Friday 29 July 2016

DEEP REVIEW: Dishoom


टाइम पास फिल्म भी नहीं बन पाई 'ढिशूम'

RATING- 1*


डेविड धवन के निर्देशक बेटे रोहित धवन अब पूरी तरह से अपने पिता की लाइन पर चल निकले हैं। उन्होंने 'ढिशूम’ को वर्तमान दौर की 'बड़े मियां छोटे मियां’ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब चूंकि वरुण धवन उनके भाई हैं तो उन पर तो विशेष ध्यान दिया ही जाना था। फिल्म में अगर कोई चीज परफेक्ट है तो वह है वरुण धवन का किरदार। कई बार तो उन्हें ऐसे दिखाया गया है कि जैसे फिल्म के मुख्य हीरो वे हैं जॉन अब्राहम नहीं। रोहित धवन ने कुछ साल पहले 'देसी ब्वॉयज’ नाम की एक फिल्म लिखी व डायरेक्ट की थी। हालांकि फिल्म ज्यादा चली नहीं थी लेकिन फिर भी अक्षय कुमार व जॉन अब्राहम की जोड़ी की वजह से लोगों ने उसे देखा तो और पंसद भी किया था। हालांकि बाक्स आफिस पर वह कोई बड़ा तीर नहीं मार सकी थी। कुछ ऐसी ही 'ढिशूम’ के साथ भी होने वाला है।

फिल्म की स्टोरी लाइन बहुत ही मामूली है। गल्फ के एक देश में भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट टूर्नामेंट का फाइनल मैच खेला जाना है। भारतीय टीम के स्टार प्लेयर विराज शर्मा (विराट कोहली से प्रेरित) की वजह से लगातार घाटा खा रहा एक बुकी उसे किडनेप करा लेता है और उसे अपने हिसाब से खेलने के लिए कहता है। मैच में केवल 36 घंटे बचे हैं। विराज की हकीकत खुलने पर देश में दंगे हो सकते हैं और इसलिए भारत सरकार अपने अधिकारी जॉन को वहां भेजती है विराज को ढूंढने के लिए। वरुण गल्फ कंट्री में ही ट्रेनी पुलिस अफसर है जो जॉन की मदद करता है विराज को ढूंढने में। इसी तलाश के बीच जैकलीन फर्नांडीज, नरगिस फाखरी, अक्षय कुमार, अक्षय खन्ना, राहुल देव आदि एक-एक करके आते रहते हैं। अंत में सब लोग विराज को ढूंढने में विफल रहते हैं तो एक कुत्ता इत्तेफाक से उसका पता बता देता है। सब कुछ बहुत ही बचकाने ढंग से होता है।

क्रिकेटर की तलाश के दौरान जो कुछ भी घटित होता है उसे देखकर कहीं भी ये नहीं लगता कि कुछ ऐसा देख रहे हैं जो पहले नहीं दिखाया गया। फिल्म में नयापन डालने के लिए निर्देशक ने शूटिंग के लिए गल्फ के छोटे-छोटे देशों की लोकेशंस के जरिये आकर्षक बनाने का प्रयास किया है। महेंद्र अमरनाथ, अतुल वासन व रमीज राजा जैसे क्रिकेटर कमेंटटेर के रूप में भी आते हैं। वरुण धवन के मुंह से मोदी जी की तारीफ भी कराई गई है लेकिन इससे भी बात नहीं बन पाई। फिल्म का स्क्रीन प्ले बेहद कमजोर है। कब क्या होने वाला है और क्या हो सकता है इसमें किसी की भी दिलचस्पी नहीं रहती।

एक दो बार वरुण धवन जरूर हंसाने में सफल रहते हैं। फिल्म में कुछ डायलाग मजेदार हैं और लोगों को हंसा देते हैं। म्यूजिक के नाम पर फिल्म में केवल दो ही गाने हैं और वे भी दूसरे हाफ के अंतिम 30 मिनट में। दर्शक इंतजार करते रहते हैं कि कोई गाना ही जाए। पहला हाफ तो यूं ही गुजर जाता है। दोनों ही गीत किसी काम के नहीं हैं। एक गाना फिल्म के अंत में ठूंसा गया है। इसमें परिणीति चोपड़ा आइटम गर्ल के रूप में आई हैं लेकिन गाना इतना कमजोर है कि पहले ही फिल्म से ऊब चुके दर्शक सिनेमा हाल से बाहर निकल लेते हैं और गाना बस यूं ही चलता रह जाता है। ये कमजोर निर्देशन की पहचान है। निर्देशक सोच रहा था कि शायद लोग गाने की इंतजार में अंत तक बैठे रहेंगे। वे भूल गए थे कि यदि गाना जोरदार हो तो वह फिल्म के पहले 10 मिनट में भी अपना असर छोड़ सकता है। 80 के दशक में 'तेजाब' फिल्म की प्रसिद्ध गीत 'एक दो तीन’ शुरू के दस मिनट में ही था और फिल्म जबर्दस्त चली थी। खैर उस फिल्म से तो इसकी तुलना करना ही बेमानी है।

फिल्म में अभिनय के नाम पर जॉन अब्राहम हमेशा की तरह जीरो हैं। जैकलीन बहुत ही चुलबुली लगती हैं लेकिन उनका रोल बहुत ही कम है। इंटरवल से पहले तो वे एक ही सीन में नजर आती हैं। वे अगर अच्छे रोल चुनें तो उनका कैरियर पटरी पर आ सकता है। वरुण धवन ने रोल अच्छा किया है। या यूं कहें कि उनके लिए अच्छे सीन लिखे गए हैं तो ज्यादा सही होगा। अक्षय खन्ना का विलेन के रूप में आना ये साबित कर रहा है कि उनके पास अब काम नहीं है और उन्हें कोई भी रोल मिले वे हां कर देंगे। अक्षय कुमार कैसे एक गे कैरेक्टर करने के लिए राजी हो गए ये समझ में नहीं आया। वे इतने बड़े स्टार हैं उन्हें ऐसे रोल में देखना अजीब लगा। वैसे वे हंसा जाते हैं लोगों को। नरगिस फाखरी क्यों बालीवुड में हैं समझ से बाहर है। दो सीन हैं उनके और उसमें से एक में वे बिकिनी में ही रही हैं।

कुल मिलाकर यदि फिल्म से वरुण धवन को निकाल दिया जाए तो इसमें कुछ भी देखने के लायक नहीं बचेगा। आप किसी के कहने में न आएं। फिल्म बिल्कुल भी देखने के काबिल नहीं है। इस पर दस रुपये भी खराब न करें। बैटर ये होगा कि आप अगर वीकेंड पर फिल्में देखने के आदी हैं तो एक बार 'सुल्तान’ ही दोबारा देख लें।

- हर्ष कुमार सिंह

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