Friday 30 September 2016

DEEP REVIEW: MS Dhoni - The Untold Story

शानदार क्रिकेटर को सलाम करती जानदार फिल्म 
RATING- 5*
 क्रिकेट के दीवानों और भारतीय क्रिकेट के सबसे महान कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के चाहने वालों के लिए ये एक जबर्दस्त फिल्म है। फिल्म एक वर्तमान क्रिकेटर के जीवन पर आधारित फिल्म है और इसके बावजूद किसी भी विवाद को खड़ा नहीं करती। तीन घंटे की फिल्म केवल धोनी के निजी जीवन पर ही फोकस किए रहती है। पहले हाफ में धोनी के स्कूल ब्वॉय से इंटरनेशनल क्रिकेटर बनने के सफर को बयां करती है तो दूसरे हाफ में धोनी के प्रेम संबंध आदि को दिखाते हुए वहां समाप्त हो जाती है जहां 2011 में भारत ने उनकी कप्तानी में विश्व कप जीता था। और सही भी है, इससे बाद की कहानी तो अभी जारी है और धोनी खेल ही रहे हैं।
 ये फिल्म ऐसे समय में आई है जब पूरा भारत इस पर सोच रहा है कि एक बच्चे के लिए खेल ज्यादा जरूरी है या फिर पढाई। ओलंपिक जैसे बड़े आयोजन में भारत एक अदद स्वर्ण पदक के लिए तरस रहा है। खेलों को बढ़ावा देने के लिए तमाम तरह की योजनाएं बनाने की बात की जा रही है लेकिन सरकारों का खेल प्रेम केवल इस बात तक ही सीमित हो गया है कि अगर कोई खिलाड़ी अच्छा खेलता है तो उसे इनामों से लाद दो या फिर कोई नौकरी दे दो। कोई इस पर नहीं सोचता कि गांव में दूरदराज के छोटे इलाकों में अंकुरित हो रहे खिलाडिय़ों को आगे बढऩे का सुरक्षित प्लेटफार्म कैसे दिया जाए। धोनी की बायोपिक में इस विषय को उठाने का प्रयास भी किया गया है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे पूर्व बीसीसीआई प्रमुख स्व. जगमोहन डालमिया ने क्रिकेट में छिपी हुई बी क्लास शहरों की टैलेंट को ढूंढने के लिए एक विशेष अभियान चलाया और उसी के बाद धोनी को टीम में चांस मिला।
हर आम आदमी की तरह धोनी के पिता पान सिंह (अनुपम खेर), जो एक पंप आपरेटर हैं, धोनी को खेल की बजाय पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए ही कहते रहते हैं। केवल धोनी की मां व बहन (भूमिका चावला) ही उसकी हौसला बढ़ाती हैं। इस फिल्म में यह मुद्दा भी खास जोर देकर उठाया गया है कि सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद भी खिलाडिय़ों का संघर्ष खत्म नहीं होता। धोनी (सुशांत सिंह राजपूत) पहले फुटबाल खेलते थे। स्कूल के खेल टीचर के कहने पर विकेटकीपर के रूप में क्रिकेट टीम में ले लिए जाते हैं और यहीं से उनका सफर शुरू होता है। पहले सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की ओर से खेलते हैं लेकिन अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने के बाद रेलवे की टीम में पहुंच जाते हैं। वहां टीसी की नौकरी तो मिल जाती है लेकिन सारा समय टिकट चेक करने की भागदौड़ में ही निकल जाता है। खेल के लिए समय ही नहीं मिलता। यहां धोनी कुंठा का शिकार होने लगते हैं और नौकरी छोड़कर केवल क्रिकेट को ही अपना सब कुछ बना लेने का फैसला कर लेते हैं। यहीं फिल्म का इंटरवल हो जाता है।
इंटरवल के बाद की फिल्म में कुछ ऐसे वाकये दिखाए गए हैं जिनके बारे में धोनी ने कभी कुछ नहीं कहा लेकिन चूंकि फिल्म उनकी सहमति से बनी है तो यह माना जा सकता है कि ऐसा हुआ ही होगा। धोनी ए टीम में चुने जाते हैं और फिर भारतीय टीम का भी हिस्सा बन जाते हैं। धोनी की एक प्रेम कहानी भी है जो उनके पाकिस्तान के पहले दौरे के समय शुरू हुई थी। हवाई जहाज में भारतीय टीम के साथ एक प्रियंका (दिशा पटनी) नाम की लड़की भी सफर कर रही होती है। प्रियंका धोनी को नहीं पहचानती और उनसे सचिन का आटोग्राफ लेकर देने का निवेदन करती है। धोनी उसकी तमन्ना पूरी कर देते हैं। खुश होकर प्रियंका कहती है कि अगले मैच में उनका खेल बहुत अच्छा होगा और यही होता है। धोनी अपनी पहली सेंचुरी बनाते हैं और यहीं से शुरू हो जाती है प्रेम कहानी। दोनों मिलते भी हैं और एक दूसरे से प्यार का इजहार न भी करते हैं। प्रियंका के दोस्ती से आगे बढऩे के सवाल पर धोनी बार-बार कहते हैं अभी जल्दी क्या है बहुत समय है। दिल्ली में एक सड़क हादसे में प्रियंका की मौत हो जाती है और ये प्रेम कहानी खत्म हो जाती है। धोनी की दूसरी प्रेम कहानी (पत्नी के साथ) भी कुछ इसी तरह शुरू होती है। साक्षी (कायरा आडवाणी) उस होटल में इंटर्न कर रही है जहां भारतीय टीम के कप्तान धोनी ठहरे हुए हैं। मजे की बात यह है कि साक्षी भी उन्हें नहीं पहचाना पाती और उसका यही भोलापन धोनी को भा जाता है। दूसरी प्रेम कहानी आगे बढ़ जाती है, ठीक पहले प्रेम की तरह। साक्षी भी आगे बढऩे को कहती है लेकिन धोनी फिर टाल जाते हैं। तभी उन्हें लगता है कि कहीं पहले प्यार की तरह यह कहानी भी अधूरी न रह जाए इसलिए धोनी शादी करने का फैसला कर लेते हैं। बस इसके बाद भारत उनकी कप्तानी में वल्र्ड कप जीतता है। धोनी छक्का लगाकर मैच जिताते हैं और फिल्म खत्म हो जाती है।

'ए वेडनसडे', 'स्पेशल 26' व 'बेबी' जैसी बेहतरीन फिल्में बनाने वाले नीरज पांडे से जैसी फिल्म की उम्मीद की जाती है वैसी ही उन्होंने बनाई है। कहानी भी उन्होंने खुद ही संभाली है इसलिए तीन घंटे लंबी होने के बावजूद फिल्म कहीं भी बोझिल नहीं होती। शुरू से ही दर्शकों का भावनात्मक लगाव धोनी के साथ हो जाता है और वह लगातार बना रहता है। पांडे ने सबसे बड़ी सफलता यह पाई है कि उन्होंने कहीं भी फिल्म को विवादों में नहीं पडऩे दिया। उदाहरण के तौर पर जब 2008 में भारतीय टीम का चुनाव होता है तो धोनी कहते हैं कि मुझे ये तीन खिलाड़ी नहीं चाहिए। धोनी चयनकर्ताओं से कहते हैं कि हमें अगले विश्व कप (2011) की तैयारी करनी चाहिए और अगर मैं अपनी मनपंसद टीम नहीं चुन सकता तो फिर मुझे कप्तान बने रहने का भी कोई हक नहीं। इस तरह के नाजुक मुद्दे को पांडे ने बहुत ही गंभीरता से हैंडल किया है। तीनों खिलाडिय़ों का नाम नहीं लिया गया है। युवराज सिंह के साथ धोनी का कितना पंगा हुआ है लेकिन फिल्म में युवराज सिंह का कैरेक्टर बहुत ही सधे हुए तरीके से हैंडल कर लिया गया है। कई अन्य मौकों पर भी नीरज ने फिल्म को बेहतरीन तरीके से संभाला है।
 अभिनय के लिहाज से सुशांत सिंह राजपूत ने बढिय़ा काम किया है। इस फिल्म से सबसे ज्यादा फायदा उन्हीं को मिलने वाला है। अनुपम खेर ने धोनी के पिता का रोल जीवंत कर दिया है। पांडे की फिल्मों में वैसे भी अनुपम खेर का रोल हमेशा ही शानदार होता है। दोनों हिरोईनों ने भी अपना काम बढिय़ा किया है। धोनी की बड़ी बहन के रूप में भूमिका चावला ने पूरा न्याय किया है। ऐसी फिल्मों में कास्टिंग डायरेक्टर का रोल अहम होता है। सभी किरदारों के लिए कलाकारों का चयन बढिय़ा है। संगीत का फिल्म में कोई स्कोप ही नहीं है अलबत्ता बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म के अनुकूल है।

 

ये फिल्म कुछ सबक छोड़ती है-

1. खेल में भी कैरियर है और यह बात हमें भी समझनी चाहिए। इसलिए इस फिल्म को देखें और बच्चों के साथ देखें। आप खुद में और अपने बच्चों में बदलाव की इच्छा महसूस जरूर करेंगे।
2. फिल्म में धोनी का किरदार एक और संदेश देता है। वो यह कि खुद में भरोसा रखें और वही करें जो आपका दिल कहता है। यही धोनी ने हर बार किया और सफलता को हासिल किया।

माही को पूरे देश की ओर से सेल्यूट। 

  •  हर्ष कुमार सिंह

Friday 16 September 2016

DEEP REVIEW: Pink

हकीकत ज्यादा फसाना कम, जरूर देखें  

RATING- 5*

सच की जीत होती है। हर फिल्म की तरह यह फिल्म भी यही संदेश देती है। समाज के कई ज्वलंत मुद्दों पर फिल्म बेबाक तरीके से अपनी बात कहने का प्रयास करती है। अगर आप गंभीर सिनेमा के प्रशंसक है तो फिल्म के हर पहलू की आप तारीफ करते थकेंगे नहीं। निर्देशक की ईमानदार कोशिश की भी दाद देनी चाहिए और उसी तरह से सभी कलाकारों के अभिनय की भी। जिन लोगों की बेटियां व जवान होते बेटे हैं वे इस फिल्म को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। बेटे वालों को तो जरूर ये देखनी चाहिए अगर अपने बेटों को बुराई से बचाकर रखना है तो।
फिल्म के सकारात्मक संकेत देखिए। जैसे ही घटनाक्रम शुरू होता है तो अमिताभ बच्चन की बार-बार रहस्यमय उपस्थिति भी दिखाई जाती है और वहीं से दर्शक इस बात से आश्वस्त हो जाता है कि फिल्म में पीडि़त लड़कियों को न्याय मिलकर रहेगा। यही नहीं जब केस की कोर्ट में सुनवाई शुरू होती है तो जज साहब भी पहले ही दिन से लड़कियों के पक्ष में नजर आते हैं। शायद इसकी वजह यह थी कि आरोपी किसी बड़े बाप का बेटा था। पर क्या वास्तविक जीवन में भी ऐसा होता है? केस लडऩे के लिए अमिताभ बच्चन जैसा वकील और बड़े लोगों से चिढ़ा हुआ एक जज, क्या किसी रीयल केस में भी हो सकते हैं?

बहरहाल बहस में न पड़कर अगर फिल्म के जरिये दिए गए संदेश की बात करें तो सबसे बड़ा सबक यही मिलता है कि भले ही आप बेकसूर हैं लेकिन आपको इसे साबित करने के लिए बहुत प्रयास करने पड़ते हैं और अपमान सहना पड़ता है। खासतौर से लड़कियों के लिए तो खुद को 'चरित्रवान' साबित करने के लिए तो न जाने क्या-क्या सहना पड़ता है। एक सीन बहुत ही अच्छा है। जब तापसी व बच्चन मार्निंग वाक पर होते हैं तो पास से गुजरता एक लड़का कहता है कि ये है सूरजकुंड कांड वाली लड़की। तापसी सुनकर अपनी जैकेट की हुड से चेहरा ढंक लेती है लेकिन बच्चन उसके सिर से हुड उतार देते हैं। लड़कियों को साहसी बनने का संदेश ये सीन देता है और इसमें समाज का कुरूप चेहरा भी उजागर करने का प्रयास है।


फिल्म की कहानी दिल्ली में लड़कियों के साथ पिछले कुछ साल में हुई शारीरिक व मानसिक शोषण की घटनाओं से जुड़ी है। तीन लड़कियां पार्टी में तीन रईसजादों के साथ जाती हैं जहां लड़के उनका उत्पीडऩ करने का प्रयास करते हैं। एक लड़की (तापसी) बचाव में एक युवक राजवीर (अंगद बेदी) को घायल कर देती है जो बड़े बाप का बेटा है। राजवीर व उसके दोस्त लड़कियों को धमकाने लगते हैं। तापसी को उठाकर उससे रेप भी करते हैं अपना प्रभाव दिखाने के लिए। लड़कियां चुप न रहकर केस लडऩे का फैसला करती हैं और दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) वकील के रूप में उनका साथ देते हैं और अंत में न्याय भी दिलाते हैं।



इंटरवल के बाद पूरी फिल्म कोर्ट में चलती है और कोर्ट रूम के सीन बहुत ही शानदार तरीके से लिखे गए हैं। अमिताभ बच्चन पूरे समय वकील के रूप में कोर्ट में मौजूद रहते हैं इसलिए बोर होने का तो सवाल ही नहीं उठता। अमिताभ बच्चन ने अपने इतने लंबे कैरियर में शायद पहली बार वकील की भूमिका निभाई और क्या अभिनय उन्होंने किया है। एक बुजुर्ग व बीमार वकील के किरदार को अमिताभ ने जीवंत कर दिया है। तीनों लड़कियों ने भी अपने किरदार ईमानदारी से निभाए हैं लेकिन तापसी पन्नु व कीर्ति कुल्हारी को कोर्ट में कुछ अच्छे सीन मिले हैं और उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया है। दरअसल फिल्म दिल्ली आधारित है और इसलिए तापसी पन्नु व कीर्ति एकदम फिट बैठती हैं। तापसी (मीनल अरोरा) ने करोलबाग की पंजाबी लड़की का रोल किया है तो कीर्ति (फलक अली) ने दिल्ली में काम करने वाली लखनऊ की एक मुस्लिम लड़की का किरदार निभाया है और दोनों इसमें फिट नजर आती हैं। तापसी पन्नु सुंदर हैं और पूरी फिल्म में ही उन्होंने लगातार सबका ध्यान खींचने में सफलता पाई है। कीर्ति ने जब मौका मिला तो जमकर टक्कर ली। तीसरा लड़की आंद्रिया तैरंग को नार्थ ईस्ट की लड़कियों से दिल्ली में भेदभाव का मुद्दा फिल्म के साथ जोडऩे के लिहाज से रखा गया है और वह यह मकसद पूरा कर देती हैं। कास्टिंग अन्य किरदारों के लिए भी बहुत अच्छी की गई है। जज के रोल में धृतमान चटर्जी ने जान डाल दी है तो सरकारी वकील के रूप में पीयूष मिश्रा ने भी जबर्दस्त काम किया है।

निर्देशक अनिरुद्ध राय चौधरी ने सभी किरदारों के लिए जो बॉडी लैंग्वेज गढ़ी है वो पूरी फिल्म में नजर आती है। सभी पहलुओं पर उनकी कड़ी पकड़ रहती है। कहानी व पटकथा कसी हुई है। इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है कि जिस घटना पर पूरी कहानी आगे चलती है उसे क्लाईमैक्स में दिखाया गया है। इसके बावजूद कहीं भी इसकी कमी नहीं खलती कि आखिर उस रात हुआ क्या था?

फिल्म में कई संदेश बहुत ही अच्छे तरह से दिए गए हैं। कई सवालों के जवाब निर्देशक ने देने का प्रयास किया है। लड़कियों को क्या पहनना चाहिए, कैसे व्यवहार करना चाहि
ए। शराब लड़के पीएं तो सही है और अगर लड़की पीए तो गलत? लड़कियां अकेले रहती हैं तो उनका कैरेक्टर गलत है, और वे धंधा करने वाली हैं? कोर्ट में लड़कियों को अपने कुंवारेपन को लेकर कैसे-कैसे सवालों का सामना करना पड़ता है इसे बहुत ही बेहतरीन तरीके से पेश किया गया है। अमिताभ बच्चन जब अपनी ही मुवक्किल (तापसी) से ऐसे सवाल करने लगते हैं तो बड़ा अजीब जरूर लगता है लेकिन अंत में सवालों में ही जवाब भी निकल आता है और सब भौंचक्क रह जाते हैं।

फिल्में समाज का दर्पण होती हैं और ये बात 'पिंक' में पूरी तरह से साबित हो जाती है। अहम सवाल यह है कि इस तरह की फिल्म को बाक्स आफिस पर रिस्पांस कैसा मिलता है। अगर फिल्म कमर्शियल रूप से सफल रहती है तो फिल्म सफल है नहीं तो फिर इस तरह की फिल्म केवल एक खास वर्ग व पुरस्कारों तक ही सीमित होकर रह जाती हैं। इसे टैक्स फ्री करने में कोई हर्ज नहीं था। शुरू ही में टैक्स फ्री कर दिए जाने से फिल्म ज्यादा लोगों तक पहुंच पाती।

- हर्ष कुमार सिंह

Saturday 10 September 2016

DEEP REVIEW (Career): Katrina Kaif - Parveen Boby of our era?

क्या कैटरीना कैफ वर्तमान दौर की परवीन बाबी हैं ? क्या कैटरीना कैफ का कैरियर खात्मे की ओर चल पड़ा है? 'बार-बार देखो' की ओपनिंग औसत भी नहीं लग पाई। इससे पहले 'फितूर' के साथ भी यही हुआ था। ऐसे बहुत से सवाल उठ रहे हैं जिनका जवाब इस स्टोरी में हमने जानने की कोशिश कीः-

'बार-बार देखो' को आमिर खान के लिए लिखा गया था तो 'फितूर' को सिद्धार्थ राय कपूर ने अपने भाई आदित्य कपूर (आशिकी व दावत ए इश्क) को री लांच करने के लिए बनाया था। 'बार-बार देखो' के लिए आमिर खां ने तो हां नहीं की, बाद में सिद्धार्थ मल्होत्रा आए, लेकिन फिर भी फरहान अख्तर, रीतेश सिडवानी और करण जौहर जैसे निर्माताओं की टीम ने इसमें कैटरीना कैफ को लीड एक्ट्रेस बनाए रखा। शायद उन्हें उम्मीद थी कि भले ही आमिर फिल्म नहीं कर रहे हैं लेकिन कैटरीना के नाम पर फिल्म चल जाएगी। इससे पहले फरहान अख्तर कैट के साथ 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' कर चुके थे और उनसे प्रभावित थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि फिल्म को अच्छा रिस्पांस मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दूसरी और यूटीवी के मालिक व विद्या बालन के पतिदेव सिद्धार्थ राय कपूर भी अपने भाई आदित्य कपूर को स्थापित करने के लिए एक बड़ी हिट बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने 'फितूर' जैसी फिल्म बनाई जिसमें कश्मीर का विवादित विषय था। हिरोईन के रूप में कैटरीना कैफ को भी मना लिया गया। आदित्य कपूर के साथ कोई भी हिरोईन काम करने के लिए राजी नहीं हो रही थी लेकिन संबंध निभाने में पक्की कैटरीना ने हां कर दी। सिद्धार्थ को लगा कि फिल्म कैट के नाम पर चल जाएगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दोनों ही फिल्में बाक्स आफिस पर एक ही दिन में ढेर हो गई।
इन फिल्मों के निर्माताओं का हश्र कुछ भी रहा हो लेकिन इतना तो तय हो गया कि कैटरीना कैफ का जादू अब ढल रहा है। 
दीपिका, जैकलीन और अनुष्का की चमक के सामने कैटरीना की विदेशी ब्यूटी फीकी पड़ रही है। वैसे भी कैट के बारे में मशहूर है कि मिस कैफ (33) भी तभी अच्छा काम करती नजर आती हैं जब उन्हें बड़े प्रोजेक्ट मिलते हैं। 'जब तक है जान' या 'धूम 3' जैसे प्रोजेक्ट छोड़ दें तो अन्य फिल्मों में कैटरीना बहुत ही साधारण नजर आती हैं। अपने 13 साल के कैरियर में कई बड़ी हिट फिल्मों में काम कर चुकी कैटरीना कैफ जिस तरह से एक के बाद एक फ्लाप फिल्में दे रही हैं उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि अब कैट का टाप पर जमे रह पाना आसान नहीं होगा। यशराज के बैनर में 'धूम 3' व 'जब तक है जान' के बाद कैटरीना की एंट्री बंद हो चुकी है।कहा जा सकता है कि उनके कैरियर का टॉप का वक्त गुजर चुका है।

कैटरीना के बारे में कहा जा सकता है कि उन्होंने फिल्म इंटस्ट्री में अच्छे दोस्त बनाए और उनके सहारे आगे बढ़ी। 2003 में 'बूम' जैसी बहुत ही घटिया फिल्म से कैरियर की शुरूआत करने वाली कैटरीना कैफ को इसके बाद दक्षिण भारत की फिल्मों की ओर रुख करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसी समय सलमान खान उनके गॉड फादर बने और उन्हें 'मैंने प्यार क्यों किया' के जरिये बालीवुड में एक अच्छा ब्रेक दिया। कहा जा सकता है कि यह पहली फिल्म थी जिसके बल पर कैटरीना को बालीवुड में पहचान मिली। इसके बाद 'सरकार', 'हमको दीवाना कर गए', 'नमस्ते लंदन' जैसी फिल्मों ने कैटरीना को स्थापित किया।
वक्त के साथ-साथ कैटरीना सलमान से दूर होती चली गई और रनबीर कपूर के साथ 'राजनीति' करने के बाद उनकी कैमिस्ट्री अच्छी खासी बन गई। सलमान खान के साथ 'पार्टनर' के बाद से उनकी जोड़ी टूट गई। इस दौरान 'वेलकम' जैसी फिल्में जरूर कैटरीना ने की लेकिन उनके कैरियर में एक ठहराव सा आने लगा। 'युवराज' व 'न्यूयार्क' जैसी फिल्में नहीं चल सकी। रनबीर के साथ उनके निजी रिश्ते कैसे भी रहे हों लेकिन दोनों की जोड़ी फिल्मों में नहीं चल सकी। रनबीर के साथ 'अजब प्रेम की गजब कहानी' के अलावा उनकी कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं आई। रनबीर का साथ उन्हें बड़ी फिल्में नहीं दिला पाया। इसी समय सलमान खान व कबीर खान (न्यूयार्क) की बदौलत कैटरीना को यशराज फिल्म्स में एंट्री मिली जो उनके कैरियर का सबसे बेहतरीन पड़ाव साबित हुई।
 सलमान व कबीर की बदौलत कैटरीना को 'एक था टाइगर', 'धूम 3' व 'जब तक है जान' जैसी बड़ी फिल्में मिलीं। ये उनके कैरियर की बुलंदी थी। इनमें कैट ने सलमान, आमिर व शाहरुख के साथ काम किया। फिल्में सफल भी रही और कैटरीना को बालीवुड में नंबर वन हिरोईनों में भी गिना जाने लगा।
बालीवुड में कहा जाता है कि अगर आपके ताल्लुकात नहीं हैं तो आपको फिल्में भी नहीं मिलती हैं। यशराज बैनर में कैटरीना ज्यादा नहीं टिक सकीं। इसके अलावा करण जौहर जैसे समकालीन निर्देशकों की गुडलिस्ट में भी वह शामिल नहीं हो सकी। यहीं से शुरूआत हुई कैटरीना के कैरियर के पतन की। जिस राह पर चलकर कैटरीना कैफ ने फिल्मों में पैर जमाए उसी पर चलकर अब जैकलीन फर्नांडीज जैसी हिरोईनें आगे निकल रही हैं। साजिद नाडियाडवाला जैसे निर्माता जैकलीन को तीन-तीन फिल्मों में रिपीट कर रहे हैं। दूसरी ओर कैटरीना 13 साल से ज्यादा समय हिंदी फिल्मों में गुजारने के बाद भी हिंदी नहीं सीख पाई। किसी नामी अवार्डट को वह हासिल नहीं कर पाईं। एक तरह से उनकी तुलना बीते दौर की हिरोईन परवीन बाबी से कर दी जाए तो गलत नहीं होगा।
यशराज फिल्म्स ने 'जब तक है जान' में यश चोपड़ा ने कैटरीना को अपनी लीड एक्ट्रेस के रूप में कास्ट किया था लेकिन रोल को पसंद किया गया अनुष्का शर्मा के। अनुष्का ने साबित कर दिया कि अगर निर्देशक उन्हें मौका दें तो वे कमाल कर सकती हैं। कैटरीना लीड में थी लेकिन इसके बाद भी फिल्म में अनुष्का छा गई।

अब कैटरीना के पास 'जग्गा जासूस', 'राजनीति 2', 'सन आफ सरदार 2', 'पार्टनर 2' जैसी ही फिल्में हैं। इनमें से जिन भी फिल्मों के सीक्वल बन रहे हैं उनका भविष्य अधर में ही है। ऐसे में कहा नहीं जा सकता कि कैट का कैरियर बहुत आगे जाएगा।
इस के अलावा किसी बैनर के साथ उन्होंने ऐसी कोई फिल्म नहीं की जिसे कहा जा सके कि वे उनके लिए माइल स्टोन साबित हुई। आफ स्क्रीन तो उनके रोमांस बहुत ही पापुलर हुए लेकिन ऑन स्क्रीन नहीं। दीपिका पादुकोण जिस तरह से रणवीर सिंह के साथ अपनी आन व आफ स्क्रीन कैमिस्ट्री को निभाया है वैसा भी कैट नहीं कर पाई। ऐसे में उनका कैरियर ग्राफ तो नीचे आना ही था। 'चिकनी चमेली' व 'शीला की जवानी' जैसे आइटम सांग ही कैटरीना की लिस्ट में परफोर्मेंस के नाम पर नजर आते हैं।

-हर्ष कुमार सिंह