Friday 11 August 2017

DEEP REVIEW : Toilet - Ek Prem Katha

‘शौच’ के साथ ‘सोच’ बदलने के लिए अक्षय को धन्यवाद 

Rating- 5*****

इसे कहते हैं असली सिनेमा। मनोरंजन का मनोरंजन और समाज के लिए संदेश भी। इस काम को राजकुमार हिरानी ने भी किया कुछ साल पहले जब उन्होंने गांधीगिरी का संदेश दिया था लेकिन अक्षय कुमार ने कमाल ही कर दिया है। उन्होंने महिलाओं की आजादी व समानता को अमली जामा पहनाए जाने के लिए मुहिम ही छेड़ दी है। इसके लिए उन्होंने जरिया बनाया खुले में शौच करने की कुप्रथा को खत्म करने की सोच को बढ़ावा देकर। फिल्म केवल देश की सरकार की सोच में कंधे से कंधा मिलाने की ही बात नहीं करती बल्कि यह भी संदेश बहुत जोरदार तरीके से देने की कोशिश करती है कि जब तक हम खुद को नहीं बदलेंगे तब तक कोई सरकार कुछ नहीं कर सकती।

फिल्म के दो मैसेज बहुत साफ हैं:-
1. शौचालय व महिलाओं की आजादी की बात सभ्यता के खिलाफ लड़ाई है और यह वो चीज है जिसे किसी ने आज तक देखा नहीं है बल्कि हम सबके अंदर ही है।

2. फिल्म यह भी सबक देती है कि जब तक कोई समस्या हमें निजी तौर पर नहीं महसूस होती तब तक हम उसे समस्या ही नहीं समझते।

मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के साथ ही देश में महिलाओं के लिए घर-घर शौचालय बनाए जाने का अभियान शुरू किया था। लाल किले की प्राचीर से खुद पीएम ने कहा था कि अगले स्वतंत्रता दिवस तक सभी सरकारी स्कूलों में बालिकाओं के लिए अलग से शौचालय बनाए जाने चाहिए। बस तभी से यह अभियान जारी है। हो सकता है कि सरकारी स्कूलों में ऐसा हो गया हो लेकिन यह हकीकत है कि आज भी गांव-देहात में न केवल लाखों महिलाएं बल्कि पुरुष भी खुले में शौच करने के लिए जाते हैं। कुछ इसे आदत बताते हैं तो कुछ दकियानूसी विचारधारा की वजह से ऐसा करते हैं। यह फिल्म दोनों तरह के मोर्चों पर टक्कर लेती नजर आती है। और सबसे खास बात है कि तमाम भाषणबाजी और नाटकबाजी के बाद भी आप बोर नहीं होते और हंसते-हंसते फिल्म खत्म हो जाती है।
कहानी वेस्ट यूपी के प्रसिद्ध मथुरा में केंद्रित है। केशव (अक्षय कुमार) को पढ़ी लिखी जया (भू्मि पेढनेकर) से प्यार हो जाता है और किसी न किसी तरह वह उसे शादी करने के लिए तैयार कर लेता है। जया को उस समय बहुत धक्का लगता है जब वह देखती है कि उसकी ससुराल में शौचालय नहीं है। जया खुले में शौच करने से इंकार कर देती है। केशव उसे कभी प्रधान के घर शौचालय में ले जाता है तो कभी ट्रेन में। चोरी की टायलेट भी लाता है लेकिन पिता की रूढि़वादी सोच उसे कामयाब नहीं होने देती। जया मायके चली जाती है। इसके बाद शुरू होता है गांव में टायलेट बनवाने का सिलसिला। अंत में केशव व जया की मुहिम रंग लाती है और शौच के साथ सोच भी बदल जाती है।

फिल्म के कहानी व पटकथा तो कमाल के हैं ही संवाद तो बेहद शानदार हैं। ऐसी फिल्मों में डायलाग ही तो असली काम करते हैं। एक नहीं कई सीन इतने शानदार तरीके से लिखे गए हैं। फिर भी तीन का यहां जिक्र करना जरूरी है:-

1. केशव की दादी जब जया के मायके उसकी शिकायत लगाने आती है और जया अपनी भड़ास वहां से गुजर रही महिलाओं को कसकर फटकार लगाकर निकलती है। भूमि ने कमाल कर दिया है।

2. केशव घर में टॉयलेट बनाता है तो पिता उसे तुड़वा देते हैं। इसके बाद केशव गुस्से में जिस तरह से अपने पिता व गांव वालों को झिंझोड़ता है, यह सीन देखने वाला है। गजब के डायलाग लिखे गए हैं।

3. जया के ताऊ जी (अनुपम खेर) जब केशव के पिता से मिलने उनके घर आते हैं। चंद संवादों में ही सारी बात कह देते हैं। अनुपम कहते हैं- अगर आप नहीं बदलोगे तो कुछ नहीं बदलेगा।


फिल्म की तारीफ इसलिए भी की जानी चाहिए क्योंकि यह गंभीरता का पुट न लेकर हास परिहास के अंदाज में अपनी बात कहती है। निर्देशक ने कठोर संदेश भी प्यार से दिए हैं और लोग सिनेमा में ठहाके ही लगाते रहते हैं। गीत संगीत भी बेहतरीन है। ‘हंस मत पगली प्यार हो जाएगा’ व ‘तू लट्ठमार’ (मशहूर वृंदावन की होली) बेहतरीन गीत हैं और फिल्म में जान फूंक देते हैं।

एक और बात फिल्म को स्पेशल बना देती है और वो हैं इसकी लोकेशंस। फिल्म बिल्कुल ओरिजनल लोकेशंस पर शूट की गई है और इसलिए दर्शक इससे बहुत ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं। कोई भी सीन स्टूडियो में नहीं फिल्माया गया है। यह ऐसी फिल्म है जिसे सभी राज्यों में टैक्स फ्री किया जाना चाहिए। अगर इस तरह की फिल्मों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचाया गया तो यह इसके साथ अन्याय होगा। पता नहीं हमारे देश में अच्छी फिल्मों को टैक्स फ्री करने का चलन क्यों कम होता जा रहा है? वो भी तब जबकि यह फिल्म यह भी कह देती है कि हमें हर चीज के लिए सरकारी तंत्र की मुंह नहीं तकना चाहिए। जब हम घर में टीवी, मोबाइल अपने पैसे से खरीद सकते हैं तो टायलेट क्यों नहीं बनवा सकते।

खैर अक्षय ने ऐसा प्रयास किया है कि इसे सराहा जाना चाहिए और अगर आप उन्हें उनकी मेहनत का फल देना चाहते हैं तो इस फिल्म को पूरे परिवार के साथ सिनेमा में जाकर देखें और अपना योगदान दें।

-हर्ष कुमार सिंह 

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Friday 4 August 2017

DEEP REVIEW : Jab Harry Met Sejal

शानदार अनुष्का शर्मा के लिए देखें 'जब हैरी मेट सेजल'

Ratings- 2*

शाहरुख खान ने 'जब हैरी मेट सेजल' के साथ ट्रैक बदलने की नाकाम कोशिश की है। माना कि शाहरुख रोमांटिक फिल्मों के बादशाह रहे हैं लेकिन 90 के दशक में। आज के दौर में जिस तरह की रोमांटिक फिल्में बन रही हैं उनमें शाहरुख फिट नहीं बैठते। इम्तियाज अली इससे पहले 'तमाशाÓ बना चुके हैं जो बिल्कुल इसी तरह के कथानक पर आधारित थी। पर उसमें नायक के रूप में रनबीर कपूर थे और वे इस तरह की फिल्मों के मास्टर हैं। इससे पहले रनबीर ने 'ये जवानी है दीवानी में' भी इसी तरह का किरदार निभाया था और वह ब्लॉक बस्टर साबित हुई थी। हालांकि 'तमाशा' उतनी नहीं चली थी लेकिन जिस तरह के युवा किरदार को रनबीर ने निभाया था वो लोगों को पसंद आया था।

शाहरुख खान 50 की उम्र पार कर चुके हैं और इस फिल्म में वे बिल्कुल नहीं जमे हैं। सब जानते हैं कि अनुष्का शर्मा ने अपने कैरियर की शुरूआत शाहरुख के साथ (रब ने बना दी जोड़ी) ही की थी लेकिन दोनों की जोड़ी पसंद की गई थी यश चोपड़ा की 'जब तक है जान में' । यश चोपड़ा की अंतिम फिल्म थी और उसमें शाहरुख ने एक मैच्योर किरदार निभाया था जिसके साथ कम उम्र की एक लड़की एकतरफा प्यार में पड़ जाती है लेकिन बाद में शाहरुख अपने असली प्यार (कैटरीना) के साथ चले जाते हैं। उस कहानी में शाहरुख खान बहुत जमे थे लेकिन 'जब हैरी मेट सेजल' में यूरोप की गलियों में बिंदास और युवा अनुष्का के साथ लड़कों वाली हरकतें करते हजम नहीं होते। शाहरुख ने 'रईस' में एक्शन के साथ झटका खाने के बाद कुछ नया करने की कोशिश की और इम्तियाज अली को बतौर निर्देशक भी लिया लेकिन सब कुछ गड़बड़ हो गया।
इम्तियाज अली जिस तरह की फिल्में बनाते हैं वे शाहरुख खान के लिए सही नहीं हैं। शाहरुख खान ने फिल्म के लिए अपने गेटअप को बदलने व युवा दिखने की नाकाम कोशिश की है। ओपन चेस्ट शर्ट पहनना, सीने पर बड़ा सा टैटू बनाना और बिगडै़ल युवकों की तरह हरकतें भी खूब की हैं लेकिन वे जमते नहीं इस रोल में। रही सही कसर पूरी कर दी कमजोर कहानी में। आज के दौर की 90 प्रतिशत फिल्मों की तरह यह फिल्म भी बिना कहानी के शुरू की गई लगती है।
एक लाइन की कहानी है। सेजल यूरोप में अपने मंगेतर के साथ सगाई करने आती है लेकिन अपनी रिंग खो देती है। मंगेतर नाराज होता है तो रिंग ढूंढने के लिए यूरोप में रुक जाती है और अपने गाइड हैरी के साथ उन सब जगहों पर जाती है जहां-जहां वह घूमते समय गई थी। खुद को बिंदास व बोल्ड लड़की दिखाने के लिए सेजल खुद को हैरी की गर्लफ्रेंड बना लेती है और दोनों करीब आ जाते हैं। सेजल यह सोचने लगती है कि काश उसकी अंगूठी न मिले और उसका व हैरी का सफर यूं ही चलता रहे। पर अंगूठी तो उसके अपने पर्स में ही मिल जाती है। अंत में वह भारत लौट आती है और शादी से इनकार कर देती है। हैरी उसे ढूंढता हुआ भारत आता है और इसके बाद हैप्पी एंड। दोनों शादी कर लेते हैं और हैरी अपने साथ सेजल को लेकर पंजाब लौट जाता है।
इस जरा सी कहानी में झोल ही झोल हैं। पंजाब वाला एंगल फिल्म में क्यों डाला गया है समझ से परे है। सपने में बार-बार शाहरुख को ंपंजाब क्यों दिखता था यह समझाने में निर्देशक विफल रहे हैं। जबकि दर्शक सोच रहा होता है कि शायद इसकी भी कोई कहानी होगी। ढाई घंटे लंबी इस फिल्म में इम्तियाज अली ने संगीत के जरिये रंग भरने की कोशिश की है। जहां भी कहानी आगे बढ़ती नजर नहीं आती वहीं पर एक गाना डाल दिया गया है। हालांकि गाने इतने छोटे-छोटे हैं कि जल्दी ही निकल जाते हैं लेकिन कोई भी ऐसा नहीं है कि जिसे आप याद रख सकें या बार-बार सुन सकें। जबकि इससे पहले इम्तियाज की फिल्मों में संगीत बहुत ही मजबूत पक्ष रहा है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि शाहरुख को इम्तियाज अली के साथ हर हाल में फिल्म करनी थी इसलिए कर ली। बिना कहानी के ही फिल्म शुरू हो गई, बन गई और रिलीज हो गई। संवाद भी संगीत की तरह ही कमजोर हैं। इस तरह की फिल्में संवादों के दम पर ही आगे बढ़ती हैं लेकिन यहां वह भी मिसिंग है। अभिनय के लिहाज से शाहरुख तो उम्दा हैं ही बस कमी यही है कि किरदार उन्हें सूट नहीं करता। अनुष्का शर्मा को तो मैं हमेशा बेहतरीन अदाकारा बताता रहा हूं। कैटरीना व प्रियंका से वे आगे निकल चुकी हैं। 'सुल्तान' जैसी फिल्म में भी अनुष्का ने अपनी उपस्थिति का अहसास करा दिया था। वे वर्तमान दौर की सबसे उम्दा अदाकारा हैं। उनमें ताजगी है और एक बिंदासपन है जो उन्हें करीना व दीपिका जैसी अभिनेत्रियों की श्रेणी में ला खड़ा करता है। यह अनुष्का ही हैं जो 'ऐ दिल है मुश्किल' व 'जब हैरी मेट सेजल' जैसी फिल्मों में भी दमदार काम करके दिखा देती हैं। मेरा मानना है कि यह फिल्म केवल अनुष्का के लिए तो देखी जा सकती है बाकी इसमें देखने लायक कुछ नहीं है।
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शाहरुख खान जब से निर्माता बने हैं तब से उनकी फिल्मों के स्तर में गिरावट आई है। आमिर खान व सलमान खान उनसे बेहतर इसलिए हैं क्योंकि वे कहानी चुनने के बाद फिल्म में हाथ डालते हैं जबकि शाहरुख के साथ ऐसा नहीं है। उन्हें अपने समकक्ष अक्षय कुमार से सीखना चाहिए जो एक से एक विविधता वाली कहानी चुनते हैं और एक से एक बेहतरीन फिल्म करते हैं।

- हर्ष कुमार सिंह 



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