Monday 26 February 2018

...और अभिशप्त रही इस 'चांदनी' के जीवन की रात

श्रीदेवी की मौत से सब इसलिए भी ज्यादा स्तब्ध हैं क्योंकि वे न तो बीमार थी और न ही खराब दौर से गुजर रही थीं। इन दिनों वे अपनी बेटी जहानवी के करियर को लेकर व्यस्त थीं। जहानवी की पहली फिल्म 'धड़क' जुलाई में रिलीज होने के लिए तैयार है। काम पूरा हो चुका है और शायद श्रीदेवी भी अपने बेटी को बड़ी स्क्रीन पर देखने के लिए बेचैन रही होंगी लेकिन ईश्वर ने उन्हें वह समय दिखाया ही नहीं। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा? यहां ये भी बता दूं कि बोनी कपूर की पहली पत्नी मोना भी अपने बेटे अर्जुन की पहली फिल्म की रिलीज तक जिंदा नहीं रही थी।

भले ही हम श्रीदेवी के जीवन की सतरंगी कहानियों को देखकर यह समझ रहे हों कि उनकी निजी जीवन बहुत ही सुखी रहा लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। श्रीदेवी के करियर में जब भी कोई महत्वपूर्ण समय आया उन्हें निजी जीवन में कठिन दौर से गुजरना पड़ा। जिस समय श्रीदेवी ने बोनी कपूर से शादी की थी तो उस समय बोनी की पहली पत्नी मोना शौरी कपूर  जिंदा थी। उन्होंने बीमारी के बाद 25 मार्च 2012 को दम तोड़ा। श्रीदेवी से शादी करने के लिए बोनी और मोना में 1996 में ही अलगाव हो गया था। उसी साल 2 जून को बोनी ने श्रीदेवी से शादी की थी। कहा जाता है कि दोनों ने शादी इसलिए की थी क्योंकि श्रीदेवी मां बनने वाली थी। शादी के ठीक 9 माह बाद जहानवी का जन्म हुआ था। कहा जाता है कि श्रीदेवी और बोनी की शादी बैकडेट में दिखाई गई जिससे की जहानवी के जन्म की अवधि को सही दिखाया जा सके। सब कुछ आनन-फानन में हुआ था।



बोनी कपूर की सास सत्ती शौरी, जो फिल्म निर्माता भी थीं, ने श्रीदेवी को लेकर 'फरिश्ते' जैसी मल्टीस्टारर फिल्म बनाई थी। इसमें विनोद खन्ना, रजनीकांत व धर्मेंद्र जैसे सितारे भी थे। सत्ती शौरी ने श्रीदेवी-बोनी की शादी के बाद कहा था कि वे श्रीदेवी को कभी माफ नहीं करेंगी। उन्होंने उनकी बेटी का घर तोड़ा है। अर्जुन कपूर ने कभी श्रीदेवी को अपनी मां नहीं माना। वे उनके पिता की दूसरी पत्नी मात्र थी। श्रीदेवी की दोनों बेटियां उन्हें भाई  मानती हैं लेकिन अर्जुन ने कभी उन्हें अपनी बहनें नहीं माना।

बोनी से पहले श्रीदेवी की शादी मिथुन चक्रवर्ती से भी होते-होते रह गई, लेकिन मिथुन अपनी पहली पत्नी योगिता बाली को छोडऩे के लिए तैयार नहीं हुए। कहा तो यह भी जाता है कि श्रीदेवी व मिथुन ने गुप्त शादी कर ली थी जो बाद में टूट गई। श्रीदेवी के दुर्भाग्य ने उनकी पीछा कभी नहीं छोड़ा। जब वे 'मि. इंडिया' की अपार सफलता के बाद बोनी कपूर की 'रूप की रानी चोरों का राजा' के लिए विदेश में शूटिंग कर रही थीं तो उनके पिता का निधन हो गया था। वे श्रीदेवी का घर बसता नहीं देख पाए। यही नहीं श्रीदेवी की छोटी बहन श्रीलता की शादी भी उनसे पहले हो गई थी और उनका भरा पूरा परिवार है। अगर श्रीदेवी की निजी जिंदगी को श्रापित जीवन कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
       
 - हर्ष कुमार सिंह

first published in Navodaya Times , 26 February 2018 



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Friday 9 February 2018

DEEP REVIEW : Padman

Rating: 5*
अक्षय कुमार को फिल्म नहीं एक क्रांति के लिए बधाई
“पुरस्कार मिले या न मिले लेकिन अविष्कार होता रहना चाहिए।"  फिल्म में यह डॉयलाग सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने बोला है। और यही फिल्म का सार है। “पैडमैन” उस क्रांति की कहानी कहती है जो अभी देश में शुरू हो रही है और जिसे अभी बहुत लंबा व महत्वपूर्ण सफर पूरा करना है। यह एक ऐसे विषय को बहुत ही सजगता, गंभीरता और डंके की चोट पर उठाती है जिसे अब तक देश में जरूरी विषय माना ही नहीं गया है। हालांकि हम सब पढ़े लिखे लोग पैड्स के महत्व को समझते हैं लेकिन हम भी उस समय बहुत चौंकते जाते हैं जब पता चलता है कि देश की केवल 18 प्रतिशत महिलाएं ही पैड्स का इस्तेमाल करती हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि पीरियड्स के दिनों को लेकर आज भी अनेक भ्रांतियां व अंधविश्वास प्रचलित हैं। उनकी तो कोई बात ही नहीं करता। यह फिल्म तो केवल पैड्स की कीमत के मसले को ही हल करने की कोशिश कर रही है जबकि समस्याएं तो इससे कहीं अधिक हैं। एक सत्यकथा से प्रेरित होकर ट्विंकल खन्ना ने अपने पति के सहयोग से फिल्म बनाई और क्या फिल्म बनाई है।

लक्ष्मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) को पत्नी गायत्री (राधिका अप्टे) को माहवारी के समय होने वाली दिक्कत का पता चलता है तो वह उसके लिए पैड्स खरीद लाता है। पर पैड इतने महंगे थे कि पत्नी स्वीकार करने से मना कर देती है और गंदा कपड़ा ही प्रयोग करना बेहतर समझती है। चौहान तमाम प्रयास करता है लेकिन सस्ते व सफल पैड नहीं बना पाता। महिलाओं से फीडबैक लेने के चक्कर में बदनाम अलग से हो जाता है। सब उसे चरित्रहीन समझने लगते हैं। बहनें व पत्नी साथ छोड़ देती हैं। मां भी अलग हो जाती है। चौहान सबकी नजर में गिर जाता है और अंत में सम्मान अर्जित करने के लिए घर से निकल लेता है। आखिरकार सफल होता है। सम्मान भी पाता है और ईनाम भी।
फिल्म की विषय जितना गंभीर था उसके लिहाज से आर बल्कि का निर्देशक के रूप में चुनाव एकदम सही है। “पा” और “की एंड का” जैसी संवेदनशील फिल्में बनाने वाले बल्कि ने फिल्म को बहुत ही शिद्दत से बनाया है। विषय से न भटकते हुए वे फिल्म के मूल तत्व को लगातार कहानी के प्रवाह में बनाए रखते हैं। चौहान का किरदार हर समय यही सोचता रहता है कि किस तरह सस्ते सेनेटरी पैड्स बनाए जाएं और यही लगन व इच्छा शक्ति फिल्म की जान है। अक्षय का किरदार दर्शकों के दिलों दिमाग पर इस तरह से छा जाता है कि वे कभी उसकी हरकतों पर हंसते हैं तो कभी तालियां बजाने पर मजबूर हो जाते हैं। पहला हाफ चौहान के संघर्ष की कहानी है तो दूसरे हाफ में उसके उत्कर्ष की दास्तान दिखाई गई है।
मध्यांतर के बाद कई दृश्यों में अक्षय ने कमाल कर दिया है। छोटे-छोटे सीन में उन्होंने अपने अभिनय की रेंज दिखाई है। न्यूयार्क में युनाइटेड नेशंस के दफ्तर में दी गई स्पीच फिल्म का सबसे बेहतरीन सीन है। अंग्रेजी बोलकर वे दिल को छू जाते हैं। इसके अलावा राधिका अप्टे से जुदा होने वाला सीन भी मार्मिक है। राधिका तो खैर हैं ही कमाल की अदाकारा। वे बेहद नेचुरल लगती हैं और किरदार में जीवंत नजर आती हैं। सोनम कपूर ने भी अपने रोल को बढ़िया निभाया है। पात्र के हिसाब से उनका चयन एकदम सही है।


फिल्म में गीत संगीत को केवल आवश्यकता के अनुरूप ही प्रयोग किया गया है और इसलिए फिल्म कहीं से बोझिल नहीं लगती। घटनाक्रम तेजी से घटता रहता है और दर्शक बोर नहीं होते। तकनीकी रूप से फिल्म बहुत ही मजबूत है और लोकेशंस एकदम रीयल होने के कारण बहुत ही मोहक नजर आती हैं। नर्मदा का किनारा और घाट, पुराने जमाने के मकान आदि सब कुछ मोहक लगता है। फिल्म के संवादों की भी तारीफ करनी होगी। एक सीन में सोनम के पिता अक्षय से बात करते हुए कहते हैं - मर्द होने का मजा अपने अंदर की औरत को जगा के ही आता है। यूएन में अक्षय कहते हैं- मैंने आईआईटी नहीं पढ़ी, आईआईटी ने मुझे पढ़ा। अनेक स्थान पर संवादों पर तालियां बजाने का मन करता है। कई स्थान पर व्यंग्य भी करारा है। दिखाया गया है कि महिलाओं को अपना पैड महंगा लगता है लेकिन भगवान को प्रसाद चढ़ाने के लिए वे फट से 51 रुपये दे देती है।

आप सेः

जिस विषय को फिल्म ने उठाया है वह किसी भी सरकारी एजेंडे में नहीं है। जिस तरह से देश में बालिकाओं के लिए हर स्कूल में शौचालय का अभियान प्रधानमंत्री ने चलवाया उसी प्रकार इस मसले को लेकर भी बड़े पैमाने पर काम किए जाने की जरूरत है। इस फिल्म को एक संपूर्ण पारिवारिक फिल्म कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हालांकि आप व हम सब पढ़े लिखे लोग हैं। हमारे घरों की महिलाएं पीरियड्स की जरूरतों व सेनेटरी पैड्स के प्रयोग को भली भांति समझती हैं लेकिन फिर भी हमें अपने बच्चों व खासतौर से बेटियों के साथ यह फिल्म देखनी चाहिए। जिससे कि वे भी समझ सकें कि हमारे देश में किस-किस तरह की समस्याओं से महिलाओं को गुजरना पड़ता है। हो सकता है फिल्म देखने के बाद आप या आपके बच्चे किसी ऐसे ही अभियान का हिस्सा बनने की प्रेरणा ले लें। इसलिए फिल्म को अवश्य देखें और परिवार के साथ देखें।

समीक्षकों सेः

फिल्म के कई रीव्यू मैंने पढ़े हैं। अच्छे व बुरे सभी प्रकार के। स्टार रेटिंग देने में बड़े-बड़े समीक्षकों ने कंजूसी की है। किसी ने भी 5 स्टार नहीं दिए। पता नहीं हमारे समीक्षकों ने 5 स्टार किस महान फिल्म के लिए बचाकर रखे हुए हैं? मैं फिल्म को 5 स्टार के लायक ही मानता हूं। अगर कोई सर्वश्रेष्ठ नहीं है तो फिर आपको जो उपलब्ध हैं उन्हीं में से बेहतर को चुनना चाहिए। पिछले कुछ साल में कई कमजोर व बेसिर पैर की फिल्मों को 4 स्टार दिए हैं हमारे महान समीक्षकों ने लेकिन “टायलेट एक प्रेम कथा” या “पैडमैन” जैसी फिल्म को देने में झिझक महसूस करते हैं। मेरे हिसाब से यह दोगलापन है। कुछ सराहना तो उस सोच की भी की जानी चाहिए जिसकी वजह से ऐसी फिल्में बनती हैं। अक्षय कुमार व टिवंकल, आप बधाई के पात्र हैं। ऐसी कुछ और फिल्में बनाएं।

- हर्ष कुमार सिंह