Thursday 18 October 2018

DEEP REVIEW : Badhaai Ho

फिल्म को देखकर कुछ साल पहले आई 'दो दूनी चार' की याद आ जाती है जिसमें ऋषि कपूर व नीतू सिंह ने एक मिडिल क्लास परिवार की कहानी को जीया था। इस तरह की फिल्में सपरिवार देखने में मजा आता है। आपको रिश्तों की कद्र करने का मतलब समझ आ जाएगा। जाइए और फिल्म जरूर देखकर आइए। अच्छा समय बीतेगा आपका।

Rating 3* (edited : rating 5*)

'बधाई हो', फिल्म की पूरी टीम को ऐसी फिल्म बनाने के लिए बधाई। बॉलीवुड के एक बड़े फिल्मकार ने पिछले दिनों कहा था कि इंडस्ट्री में अच्छी कहानियों का अकाल है। उनकी बात सही है। साल में रिलीज होने वाली 100-150 फिल्मों में से 4-5 फिल्में ही ऐसी होती होंगी जिनमें पहले कहानी फाइनल की जाती होगी। बड़े बैनर तो पहले स्टार कास्ट व प्रोजेक्ट के सभी पहलू फाइनल कर लेते हैं और फिर फिल्म शुरू करते हैं। लेकिन जिन 4-5 फिल्मों की मैं बात कर रहा हूं उन्हें देखने के बाद यह साफ हो जाता है कि उनकी कहानी पहले फाइनल हुई। इस साल रिलीज हुई 'अक्टूबर', 'अंधाधुंन' और अब 'बधाई हो' जैसी फिल्में उन्हीं में से हैं। इसके उलट इसी सप्ताह रिलीज हुई दूसरी फिल्म 'नमस्ते इंग्लैंड' प्रोजेक्ट वाली फिल्म है। उसके निर्माता निर्देशक ने पहले सीक्वल (नमस्ते लंदन का) बनाने का फैसला किया और फिर कहानी गढ़ी। शायद स्टारकास्ट भी पहले ही तय हो गई होगी। पर 'बधाई हो' में ऐसा कुछ नहीं है। पहले कहानी चुनी गई फिर स्टारकास्ट। यही इस फिल्म को दूसरों से अलग बना देता है।
फिल्म असाधारण भले ही नहीं है लेकिन एक बार देखने में बिल्कुल भी बुरी नहीं है। आप हंसते हैं, खुशी मनाते हैं और भावुक भी होते हैं। बस एक फेमिली फिल्म में इससे ज्यादा और क्या चाहिए? जितेंद्र कौशिक उर्फ जीतू (गजराज राव) रेलवे में टीटी है और पत्नी प्रियंवदा उर्फ बबली (नीना गुप्ता) से बहुत प्यार करता है। दोनों ही 50 पार कर चुके हैं। बड़ा बेटा नकुल (आयुष्मान खुराना) जवान है और एक बड़ी कंपनी में नौकरी करता है। कंपनी में साथ ही काम करने वाली रेने (सान्या मल्होत्रा) से प्यार करता है। जीतू का छोटा बेटा भी 12वीं में पढ़ रहा है। जीतू मिडिल क्लास परिवारों की तरह एक आदर्श व्यक्ति है और अपनी मां (सुरेखा सीकरी) का बेहद सम्मान करता है। आम घरों की तरह यहां भी सास बहू में बिल्कुल नहीं बनती। इसके बावजूद सब एक दूसरे से प्यार बहुत करते हैं।

घर में उस समय भूचाल आ जाता है जब पता चलता है कि प्रियंवदा गर्भवती हो गई है। गर्भ 19 सप्ताह का हो चुका है और उसे गिराने में खतरा भी है। प्रियंवदा फैसला करती है कि वह बच्चे को जन्म देगी। दोनों बेटे इस खबर से नाराज हो जाते हैं और मां-बाप से बात करना भी बंद कर देते हैं। मां भी नाराज होती है कि यह कोई उम्र है बच्चे पैदा करने की? सामाजिक रूप से भी परिवार को उपहास झेलना पड़ता है। रेने की मां (शीबा चड्ढा), जो कि नकुल को पसंद करती है लेकिन, उसकी मां के गर्भवती होने की खबर सुनकर नाराज हो जाती है। उसका मानना था कि यह जहालत का प्रतीक है और ऐसे घर में रेने कभी खुश नहीं रह सकेगी। इस बात से नकुल को झटका लगता है। वह अपने परिवार की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर पाता। जीतेंद्र की मां भी प्रियंवदा के समर्थन में उठ खड़ी होती है। अंत में सब कुछ ठीक हो जाता है और घर में एक बेटी का आगमन होता है। नकुल व रेने की शादी के साथ फिल्म खत्म होती है।
फिल्म की कहानी बढिय़ा है और स्क्रीन प्ले भी अच्छा लिखा गया है। कहानी पूरी तरह से दिल्ली में केंद्रित है। वेस्ट यूपी के खतौली व मेरठ का भी जिक्र आता है और जीतू के परिवार की भाषा शैली भी वेस्ट यूपी की दिखाई गई है। इस क्षेत्र के लोगों को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। पहला हाफ तो हास्य से भरपूर है। इंटरवल के बाद कुछ इमोशनल सीन हैं। निर्देशक अमित रवींद्रनाथ शर्मा को इस इलाके व इस तरह की भाषा व परिवारों की अच्छी खासी जानकारी है इसलिए फिल्म बहुत ही जीवंत बन पड़ी है। सुरेखा सीकरी ने तो बुजुर्ग मां के रोल को एकदम जीवंत कर दिया है। गजराज राव व नीना गुप्ता ने भी शानदार काम किया है। आयुष्मान खुराना व सान्या मल्होत्रा की जोड़ी प्यारी लगती है। बाकी लोगों ने भी काम अच्छा किया है।
संगीतकार तीन-तीन हैं लेकिन गीत बस फिल्म देखते समय ही अच्छे लगते हैं। कोई हिट गीत नहीं बन पाया। दिल्ली की लोकेशंस को बढिया तरीके से शूट किया गया है और तकनीकी पहलू अच्छे हैं। फिल्म को देखकर कुछ साल पहले आई 'दो दूनी चार' की याद आ जाती है जिसमें ऋषि कपूर व नीतू सिंह ने एक मिडिल क्लास परिवार की कहानी को जीया था। इस तरह की फिल्में सपरिवार देखने में मजा आता है। आपको रिश्तों की कद्र करने का मतलब समझ आ जाएगा। जाइए और फिल्म जरूर देखकर आइए। अच्छा समय बीतेगा आपका।

- हर्ष कुमार सिंह  

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Friday 5 October 2018

DEEP REVIEW : Andhadhun

कहानी व स्क्रीन प्ले इतना जबर्दस्त है कि कब फिल्म शुरू होती है और कब खत्म आपको पता ही नहीं चलता। आखिरी सीन में जब आयुष्मान सड़क पर पड़े एक टिन को ठोकर मारता है तो दर्शकों के मुंह से वाह निकल जाता है और सबका चेहरा खिल उठता है।
Rating 5*

 

फिल्म का पहला सीन है-एक गोभी के खेत में खरगोश व चौकीदार के बीच लुका छिपी चल रही है। खेत का मालिक हाथ में बंदूक लिए खेत में घूम रहा है और खरगोश को ढूंढ रहा है क्योंकि खरगोश ने गोभियों को कुतर-कुतरकर फसल चौपट कर दी है। मालिक खरगोश को गोली से मारना चाहता है। जैसे ही वह निशाने पर आता है तो गोली दाग देता है। खरगोश का क्या हुआ? कुछ नहीं पता। इस सीन से शुरूआत क्यों की गई यह कोई नहीं बता पाता और जब फिल्म आगे बढ़ती है तो लोग ये भी भूल जाते हैं कि पहला सीन क्या था। बाद में क्लाईमैक्स के समय अचानक यह सीन फिर से आता है और तब पता चलता है कि इस सीन का क्या महत्व है।

यह तो केवल एक सीन है। अगर आप फिल्म देख लेंगे तो हर सीन आपको इसी तरह दिलचस्प लगेगा। अगले सीन में क्या घटित होने वाला है इसका आकलन तो आप लगाएंगे लेकिन जो होगा वो आपकी कल्पना से भी परे होगा। यही इस फिल्म की खूबसूरती है जो इसे दूसरों से अलग करती है।  बहुत लंबे अर्से बाद ऐसी फिल्म आई है। इससे पहले श्रीराम राघवन ने एक हसीना थी (2004), जॉनी गद्दार (2007), एजेंट विनोद (2015) व बदलापुर (2018) जैसी फिल्में बनाई हैं। जॉनी गद्दार इन सब में मेरी फेवरेट है और अब अंधाधुन ने मुझे उनका कायल बना दिया है।

 सस्पेंस-थ्रिलर फिल्मों की कहानी बताना सबसे बड़ा गुनाह है। पर अगर मैं आपको इसकी कहानी बता दूं तो और कहीं भी बीच में छोड़ दूं तो आप जड़ तक पहुंच नहीं पाएंगे ये मेरा दावा है। फिल्म में हर सीन के बाद एक मोड़ आता है और बेहद रोमांचक तरीके से क्लाइमैक्स की ओर बढ़ती है। कहानी इस तरह है- आकाश (आयुष्मान खुराना) एक संगीतकार है और अंधा होने का नाटक करता है। इसका उसे फायदा भी मिलता है। गर्लफ्रेंड सोफी (राधिका आप्टे) उसे अपने पापा के होटल में प्यानो बजाने का काम दिला देती है। वहीं आकाश के संपर्क में आते हैं सत्तर के दशक के स्टार प्रमोद सिन्हा (अनिल धवन)। अनिल ने अनिल धवन को ही प्ले किया है बस फिल्मी नाम प्रमोद सिन्हा शायद 70 के दशक के प्रसिद्ध निर्देशक प्रमोद चक्रवर्ती व शत्रुघ्न सिन्हा के नामों का कांबिनेशन कर दिया गया है। प्रमोद की जवान बीवी सिमी (तब्बु) बहुत ही बिंदास है और उसे प्यार से पैमी बुलाती है। प्रमोद सिन्हा से मिलने के बाद ही आकाश की जिंदगी बदल जाती है। आकाश की आंखों के सामने ही एक हत्या होती है और वह अंधा होने के कारण पुलिस को यह सब बता भी नहीं पाता है। उसे डर है कि कहीं उसकी पोल न खुल जाए। इसी चक्कर में वह जाल में फंसता जाता है। अंत में वह कैसे तमाम कुचक्रों से बचकर निकलने में कामयाब होता है यही फिल्म है। अंत में वह हीरो बनकर उभरता है।


कहानी व स्क्रीन प्ले इतना जबर्दस्त है कि कब फिल्म शुरू होती है और कब खत्म आपको पता ही नहीं चलता। आखिरी सीन में जब आयुष्मान सड़क पर पड़े एक टिन को ठोकर मारता है तो दर्शकों के मुंह से वाह निकल जाता है और सबका चेहरा खिल उठता है। इसके लिए श्रीराम राघवन को जितनी भी बधाई दी जाए कम है। उन्होंने साबित कर दिया है कि अगर निर्देशक अपने हाथ में लेखन की भी कमान रखे तो वह करिश्मा कर सकता है।

अभिनय की बात करें तो आयुष्मान के जीवन की ये सबसे बेहतर फिल्म है। वे हर फिल्म में लूजर की भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन यहां वे विजेता बनकर उभरे हैं। तब्बू तो निगेटिव किरदार निभाने में विशेषज्ञता हासिल कर चुकी हैं। उन्हें कोई भी अटपटा सा रोल दे दीजिए वे उसमें जान डाल देती हैं। उनका व्यक्तित्व किरदार के हिसाब से जिस तरह ढल जाता है यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। राधिका आप्टे का रोल कोई खास नहीं है लेकिन जितना भी है वे उसमें जमती हैं। एक मॉडर्न लड़की के रोल को उन्होंने बखूबी निभाया है। डॉ. स्वामी के रोल में जाकिर हुसैन व इंस्पेक्टर मनोहर के रूप में मानव विज ने भी गजब की एक्टिंग की है।

संगीत की इसमें ज्यादा गुंजाइश नहीं थी लेकिन जो भी दो तीन गीत हैं मधुर हैं। अलबत्ता मुझे तो अनिल धवन की फिल्मों के गीतों (तेरी गलियों में न रखेंगे, ये जीवन है आदि) की प्यानो पर बजाई गई धुनें ही रोमांचित कर देती हैं।  कुल मिलाकर ये एक टॉप क्लास फिल्म है और अगर आप बढिय़ा फिल्म देखना चाहते हैं तो ये फिल्म आपके लिए है। जाइये और सपरिवार देखिए। बच्चे भी आपको धन्यवाद देंगे को क्या फिल्म दिखाई थी आपने।

- हर्ष कुमार सिंह