो नहीं कहूंगा हां युवाओं को एक बार जरूर यह फिल्म देखनी चाहिए और सीख लेनी चाहिए कि हमें अपने जीवन में कभी न कभी तो सीरियस होना ही होता है।
सितंबर माह शुरू हो चुका है और 2018 खत्म होने में तीन महीने ही बाकी हैं लेकिन बालीवुड के लिहाज से यह साल बहुत ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा है। कई फिल्मों ने 100 करोड़ के क्लब को ज्वाइन किया लेकिन वे इसके लायक नहीं थी। वीकेंड कलेक्शन और उनके स्टार्स के दम पर फिल्में धंधा कर ले गई। कुछ फिल्में ऐसी थी जिन्हें लोगों ने पंसद किया लेकिन वे पैसा नहीं कमा पाई। साल की टॉप टेन फिल्में छानने की कोशिश की तो यकीन मानिए 5 फिल्में ही ऐसी ढूंढ पाया जो लोगों को पसंद भी आई और पैसा भी कमाने में सफल रही। उन्हीं के रीव्यू एक बार फिर आपकी नजर कर रहा हूं-
1. पदमावतः
साल की सबसे बड़ी फिल्म का रीव्यू पढ़ने के लिए क्लिक करें-
3. सोनू के टीटू की स्वीटीः
युवा पीढ़ी की एक बोल्ड व मस्त फिल्म जिसने नुसरत भरूचा व कार्तिक आर्यन को स्टार बना दिया। मेरा रीव्यू- हसांती, गुदगुदाती, नचाती, रुलाती फिल्म।
साल में 5 या 6 फिल्में ही ऐसी आती हैं जिन्हें आप बार-बार देख सकते हैं। दर्शक वीकेंड में एक ऐसी फिल्म का इंतजार करते हैं जिसमें वे परिवार के साथ कुछ घंटे बिता सकें। फिल्म जरा सी औसत भी होती है तो भी लोग देख लेते हैं। पिछले दिनों रिलीज हुई ‘गोल्ड’ व ‘सत्यमेव जयते’ जैसी दोयम दर्जे की फिल्में 100 करोड़ के आसपास का कारोबार इसलिए कर ले रही हैं क्योंकि ये कम से कम टाइम पास फिल्में तो हैं ही। निर्देशक कबीर खान का कहना है कि बालीवुड में अच्छी स्क्रिप्ट का अकाल है। उनकी बात एकदम सही है। कहानी में जरा सी भी कुछ नयापन हो तो लोग फिल्म देख ही लेते हैं। ‘स्त्री’ भी एक ऐसी ही फिल्म है।
Rating 2*
‘स्त्री’ वैसे तो अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाली फिल्म है लेकिन जिस प्रकार निर्देशक अमर कौशिक ने इसे पेश किया है उससे यह एक हॉरर कॉमडी बन गई है। थोड़ा हंस लिए लोग इसलिए फिल्म मनोरंजक बन गई और अच्छा खासा पैसा कमा रही है। इतना पैसा कि जितना किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी। राजकुमार राव कोई सुपर स्टार नहीं हैं और न ही श्रद्धा कपूर के नाम से दर्शक खिंचे चले आते हैं। फिर भी फिल्म क्यों अच्छी चल रही है। देखिए मेरा रीव्यूः-
अक्षय कुमार के बारे में एक बात जरूर कहना चाहूंगा। बहुत अच्छे अभिनेता
नहीं होने के बावजूद उनके अंदर विषय को पहचान लेने की बहुत ही अच्छी क्षमता
है। उनके समकालीन शाहरुख खान, अजय देवगन आदि के साथ ऐसा नहीं है। अक्षय
समझ लेते हैं कि किस फिल्म से दर्शक आसानी से कनेक्ट हो सकते हैं। एक तरफ
तो वे 'हाउसफुल' जैसी माइंडलैस कॉमेडी करते हैं वहीं दूसरी ओर उनकी
सब्जेक्ट आधारित फिल्मों की लिस्ट देखिए बहुत लंबी है।
Rating 3*
मैंने पहले भी कहा है कि खेलों पर आधारित फिल्में दर्शकों से सीधे कनेक्ट हो जाती हैं। फिल्म किसी भी खेल पर बनी हो लेकिन उसका देशप्रेम से सीधा नाता हो जाता है। यानी डबल इमोशनल। फिर 'गोल्ड' तो आजादी के बाद भारत के पहले ओलंपिक गोल्ड मैडल जीतने के अभियान से जुड़ी हुई है। यहां तो और भी ज्यादा भावनाएं उमड़ पडऩा लाजिमी था। भारत कभी हाकी में दुनिया की सबसे बड़ी ताकत रहा है यह तो सब जानते होंगे लेकिन आजादी से पहले जीते दो स्वर्ण पदक व आजादी के बाद मिली जीतों के फर्क को ज्यादा लोग समझ नहीं सकते। भारत ने आखिरी बार ओलंपिक गोल्ड 1980 के मास्को ओलंपिक में जीता था और उस समय अमेरिकी व उसके समर्थक देशों ने बायकाट किया हुआ था। इसलिए उसे ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता।
खैर मेरा मानना है कि फिल्म का प्लाट जानदार है और इस पर एक बहुत शानदार फिल्म बननी तय थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रीमा कागती ने यह बहुत बड़ा अवसर खो दिया। शानदार विषय को कमजोर निर्देशन की वजह से बेकार कर दिया गया। रीमा कागती ने इससे पहले 'हनीमून ट्रैवल्स लि.' व 'तलाश' फिल्में बनाई हैं। दोनों ही बुरी तरह से फेल रही थी। 'तलाश' तो पिछले 15 साल में आमिर खान की एकमात्र फ्लॉप फिल्म है। रीमा कागती लकी हैं कि उन्हें फरहान अख्तर व रीतेश सिडवानी जैसे निर्माता मिले जिन्होंने उन्हें एक और अवसर दे दिया। शायद यहां सब्जेक्ट विनर था। उन्हें लग रहा था कि इस पर 'चक दे इंडिया' जैसी फिल्म बन जाएगी। इसलिए शायद उन्होंने 'चक दे इंडिया' को बार-बार देखा भी। बस यहीं गड़बड़ हो गई। फिल्म को 'चक दे इंडिया' बनाने के चक्कर में रीमा मात खा गईं। फिल्म में देश, धर्म, क्षेत्रवाद, हाकी फेडरेशन की राजनीति आदि का ऐसा घालमेल उन्होंने किया कि फिल्म अपने मूल विषय से भटक गई। फिल्म के क्लाईमैक्स को छोड़ दिया जाए तो फिल्म कहीं भी बांध नहीं पाती है।
अक्षय कुमार के बारे में एक बात जरूर कहना चाहूंगा। बहुत अच्छे अभिनेता नहीं होने के बावजूद उनके अंदर विषय को पहचान लेने की बहुत ही अच्छी क्षमता है। उनके समकालीन शाहरुख खान, अजय देवगन आदि के साथ ऐसा नहीं है। अक्षय समझ लेते हैं कि किस फिल्म से दर्शक आसानी से कनेक्ट हो सकते हैं। एक तरफ तो वे 'हाउसफुल' जैसी माइंडलैस कॉमेडी करते हैं वहीं दूसरी ओर उनकी सब्जेक्ट आधारित फिल्मों की लिस्ट देखिए बहुत लंबी है। 'बेबी', 'पैडमेन', 'टायलेट एक प्रेम कथा', 'रुस्तम', 'एयरलिफ्ट' आदि आदि।
शायद ये फिल्म भी अक्षय ने यह समझकर साइन कर ली कि सब्जेक्ट बढिय़ा है। इसमें अक्षय की कोई गलती नहीं। हालांकि जब फिल्म बन रही थी तो उन्हें इसका आभास होना चाहिए था कि कहां गलती हो रही है। कम से कम फिल्म की फाइनल कॉपी देखकर उन्हें वे दो गीत तो जरूर निकलवा देने चाहिए थे जिसमें वे शराब पीकर क्लब में नाचते हैं। फिल्म छोटी भी हो जाती और अक्षय का कैरेक्टर भी बैलेंस हो जाता। यकीन मानिए तपनदास (अक्षय कुमार) के किरदार का खराब चरित्र चित्रण इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। उसे शराबी, जुआरी, सट्टेबाज, बीवी (मौनी रॉय) से पिटने वाला, झूठा और न जाने क्या-क्या दिखा दिया गया है। फिल्म ने बॉक्स आफिस पर ओपनिंग अच्छी ली है लेकिन यदि निर्देशक ने थोड़ी मेहनत की होती तो यह फिल्म बहुत बड़ी हिट हो सकती थी।
कहानी आपको पहले ही बता चुका हूं लेकिन फिर भी बता देता हूं। भारत आजादी से पहले बर्लिन ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतता है तो टीम व उसके असिस्टेंट मैनेजर को लगता है कि यह जीत तो ब्रिटिश सरकार के नाम गई। तपनदास सपना देखता है कि एक दिन उसकी टीम आजाद भारत में भी गोल्ड जीतेगी। अगले दो ओलंपिक विश्व युद्ध की भेंट चढ़ जाते हैं। 1948 के ओलंपिक लंदन में होने तय होते हैं तो तपनदास फिर से टीम जुटाने लगता है। काफी मेहनत के बाद जब टीम तैयार होने वाली होती है तो देश का बंटवारा हो जाता है और आधी टीम पाकिस्तान चली जाती है। तपन फिर से प्रयास करता है तमाम कठिनाइयों के बाद आखिरकार भारत गोल्ड जीतने में सफल रहता है।
फिल्म की कहानी ठीक-ठाक है और स्क्रीनप्ले में भी कोई कमी नहीं है बस निर्देशन में खराबी है। कुछ सीन बहुत ही जल्दी में शूट किए गए हैं। मैदान में ईंटें एक ओर से दूसरी ओर रखने वाला सीन यदि गंभीरता से फिल्माया गया होता यह बड़ा संदेश दे सकता था। किसी भी सीन की आत्मा में निर्देशक घुस नहीं पाई हैं।
इसके अलावा फिल्म का संगीत बहुत ही कमजोर है। ऐसी फिल्मों में संगीत का अच्छा होना भी जरूरी है। अक्षय की फिल्मों में एकाध गीत जरूर अच्छा होता है लेकिन यहां कोई भी गीत यादगार नहीं है। शराब पीकर बंगाली तपनदास जब पंजाबी गीत पर भंगड़ा करता है तो बहुत ही बेहूदा लगता है। संवाद खराब हैं। अच्छे संवाद भी फिल्म को मजबूती देते हैं। अभिनय में अक्षय कुमार ने हमेशा की तरह अच्छा काम किया है। मौनी रॉय को पहली बार बड़ा ब्रेक मिला है लेकिन वे प्रभावित नहीं करती। उनके बड़े बड़े होंठ अजीब लगते हैं। इस मामले में टायलेट में भूमि पेढनेकर ने कमाल किया था। साधारण नैन नक्श होने के बाद भी झंडे गाड़ दिए थे।
कुल मिलाकर यह फिल्म केवल एक बार देखी जा सकती है। यह तो इस फिल्म की किस्मत है कि 15 अगस्त की रिलीज की वजह से इसे अच्छी ओपनिंग मिली और इसके सामने 'सत्यमेव जयते' जैसी कमजोर फिल्म है नहीं तो इसका बाक्स आफिस कलेक्शन ज्यादा अच्छा नहीं रह पाता। वीकेंड पर टाइम पास करना चाहते हैं तो यह फिल्म बुरी नहीं है।
- हर्ष कुमार सिंह
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अनुष्का-वरुण के सच्चे किरदारों वाली दर्शक से कनेक्ट होती नजर आने वाली कहानी
हमारे फिल्मकार देश दुनिया में घटित हो रही घटनाओं से प्रेरणा लेकर फिल्में बनाना सीख रहे हैं। ऐसा अच्छे लेखकों व कहानियों के अभाव की वजह से हुआ है। अच्छे किरदार घडऩा लेखकों के बूते नहीं है। इसलिए रीयल लाइफ हीरोज ढूंढे जा रहे हैं। चाहे वे खिलाड़ी (धोनी, सूरमा, सचिन, मिल्खा, मैरीकॉम, दंगल, गोल्ड आदि) हों या फिर समाज में कुछ नया करने वाले सोशल हीरो (मांझी, शाहिद, नीरजा, पैडमैन, टॉयलेट आदि)। ऐसा हमेशा से होता रहा है। कभी बालीवुड में उपन्यासों पर फिल्में बनाने का दौर भी था।
हमारी सरकार के मेड इन इंडिया व स्किल इंडिया के स्लोगन से निकला हुआ लगता है 'सुई धागा' का सब्जेक्ट। राजस्थान की बैकग्राउंड पर बनाई गई है फिल्म। ट्रेलर देखने के बाद लगता है कि इसका मुख्य किरदार मौजी (वरुण धवन) जो घर परिवार में सम्मान अर्जित करने के लिए संघर्ष कर रहा है अचानक अपने पैर पर खड़े होने का फैसला ले लेता है।
इसमें उसकी प्रेरणा बनती है पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा)। ममता उसके आत्मसम्मान को झकझोरती है और सिलाई मशीन की दुकान पर मामूली नौकरी करने वाला मौजी अपने संघर्ष से बन जाता है एक टैक्सटाइल कंपनी का मालिक। ट्रेलर देखकर तो ऐसा ही लगा। अब वह टैक्सटाइल कंपनी में काम करता दिखाया गया है या मालिक बनता दिखाया गया है यह तो फिल्म में ही साफ हो पाएगा? लेकिन जिस वरुण को यह कहते हुए दिखाया गया है कि जब कंपनी इंडिया की है तो कपड़े पर भी मेड इन इंडिया ही लिखेंगे। अब यह फैसला तो कोई मालिक ही ले सकता है। इस तरह की कई फिल्में पहले भी बनी हैं जिनमें हीरो को फर्श से अर्श पर पहुंचते हुए दिखाया गया है।
इस तरह के सब्जेक्ट लोगों को लुभाते हैं और दर्शक बहुत जल्दी कनेक्ट हो जाते हैं। हमारे देश में हर इंसान अपने संघर्ष में जुटा हुआ है और उसे फिल्मी हीरो को जीतते हुए देखने में अपनी जीत नजर आती है। बहरहाल फिल्म अच्छी नजर आ रही है। यशराज का बैनर है और आदित्य चोपड़ा जैसा प्रोड्यूसर, प्रोडक्ट तो बेहतर बनना ही है। सबसे खास बात है कि लीड स्टार्स मुख्य किरदारों में एकदम परफेक्ट नजर आ रहे हैं। वरुण धवन से ज्यादा अनुष्का रोल के अधिक करीब नजर आ रही हैं। वरुण फिर भी फिल्मी हीरो टाइप लग रहे हैं लेकिन अनुष्का ने तो खुद को पूरी तरह से बदल दिया है। 200 रुपये की धोती में लिपटी गांव देहात की घरेलू महिला। फिल्म कैसी होगी यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा लेकिन अनुष्का शर्मा और वरुण के खाते में एक और बेहतर फिल्म आती नजर आ रही है। गीत-संगीत के बारे में अभी कोई आइडिया नहीं हुआ है। निर्देशक शरत कटारिया ने इससे पहले 'दम लगा के हईशा' बनाई थी जो अपने सब्जेक्ट की वजह से सराही गई थी। उसमें तो अनु मलिक ने संगीत भी अच्छा दिया था, देखते हैं इस बार क्या करेंगे?
अभिषेक बच्चन ने कुछ महीने पहले अनुपमा चोपड़ा के साथ एक इंटरव्यू में कहा था कि वे तीन साल से कोई फिल्म इसलिए नहीं साइन कर रहे हैं क्योंकि वे कुछ ऐसा करना चाहते हैं जो उन्हें व उनके फैंस को चौंका दे। 'हाउसफुल 3' के बाद से उनकी कोई फिल्म आई भी नहीं है। 'मनमर्जियां' साइन करते समय वे उलझन में थे कि अनुराग कश्यप के साथ फिल्म करें या नहीं? अनुराग से उनकी पुरानी अनबन भी थी लेकिन फिर भी अभिषेक ने इस फिल्म को साइन किया और ट्रेलर को देखकर लग रहा है कि अभिषेक वास्तव में अलग नजर आ रहे हैं इस फिल्म में। एक सिख युवक रॉबी के किरदार में वे बहुत ही संयत व मैच्योर नजर आ रहे हैं।
अनुपमा चोपड़ा के साथ अभिषेक का बेहतरीन इंटरव्यू यहां देखें-
हो सकता है कि यह फिल्म उनके कैरियर को एक नई दिशा दे दे, लेकिन ट्रेलर देखने के बाद तो मुझे यही लगा कि और किसी का फायदा हो या न हो लेकिन विक्की कौशल का रोल जरूर सबको पसंद आने वाला है। वे हंगामा किए दे रहे हैं और तापसी पन्नू के साथ उनकी कैमिसट्री आग लगा देने वाली नजर आ रही है। मुझे डर है कि कहीं विक्की इस फिल्म में भी वही न कर दें जो उन्होंने 'संजू' में किया। 'संजू' में उन्होंने रणबीर की चमक को भी फीका कर दिया था। इस फिल्म में भी विक्की सबको चौंकाने की तैयारी में हैं।
मनमर्जियां का ट्रेलर देखें-
ट्रेलर देखने के बाद कहानी मुझे कुछ इस तरह समझ में आई- पंजाब की पृष्ठभूमि है। जैसा कि मोहल्लों में अक्सर होता है। लड़के-लड़की की प्रेम कहानी चल रही है। जिसमें लव से ज्यादा लस्ट है। फिर अचानक ही शादी की बात और तीसरे लड़के का प्रवेश। विक्की (विक्की कौशल) व रुमी (तापसी) के जबर्दस्त किसिंग सीन से ट्रेलर शुरू होता है और दोनों जल्द ही बिस्तर में दिखाए जाते हैं। मतलब दोनों में रोमांस से कुछ आगे भी चल रहा है। बिंदास व मुंहफट रुमी उससे कहती है कि वह घरवालों से शादी की बात करे नहीं तो वह किसी और से शादी कर लेगी। पर विक्की को तो शादी से ज्यादा मां के गोभी के परांठे प्यारे हैं। ऐसे में ही एंट्री होती है एक और सिख युवक रॉबी (अभिषेक बच्चन) की। रॉबी घरवालों के कहने पर रुमी को देखने आता है। पहले तो रुमी घबराती है कंफ्यूज होती है लेकिन फिर विक्की के व्यवहार को देखकर रॉबी से शादी को तैयार हो जाती है। इससे विक्की उत्तेजित होता है और लड़ाई झगड़ा भी होता है लेकिन रुमी व रॉबी की शादी हो जाती है। क्या दोनों की शादी कामयाब हो जाती है? विक्की का क्या होता है? यह साफ नहीं किया गया है। ट्रेलर के अंत में दिखाया गया है कि रुमी को रॉबी का साथ नहीं पसंद आ रहा है और फोन पर वह चाची से कहती नजर आती है कि जब सब कुछ होने वाला होता है तो वह (रॉबी) कंडोम ही भूल जाता है। यहीं से हिंट मिलता है कि फिल्म के अंत में ट्विस्ट है। तनु वेड्स मनु के हिट गीत -
संगीत कुछ वैसा लगता है जैसा आनंद एल राय (निर्माता) की 'तनु वेड्स मनु' में था। फिल्म का प्रस्तुतिकरण भी उसी तरह का लगता है। पर यहां डायरेक्टर अनुराग हैं। कुछ तो फर्क होगा। फिल्म युवा एनर्जी से भरपूर लगती है। तापसी पन्नू इस समय देश की सबसे प्रतिभाशाली और तेजी से उभरती हिरोईनों में से एक हैं और उन्हें अब तक परिपक्व किरदारों में देखने के आदी उनके फैंस इस बोल्ड किरदार में देखकर चौंक सकते हैं। तापसी ने भी कहा है कि वे इस रोल को करके बहुत ही खुश हैं और उन्होंने खूब मजा किया है इस रोल में।
देखते हैं क्या होता है। फिल्म 14 सितंबर 2018 को रिलीज हो रही है।
अंतहीन बहस को मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश है 'मुल्क'
" दरअसल मुल्क एक फिल्म नहीं एक अंतहीन बहस है। यह बहस बरसों बरस दुनिया में चलती रही है कि क्या आतंकवाद का कोई मजहब होता है या सारे आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होते हैं। इसका न कोई अंत है न हल। अतः यह फिल्म भी अंत में एक लंबी चौड़ी बहस पर ही खत्म होती है। डायरेक्टर अनुभव सिन्हा ने बहुत ही साधारण व सीधे शब्दों में इस बहस को निपटाया है।"
Rating - 4*
मनोज पाहवा का नाम आपमें से कम लोग जानते होंगे। वे छोटे-छोटे किरदारों को बड़ा बनाने की कुव्वत रखते हैं। पर आपने उन्हें हमेशा हास्य कलाकार के रूप में ही देखा है। मोटा सा आदमी जो अपने शरीर व मोटी गर्दन से अजीब सा नजर आता है और बस उसे देखकर हंसा जा सकता है, लेकिन यकीन मानिए 'मुल्क' देखने के बाद आपकी अवधारणा पाहवा के बारे में बदल जाएगी। फिल्म में इंटरवल से पहले एक सीन है जिसमें वे अपने बड़े भाई से जेल के भीतर बातचीत करते हैं और कहते हैं कि मैं तो नहीं बच पाऊंगा लेकिन हो सके तो तुम (तापसी) भाई साहब (ऋषि कपूर) को बचा लेना बेटा। इस सीन में पाहवा ने झंडे गाड़ दिए हैं। वैसे तो इस फिल्म में सभी कलाकार खरे सोने की तरह हैं लेकिन पाहवा और तापसी पन्नू की चमक देखते ही बनती है।
अक्सर फिल्म शुक्रवार को ही देखकर रीव्यू कर दिया करता हूं लेकिन 'मुल्क' देखने का वक्त रविवार को मिला। ये देखकर बहुत ही धक्का लगा कि जिस मल्टीप्लेक्स में देखना था उसमें केवल दो ही शो में फिल्म चल रही है। दोनों में टिकट तेजी से बिक रहे थे। पत्नी के साथ जल्दी से निकला और जाकर बारिश के मौसम में जहां भी टिकट मिली ले ली और फिल्म देखी। बाहर निकले तो बारिश हो रही थी। सिनेमा ज्यादा दूर नहीं था इसलिए गाड़ी घर पर ही खड़ी कर पैदल गए और भीगते हुई वापस आए, पर यकीन मानिए जरा भी अफसोस नहीं हुआ। इतनी बेहतरीन फिल्म देखकर किसी को भी किसी बात का मलाल नहीं होना चाहिए।
दरअसल 'मुल्क' एक फिल्म नहीं अंतहीन बहस है। यह बहस बरसों बरस दुनिया में चलती रही है कि क्या आतंकवाद का कोई मजहब होता है या सारे आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होते हैं? इसका न कोई अंत है न हल। अतः यह फिल्म भी अंत में एक लंबी चौड़ी बहस पर ही खत्म होती है। डायरेक्टर अनुभव सिन्हा ने बहुत ही साधारण व सीधे शब्दों में इस बहस को निपटाया है। उतना ही खींचा जितना कि दर्शक हजम कर सकें। इससे ज्यादा खींचते तो बोझिल हो जाती फिल्म।
कहानी वाराणसी में रहने वाले वकील मुराद अली (ऋषि) के परिवार की है। उनके छोटे भाई बिलाल (मनोज पाहवा) का बेटा शाहिद (प्रतीक बब्बर) आतंकवादियों के बहकावे में आ जाता है। एक बम धमाके में लिप्त होने के बाद शाहिद को पुलिस मुठभेड़ में मार गिराती है। अचानक ही पूरे परिवार पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ता है। बिलाल को गिरफ्तार कर लिया जाता है। सरकारी वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा) पूरे परिवार पर आरोप लगाता है कि सभी आतंकवादी नेटवर्क से जुड़े हैं। मुराद अली को भी इस मामले में आरोपी बना दिया जाता है। मुराद अली को अचानक अपने दोस्तों-पड़ोसियों में भी भारी बदलाव नजर आने लगता है। सभी उनके परिवार को दोषी मानते हैं। सबको लगता है कि पूरा परिवार यह जानता था और सभी इसमें लिप्त हैं। मुराद अली के सामने दिक्कत थी वे केस लड़ें या समाज से। बिलाल की मुकदमे के दौरान दिल का दौरा पड़ने से मौत हो जाती है। थककर वे मुकदमा लड़ने का जिम्मा अपनी हिंदू बहु आरती (तापसी पन्नू) पर छोड़ देते हैं। लंदन में रहने वाली आरती कुछ समय के लिए ही यहां आई थी। अंत में सच की जीत होती है।
फिल्म को ओरिजनल लोकेशंस पर शूट किया गया है। यही सबसे बड़ी ताकत है फिल्म की। मुराद अली का घर सेट नहीं नजर आता। गली-मोहल्ला वास्तविक नजर आता हैं और कलाकार तो सभी कमाल के थे ही। तापसी पन्नू तो इसकी हीरो हैं। कोर्ट में बहस के दौरान तापसी ने जबर्दस्त काम किया है। ऐसे किरदारों के लिए तो वे एकदम फिट हैं। कई फिल्में इस तरह की कर लेने के बाद अब उनमें किरदार में घुस जाने की कला खूब आ गई है। वकील के लबादे में वे वकील नजर आती हैं और यही उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी जीत है। इस रोल के लिए उन्हें सभी अवार्ड नोमिनेशंस तो मिलने ही हैं। हो सकता है कोई पुरस्कार भी मिले।
ऋषि कपूर के लिए तो ऐसे किरदार बाएं हाथ का खेल हैं। वे अपने कैरियर के सबसे खूबसूरत दौर से गुजर रहे हैं। एक से एक भिन्नता लिए हुए रोल उन्हें मिल रहे हैं और वे बहुत ही सहजता से उन्हें निभा देते हैं। नीना गुप्ता भी काफी समय बाद दिखी और शानदार रोल निभाया उन्होंने। जज के रोल में कुमुद मिश्रा, पुलिस अफसर के रोल में रजत कपूर और बिलाल की बीवी के रोल में प्राची शाह ने भी अपने रोल को बढ़िय़ा निभाया है। लेखक की खास बात यह रही कि उसने सभी कलाकारों को कम से कम एक जोरदार सीन जरूर दिया है। फिल्म तकनीकि रूप से भी बढ़िया है। संगीत की जरूरत थी नहीं। तीन गीत हैं जो सिचुएशन के हिसाब से अच्छे लगते हैं।
फिल्म जिस उद्देश्य से बनाई गई है उसमें यह सफल रहती है और काफी हद तक इस बहस को तार्किक रूप से खत्म करने में सफल रहती है कि हर आतंकी मुसलमान नहीं होता और आतंक का कोई मजहब नहीं होती है। एक सीख भी देती है कि हमारे बच्चे किस राह पर जा रहे हैं उन पर भी नजर रखना हमारा फर्ज है। नहीं तो जैसा ऋषि कपूर ने कहा- 'मैं यह कैसे साबित करूं कि मैं अपने मुल्क से बेहद प्यार करता हूं?' यह काम बड़ा कठिन है और कठिन ही रह जाएगा।