Friday 30 March 2018

DEEP REVIEW : Baaghi 2


टाइगर श्राफ को अब आप हल्के में ना लें
 
Rating: 3*
फिल्म कैसी है यह तो बाद में बताऊंगा लेकिन एक बात पहले ही साफ कर दूं कि इस फिल्म के बाद आप टाइगर श्राफ को हल्के में लेना बंद ही कर दें। टाइगर ने अब तक रिलीज हुई अपनी दोनों फिल्मों के मुकाबले इसमें बहुत सुधार दिखाया है। भले ही फिल्म के कुछ दृश्यों में उनसे सनी देयोल की नकल कराई गई हो लेकिन वह अपनी पहचान बनाने में सफल रहे हैं। इस फिल्म में वह काफी मैच्योर भी लगे हैं और कुछ सींस में इमोशंस भी अच्छे दिखाए हैं। उन्हें अब केवल अपनी डायलाग डिलीवरी पर ध्यान देने की जरूरत है। जब वे धीरे-धीरे संवाद बोलते हैं तो अच्छे लगते हैं लेकिन जब तेजी से चीखने की कोशिश करते हैं तो उनकी आवाज बच्चों जैसी लगने लगती है। वैसे यह फिल्म उनके करियर की सबसे बड़ी हिट फिल्म साबित होने जा रही है।
'बागी 2' एक आर्मी अफसर रणवीर प्रताप सिंह उर्फ रोनी (टाइगर) की कहानी है। उसकी पूर्व गर्लफ्रेंड नेहा (दिशा पटानी) उससे अपनी 3 साल की बेटी को बचाने की गुजारिश करती है, जिसका अपहरण कर लिया गया है। रोनी गोवा में तलाश शुरू करता है तो पता चलता है कि नेहा की कोई बेटी थी ही नहीं। उसका पति (दर्शन), पुलिस डीआईजी (मनोज वाजपेयी) आदि सभी यही कहते हैं कि वह किसी बीमारी से पीडि़त है और किसी दूसरे की बेटी को अपनी बेटी मान बैठी है यही नहीं रिया उसकी बेटी का नहीं बल्कि मां का नाम था। रोनी को भी इस पर यकीन होने लगता है और वह नेहा की मदद करने से इंकार कर देता है। इस पर निराश नेहा बिल्ंिडग से छलांग लगाकर अपनी जान दे देती है। नेहा की आत्महत्या से रोनी को लगता है कि वह शायद सही कह रही थी। जब वह और गहराई में जाता है तो परत दर परत केस खुलने लगता है और उसे पता चलता है कि नेहा की बेटी का अपहरण उसके पति व देवर (प्रतीक बब्बर) ने ही मिलकर किया था। इंटरवल के बाद कहानी मे कई मोड़ आते हैं और अंत में पता चलता है कि जिस बच्ची को बचाने के लिए नेहा उससे कह रही थी दरअसल वह तो रोनी और नेहा के प्यार की निशानी ही थी।

 फिल्म का कथानक काफी उलझा हुआ है लेकिन फिर भी आप समझने में सफल रहते हैं क्योंकि कुछ बातें बीच-बीच में फ्लैशबैक में दिखाकर साफ करने की कोशिश की गई है। हालांकि कहानी में बहुत से झोल भी हैं। सीसीटीवी कैमरे की फुटेज गायब कर देने वाला मामला कुछ ऐसा ही है। डीआईजी को ही अंत में सबसे बड़ी विलेन दिखा देना भी आसानी से हजम नहीं होता। ऐसी बहुत सी गुत्थियां हैं जिन्हें सुलझाने की कोशिश निर्देशक ने नहीं की हैं।


गीत संगीत तो जैसे फिल्म की स्पीड को बाधित करने के लिए ही आता है। केवल एक गीत- 'साथी तेरे बिनाÓ ही अच्छा लगता है। दूसरे हाफ में जबरन ठूंसा गया जैकलीन फर्नांडीज का आइटम नंबर 'एक दो तीनÓ बिल्कुल भी नहीं भाता। न सुनने में अच्छा लगता है ना देखने में। इस समय बालीवुड की सबसे सुंदर हिरोइनों में से एक जैकलीन को इस गाने में वेस्ट किया गया है। एक बात और जैकलीन के लिए कहना चाहूंगा। उन्हें अपनी फिटनेस पर इतना ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए। इस डांस में जिस तरह से उनकी बॉडी मसल्स व बायसप्स नजर आते हैं वे एक नाजुक नृत्यांगना कम बॉडी बिल्डर ज्यादा नजर आती हैं। उन्हें ज्यादा जिम नहीं करना चाहिए। उनकी सुंदरता में नाज ओ अदा कम बल्कि कठोरता ज्यादा दिखने लगी है।

एक्टिंग के लिहाज से टाइगर ने बेहतरीन काम किया है। वे अब धीरे-धीरे बड़ा स्टार बनने की ओर बढ़ रहे हैं। एक्शन सींस में तो टाइगर जान डाल ही देते हैं और हर तरह के एक्शन में सहज भी नजर आते हैं लेकिन फिल्म के क्लाइमैक्स में जिस तरह उन्हें सैकड़ों लोगों से अकेले लड़ते दिखा दिया गया है उसे देखकर आपकी हंसी भी निकल सकती है। 'घायल ' के सनी देयोल के लाकअप वाले सीन को हू ब हू कापी करने की वजह मेरी समझ में नहीं आई?

दिशा पटानी का फ्यूचर अच्छा है लेकिन उन्हें अच्छे रोल चुनने होंगे। अपनी पहली दोनों ही फिल्मों में वे इंटरवल से पहले मर जाती हैं। उन्हें ऐसी बातों को ध्यान रखना होगा। उनमें बड़ी स्टार बनने की तमाम संभावनाएं हैं। मनोज वाजपेयी, रणदीप हुड्डा ने अपना काम ठीक-ठाक किया है। दीपक डोबरियाल तो खैर अच्छे कलाकार हैं ही लेकिन प्रतीक बब्बर को ऐसा घटिया रोल करते देख दुख हुआ है। इस तरह के एक दो रोल और उन्होंने किए तो वे बरबाद हो जाएंगे। अरे हां, निर्देशक के बारे में तो बताना भूल ही गया। डांस डायरेक्टर अहमद खान इसके निर्देशक हैं और उन्होंने अच्छा काम किया है।
कुल मिलाकर 'बागी 2' एक एक्शन से भरपूर फिल्म है। इसे मनोरंजन के लिए देखा जा सकता है।

- हर्ष कुमार सिंह 
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Friday 16 March 2018

DEEP REVIEW : Raid


अजय देवगन की अच्छी फिल्में में से एक है 'रेड', जरूर देखें  

Rating 4*

अजय देवगन अपने कैरियर में दो तरह की फिल्में करते रहे हैं। एक तो हैं 'एक्शन जैक्सन', 'सिंघम', 'बादशाहो' और 'शिवाय' जैसी और दूसरी हैं 'जख्म', 'गंगाजल' और 'दृश्यम' जैसी। ये दूसरी वाली कैटेगरी की फिल्म है। 'रेड' में अजय देवगन ने एक परिपक्व रोल किया है जो उम्र के हिसाब से उन पर फिट बैठता है। फिल्म बांधकर रखती है। यदि आपको बेहतर कहानी, संवाद और थोड़ी सी यथार्थवादी फिल्में पंसद आती हैं तो यह आपके लिए है, लेकिन यदि आप वीकेंड पर फैमिली के साथ मनोरंजन से भरपूर मसला फिल्म देखने के मूड में रहते हैं तो फिर यह फिल्म आपके लिए नहीं है। बच्चों के लिए फिल्म में कुछ नहीं है। न गीत संगीत न कॉमेडी और न नाच गाना।
फिल्म जिस अंदाज में बनाई गई है यह आपको नीरज पांडे की 'स्पेशल 26' की याद दिलाती है। हालांकि यह उसके स्तर की फिल्म नहीं बन पाई। इसके बावजूद यह एक अच्छी फिल्म है। विषय एकदम नया है और इस तरह की कहानी अब तक हिंदी फिल्मों में नहीं दिखाई गई है। छोटे से घटनाक्रम को दो घंटे की फिल्म में बहुत ही संजीदा अंदाज में पेश किया गया है। जिन लोगों का देश की समस्याओं व ज्वलंत मुददों से सरोकार है उन्हें इसमें मजा आएगा।

कहानी 1981 की है जो लखनऊ में हुई एक सच्ची घटना पर आधारित है। अमय पटनायक (अजय देवगन) आयकर विभाग के अफसर हैं और ईमानदारी की वजह से बार-बार उनका तबादला होता रहता है। इस बात से उनकी पत्नी मालिनी (इलियाना डि क्रूज) परेशान भी रहती है। लखनऊ आकर वह एक दबंग सांसद रामेश्वर सिंह (सौरभ शुक्ला) से भिड़ जाते हैं। उन्हें गुप्त सूचना मिलती है कि सांसद महोदय के पास 400 करोड़ की ब्लैक मनी है। टैक्स चोरी व बेनामी संपत्ति भी है। अजय वहां रेड डालने की योजना बनाते हैं। पूरी फिल्म इसी रेड पर आधारित है। रेड चलती रहती है। अजय अपने फर्ज पर डटे रहते हैं। सौरभ रेड रुकवाने के लिए प्रधानमंत्री तक पहुंच जाते हैं, लेकिन अजय अपना फर्ज निभाते हैं और जान की बाजी लगाकर सच्चाई तक पहुंचने में सफल रहते हैं। फिल्म में अंत में उस सस्पेंस का भी खुलासा किया जाता है कि ये सूचना अजय को किसने दी थी।
फिल्म के निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने इससे पहले नो वन किल्ड जेसिका, आमिर जैसी फिल्में बनाई हैं। इसलिए वे जानते हैं कि सत्य कहानी को कैसे फिल्माया जाता है। फिल्म कई हिस्सों में अपना प्रभाव छोड़ती है। फिल्म में पहले ही सीन में अजय देवगन व सौरभ की मुलाकात एक पार्टी में दिखाई गई है। इसमें अजय की ईमानदारी को जिस तरह से स्थापित किया गया है वह फिल्म का टेंपो सेट कर देता है। इसी सीन की वजह से अमय पटनायक का किरदार बड़ा व मजबूत लगने लगता है। एक अन्य सीन-जब अजय मंदिर जाने की बात कहते हैं तो इलियाना कहती हैं कि तुम तो नास्तिक हो, भारत माता के अलावा किसी को मानते ही नहीं? यह दृश्य फिल्म में अच्छे संवाद होने की गवाही देता है।
रेड के दौरान वैसे तो कई दिलचस्प मौके आते हैं लेकिन मुझे तो फिल्म में सबसे ज्यादातर मजेदार सीन वे लगे जिनमें सौरभ शुक्ला की बुजुर्ग मां आती हैं। इस रोल को निभानी वाली वृद्ध महिला ने कमाल कर दिया है। फिल्म में टर्निंग प्वाइंट लाने के साथ-साथ वे दर्शकों का अच्छा खासा मनोरंजन भी करती हैं। फिल्म का क्लाईमैक्स अच्छा फिल्माया गया है जिसमें सारी जनता सांसद के समर्थन में एकत्र होकर हमला बोल देती है और अजय अपने सभी साथी अफसरों को वहां से भगाकर खुद मुकाबला करने की ठान लेते हैं।
इलियाना डि क्रूज इससे पहले अजय के साथ बादशाहो में भी आई थी और बड़े ही ग्लैमरस अवतार में थी। रेड में वे एकदम साधारण महिला के रूप में आई हैं लेकिन बादशाहो से ज्यादा सुंदर लगी हैं। अभिनय भी उन्होंने ठीक-ठाक किया है। अजय और सौरभ तो हैं ही मंजे हुए कलाकार।

इस फिल्म को देखकर मेरा मन अजय देवगन को एक सलाह देने का भी हो रहा है। उनके बारे में अक्सर कहा जाता है कि उन्हें अच्छी कहानियों की समझ नहीं है। अगर वे इसी तरह की कुछ और फिल्में और कर लें तो लोगों की यह गलतफहमी दूर हो जाएगी। शाहरुख खान को भी कुछ ऐसी फिल्में करनी चाहिएं। आमिर व अक्षय तो लगातार ऐसा कर ही रहे हैं। 

-   हर्ष कुमार सिंह



Tuesday 6 March 2018

DEEP REVIEW : Sonu Ke Titu Ki Sweety

खूबसूरत नुसरत भरूचा के लिए देख सकते हैं  'सोनू के टीटू की स्वीटी'

 Rating - 2*

मेरी आदत है कि जो फिल्म देखने के लायक लगती है वही देखने जाता हूं। कहने का मतलब यह है कि फिल्म की प्रोडक्शन वैल्यू आदि ऐसी लगनी चाहिए कि वह कुछ अलग है या फिर बड़ी फिल्म है, स्टार कास्ट व निर्देशक के लिहाज से। इसके अलावा कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें उनके बाक्स आफिस पर अनपेक्षित रूप से सफल हो जाने के बाद देखता हूं। पहले भी कई बार ऐसा हुआ है। एक या दो हफ्ते बाद रीव्यू करने का कोई मतलब नहीं रह जाता इसलिए समीक्षा नहीं करता हूं। ऐसा कई बार हुआ है जैसे- ‘गोलमाल अगेन’, ‘करीब करीब सिंगल’, ‘सीक्रेट सुपर स्टार’ आदि फिल्में बाद में देखीं लेकिन ऐसा कुछ नहीं लगा कि उनकी समीक्षा करूं। दो साल पहले ‘की एंड का’ को भी दो सप्ताह बाद देखा था और समीक्षा करने से रह नहीं पाया था। फिल्म कामयाब भी थी और बेहतरीन भी। ‘की एंड का’ के रीव्यू को हजारों लोगों ने पढ़ा था दो सप्ताह बाद भी।

पिछले हफ्ते रिलीज हुई ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ की जहां भी देख रहा था तारीफ हो रही थी। रीव्यू भी अच्छे-अच्छे आ रहे हैं। बाक्स आफिस पर दो हफ्ते का कलेक्शन शानदार हुआ है सोचा देख ही लूं कहीं अच्छी फिल्म मिस न कर दूं। इस फिल्म को अब तक न देखने के पीछे एक वजह यह भी थी कि ‘प्यार का पंचनामा’ की टीम की फिल्म थी यह। ‘प्यार का पंचनामा’ को जरा भी झेल नहीं पाया था। कुल मिलाकर फिल्म देखने की बिल्कुल मन नहीं था। केवल इसकी बाक्स आफिस सफलता की वजह से देखा और पाया कि फिल्म को एक बार देखने में कोई बुराई नहीं है।

इस फिल्म के सफल होने की सबसे बड़ी वजह यह नजर आ रही है कि इस समय बाजार में आ रही फिल्मों का स्तर बहुत ही खराब है। फिल्मों में कहानी और अभिनय का अभाव है। संगीत का स्तर बेहद खराब हो गया है। ऐसे में थोड़ी सी काम चलाऊ फिल्म भी आ जाती है तो वीकेंड पर फिल्म देखने के आदि हो चुके मल्टीप्लेक्स के दर्शक उसे देख ही लेते हैं। कुछ ऐसा ही ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ के साथ भी हुआ है। फिल्म अपने हास्य के कारण दर्शकों को गुदगुदा रही है और इसलिए पसंद की जा रही है।
कहानी तो इसकी एक लाइन की है। सोनू (कार्तिक आर्यन) का दोस्त टीटू (सन्नी सिंह) जिस लड़की स्वीटी (नुसरत भरूचा) के साथ शादी करने वाला है उसे सोनू बिल्कुल पसंद नहीं करता। सोनू को लगता है कि लड़की कुछ ज्यादा ही परफेक्ट बनने की कोशिश कर रही है इसलिए वह ठीक नहीं है । बस सोनू और स्वीटी में ठन जाती है दोनों में जंग शुरू हो जाती है। जीत किसकी होती है यह फिल्म में देखिए। हालांकि यह कहीं भी तार्किक रूप से स्थापित नहीं हो सका कि आखिर स्वीटी में खराबी क्या थी ? निर्देशक ने स्वीटी को गलत दिखाने के लिए इंटरवल से ठीक पहले उसी के मुंह से कहलवाया कि वह चालू है। लेकिन चालू कैसे है यह कहीं साबित नहीं हो पाया।


कार्तिक औसत अभिनेता हैं लेकिन स्क्रीन पर हैंडसम नजर आते हैं। उनके डायलाग बहुत ही चुटीले हैं इसलिए वे सबको पसंद आते हैं। सन्नी साधारण हैं और ऐसा ही रोल उनको मिला है। अलबत्ता नुसरत में बड़ी स्टार बनने के तमाम लक्षण मौजूद हैं। वे बेहद खूबसूरत नजर आती हैं और उन्हें स्क्रीन पर देखना अच्छा लगता है। अगर उन्हें अच्छा ब्रेक मिला तो वे कैटरीना कैफ को पानी पिला सकती हैं। संगीत तो ऐसा है कि सिनेमा से बाहर निकलते ही भूल जाता है। हंस राज हंस के हिट गीत ‘दिल चोरी साड्डा हो गया’ को नए अवतार में पेश किया गया है जो अच्छा लगता है इसके अलावा संगीत के नाम पर कुछ खास नहीं है। हमेशा शराब पीते रहने वाले जीजा-साले के रोल में आलोकनाथ व वीरेंद्र सक्सेना खूब जमते हैं। बाकी कलाकारों का काम भी ठीक ठाक है।

फिल्म का पहला काम मनोरंजन देना होता है और यह फिल्म कम से कम एक बार तो ऐसा करने में सफल रहती ही है। आप इसे परिवार के साथ देख सकते हैं। ज्यादा दिमाग लगाना नहीं है बस फिल्म देखकर घर आ जाना है।

- हर्ष कुमार सिंह