Friday 11 May 2018

DEEP REVIEW : Raazi

Rating- 4*
आलिया भट्ट बालीवुड की सबसे प्रतिभाशाली अभिनेत्री हैं ये तो सब जानते हैं लेकिन वे अभिनय को इन बुलंदियों पर भी ले जा सकती हैं यह नहीं सोचा था। इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत तो यही है कि आलिया भट्ट ने किरदार में ढल जाने की कला को नए आयाम दे दिए हैं। उन्हें आप अमिताभ बच्चन, रेखा, श्रीदेवी या फिर स्मिता पाटिल जैसे सर्वकालीन महान कलाकारों की श्रेणी में अब रख सकते हैं। आलिया ( Alia Bhatt ) को सादगी में भी सुंदर लगना आता है। और वे लगी हैं। बिना किसी मेकअप के भी वे किरदार की खाल में घुस सकती हैं यह तो वे 'हाईवे' व 'उड़ता पंजाब' में दिखा ही चुकी हैं। यह फिल्म पूरी तरह से आलिया भट्ट की फिल्म है। उनके अभिनय की रेंज के सामने मेघना गुलजार का निर्देशन, गुलजार साहब के लिखे सारगर्भित गीत और लंबे अरसे के बाद शंकर अहसान लॉय द्वारा दिया गया मधुर संगीत, सब कुछ पीछे रह जाते हैं।
मेघना गुलजार ( (Meghna Gulzar) की यह दूसरी फिल्म है। बरसों पहले उन्होंने 'फिलहाल' बनाई थी जो अपने विषय के कारण ही चर्चाओं में रही थी। इस बार भी उन्होंने विषय बढिय़ा चुना है। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के काल को केंद्र में रखकर बुने गए इस कथानक में रोमांच है जो आपको अंतिम सीन तक बांधे रखता है। कई स्थान पर दर्शक अनुमान लगाने लगते हैं कि शायद फिल्म का अंत यह होगा या वो होगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता और फिल्म अपने निर्धारित अंत पर जाकर खत्म हो जाती है। फिल्म के विदाई गीत में गुलजार साहब ने लिखा है- कट चुकी फसलें फिर आती नहीं हैं, विदा हो चुकी बेटियां लौटकर आती नहीं हैं। फिल्म में आलिया भट्ट कहती हैं कि क्या देश पर मर मिटने का जज्बा बेटों में ही होता है? क्या उन्हें ही यह हक है? इसी थीम को लेकर फिल्म चलती है।

कहानी ज्यादा तफ्सील से बताऊंगा तो आपका फिल्म देखने का मजा खराब हो जाएगा। बस इतना बता देता हूं कि सेहमत खान (आलिया) पाकिस्तान में काम करने वाले एक भारतीय जासूस की बेटी है। जो पिता का अधूरा काम करने का जिम्मा लेती है और उसे पूरा करती है। सेहमत का शादी पाकिस्तान के एक बड़े आर्मी अफसर के बेटे से कराई जाती है। इस तरह वह भारत को पाकिस्तान के सारे राज बताती रहेगी। उसे पूरी तरह ट्रेनिंग भी दी जाती है। बस यही कहानी है। वह कैसे अपना काम करती है और किस तरह सारी मुश्किल घडिय़ों से निकलती है यही फिल्म का कहानी व रोमांच है।
फिल्म में आलिया के अभिनय के सामने और किसी कलाकार की उपस्थिति नजर नहीं आती। हालांकि सभी ने काम बढिय़ा किया है लेकिन हर किरदार के लिए कलाकार ऐसे चुने गए हैं जो याद नहीं रहते। उदाहरण के तौर पर आलिया के पति के रोल में विकी कौशल हैं जिन्हें ज्यादा लोग नहीं जानते। आलिया के पिता के रोल में रजित कपूर हैं लेकिन उनका पात्र इंटरवल से पहले ही मर जाता है। आलिया की मां के रोल में उनकी रीयल मां सोनी राजदान एकदम परफेक्ट हैं। इसके अलावा जयदीप अहलावत (खालिद मीर), अमृता खानविलकर (मुनिरा) ने अपने किरदार बखूबी निभाए हैं।
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पता है फिल्म की असली जान है क्या है? इसकी रीयल लोकेशंस। जिस गंदे टायलेट में आलिया कपडे बदलते है या छतरी को ठिकाने लगाती है वह एकदम वास्तविक लगती है। कश्मीर के शॉट खूबसूरत हैं। हालांकि पाकिस्तान की शूटिंग नहीं की गई लेकिन जिन पुराने बंगलों में वे हिस्से शूट किए गए हैं वे काफी हद तक वास्तविक लगते हैं। कुछ खामियां भी हैं पर उन्हें नजर अंदाज किया जा सकता है। जैसे- आलिया का घर में ट्रांसमिशन सेटअप लगाने का किसी को पता नहीं चलता? घर पर लगी तारें भी किसी को नहीं दिखी? इतने बड़े आर्मी अफसर के घर पर रात में कोई गार्ड ही तैनात नहीं? ऐसी कई गलतियां हो गई हैं निर्देशक से।

लंबे समय बाद किसी फिल्म में संगीत मधुर लगा है। तीन ही गीत हैं और सभी कर्णप्रिय हैं। गुलजार साहब के बोलों का तो कोई तोड़ ही नहीं। ए वतन , राजी और दिलबरो फिल्म में सुनने में भी अच्छे लगते हैं और देखने में भी।

रीमेक और पार्ट 1, 2 व 3 के इस दौर में इस तरह की फिल्में कम बनती हैं इसलिए जाइए और इसे परिवार के साथ देखकर आइए।



-हर्ष कुमार सिंह
 (Harsh Kumar )

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Friday 4 May 2018

DEEP REVIEW : 102 Not Out

Rating- 2*

'ओ माय गॉड' जैसी बेहतरीन फिल्म बनाकर सुर्खियों में आए उमेश शुक्ला की यह फिल्म अमिताभ बच्चन व ऋषि कपूर जैसे शानदार कलाकारों के लंबे अरसे बाद एक साथ आने की वजह से आप देख जरूर सकते हैं लेकिन आपको लगेगा कि आपके पैसे वसूल नहीं हुए। फिल्म ईमानदारी से अपनी बात जरूर कहती है लेकिन यह एक ऐसे वर्ग को छूने का प्रयास करती है जिसकी संख्या देश में बहुत कम है। हमारे समाज में बुजुर्गों की समस्याओं को समझाने के लिए पहले भी 'बागबां', 'पीकू' और ऐसी कई अन्य फिल्में बन चुकी हैं लेकिन सबके विषय अलग-अलग थे। यह फिल्म उन लोगों के बारे में बताती है जिनके अपने उन्हें छोड़कर विदेश चले गए हैं और केवल जरूरत के समय ही मां-बाप को याद करते हैं।

मेरे एक मित्र ने अचानक एक दिन बातचीत में यूं ही कह दिया कि अरे भाई विदेश में चले गए बच्चों को मां-बाप की याद तब आती है जब वे खुद मां-बाप बनने वाले होते हैं। यानी जब बीवी गर्भवती होती है तो उसकी देखभाल से लेकर बच्चा पैदा होने व उसके बाद कम से कम 5-6 महीने बाद तक बच्चे के संभलने तक ही मां की जरूरत महसूस होती है। मैंने पूछा क्यों? उनका जवाब था कि भाई विदेश में आया यानी बच्चों का ख्याल रखने वाली औरत बहुत ही महंगी पड़ती है और मां तो फ्री में ये सब कर देती है। बस टिकट का खर्चा ही तो उठाना है। शायद उमेश शुक्ला के दिमाग में भी कहीं ऐसी ही घटना से यह कहानी आई होगी।

कहानी छोटी सी है। 102 साल के अमिताभ बच्चन अपने 64 साल के बेटे ऋषि कपूर के साथ एकाकी जीवन गुजार रहे हैं। ऋषि का बेटा 20 साल पहले अमेरिका जा चुका है और फिर कभी नहीं आया। बेटे की याद में ऋषि कपूर परेशान रहते हैं और अपनी उम्र से ज्यादा बड़े दिखने लगे हैं। एक दिन अमिताभ को सूझता है कि क्यों न वे दुनिया के सबसे बुजुर्ग आदमी का 118 साल तक जीने का रिकार्ड तोडऩे का प्रयास करें। अमिताभ ऋषि को वृद्धाश्रम भेजने की सोचने लगते हैं और ऋषि के सामने शर्त रखते हैं कि अगर वे उनकी पांच शर्तों को मान लें तो वे अपना इरादा बदल सकते हैं। शर्तें अजीबो गरीब थी लेकिन सबका एक ही उद्देश्य था कि ऋषि की जिंदगी में फिर से बहार कैसे लाई जाए। अमिताभ इसमें कामयाब रहते हैं लेकिन अचानक एक दिन ऋषि के बेटे का फोन आता है कि वह भारत आ रहा है पिता से मिलने तो ऋषि भावुक हो उठते हैं। अमिताभ उनसे कहते हैं कि बेटा केवल जायदाद के चक्कर में आ रहा है तो ऋषि नाराज हो जाते हैं। उनका तर्क था कि अमिताभ सही नहीं हैं और बेटा उनसे मिलने ही आ रहा है। दोनों में झगड़ा होता है और ऋषि कपूर चेतावनी देते हैं कि वे अपना हिस्सा अपने बेटे को देंगे और अगर अमिताभ बीच में आए तो उन पर भी मुकदमा कर देंगे। तब अमिताभ बताते हैं कि वे मुकदमेबाजी के लिए ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रहेंगे क्योंकि उनके दिमाग में ट्यूमर है और वे कभी भी मर सकते हैं। ऋषि के पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाती है। उन्हें अहसास होता है कि उनके पिता ने उन्हें खुश करने के लिए क्या नहीं किया। अंत में वे अपने बेटे की बजाय पिता का साथ देने का फैसला करते हैं।

फिल्म अच्छी है लेकिन मनोरंजन का अभाव है। जब मैंने यह फिल्म देखी तो 50 प्रतिशत से ज्यादा दर्शक बुजुर्ग थे। उनके साथ उनके बच्चे व पोते-पोती भी थे। बच्चों को फिल्म बोर लगी। एक किशोर को तो यह भी कहते सुना कि क्या अच्छा है फिल्म में एक भी गाना नहीं था। गाने से याद आया। फिल्म का एक गाना काफी प्रचार के बाद जारी हुआ था 'बडुम्बा'। इस गीत के पीछे खुद बच्चन साहब का दिमाग बताया जाता है लेकिन यह गाना अंत में आने वाले क्रेडिट्स के भी बाद में रखा गया। गाने के लिए इतनी बड़ी क्रेडिट्स लाइन देखना किसी ने गंवारा नहीं समझा और पूरा थियेटर खाली हो गया। फिल्मकार का यह आइडिया समझ से बाहर है। गाना व क्रेडिट्स एक साथ भी चलाए जा सकते थे, जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता भी है।


फिल्म में संगीत न के बराबर ही है। इसके अलावा कला निर्देशन भी कमजोर है। सेट बहुत ही नकली नजर आते हैं। घर पूरी तरह से सेट ही लगता है। अगर रियल लोकेशंस पर फिल्म शूट की जाती तो और अधिक प्रभावशाली हो सकती थी। कुछ संवाद अच्छे लिखे गए हैं और फिल्म के साथ अच्छे लगते हैं। गनीमत है कि फिल्म की लंबाई 1 घंटा 41 मिनट ही रखी गई नहीं तो झेल नहीं पाते दर्शक।

अभिनय की बात करें तो अमिताभ बच्चन व ऋषि कपूर, दोनों ने ही अपने किरदारों को जीवंत कर दिया है। यही फिल्म अगर किसी और जोड़ी को लेकर बनाई जाती तो शायद बिजनेस जीरो ही रहता। पहले हाफ में तो दोनों मिलकर काफी हंसाते भी हैं। इसलिए इंटरवल कब हो गया पता ही नहीं चलता। कुल मिलाकर फिल्म एक बार देखी जा सकती है परिवार के साथ। साफ सुथरी है। वैसे अगर अब तक नहीं देखी है तो कुछ समय बाद टीवी पर आ ही जाएगी। ऐसा कुछ नहीं है जो आप बड़ी स्क्रीन पर ही देखें।



फिल्म एक ही सबक देती है कि जिंदगी जिंदादिली का नाम है। और यह तो सच है सब जानते हैंं।

-हर्ष कुमार सिंह