"बाजीराव मस्तानी": एक शानदार फिल्म लेकिन नहीं बन पाई भंसाली की 'मुगल ए आजम'
REVIEW RATING: 4*
देश में सबसे प्रतिभाशाली फिल्मकार के रूप में खुद को स्थापित कर चुके संजय लीला भंसाली अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म को आखिर लोगों के सामने लाने में सफल रहे। ‘बाजीराव मस्तानी’ को हर ओर से शानदार रिव्यू मिल रहे हैं। इस बात से सभी समीक्षक सहमत हैं कि ये फिल्म भारतीय सिनेमा की सबसे चर्चित व विशिष्ट फिल्मों की श्रेणी में स्थान बनाने में सफल रहेगी, लेकिन संजय लीला भंसाली और उनकी प्रतिभाशाली टीम के पूरे प्रयास के बाद भी ये फिल्म उनके जीवन की ‘मुगल-ए-आजम’ बन पाएगी इसमें संदेह है।
के आसिफ, व्ही शांताराम जैसे निर्देशकों की फिल्मों को देखकर बडे हुए संजय लीला भंसाली का कहना है कि वे इस फिल्म को 12 साल से बनाना चाह रहे थे लेकिन बार-बार कुछ न कुछ अड़चन आ जाती थी। अब फिल्म बनकर सबके सामने आ चुकी है और सिनेमाहाल्स में चल रही है। फिल्म देखने के बाद संजय लीला भंसाली के स्किल्स आपको चौंका देते हैं। जिस स्केल पर उन्होंने फिल्म को बनाया है वो कमाल का है। ये सही है कि केवल संजय जैसे फिल्मकार ही ऐसी फिल्म बनाने के बारे में सोच सकते हैं और जज्बा दिखा सकते हैं।
यूं बनी देखने लायक फिल्मः
जहां फिल्म में ऐसी खामियां हैं जो इस फिल्म को संजय लीला भंसाली की सबसे बड़ी हिट व हिंदी सिनेमा की सबसे ऐतिहासिक फिल्म बनने से रोकती हैं तो दूसरी ओर फिल्म में तमाम ऐसी विशेषताएं भी हैं जो इसे समकालीन सिनेमा की सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक बना देती हैं। कुछ खूबियाः-
1. फिल्म जिस तरह से शूट की गई है उस तरह का स्केल हिंदी सिनेमा में बहुत कम देखने को मिलता है। इससे पहले आशुतोष गोवारिकर ने ‘जोधा अकबर’ में ऐसा प्रयास किया था लेकिन भंसाली की फिल्म भव्यता व प्रोडक्शन वैल्यूज के मामले में बहुत आगे निकल जाती है। भले ही रणवीर-दीपिका की जोड़ी हृतिक-ऐश्वर्या जैसी ग्लैमरस व अद्वितीय नहीं है लेकिन भंसाली के प्रस्तुतिकरण ने दोनों को उसी श्रेणी में ला खड़ा किया है। दीपिका खूबसूरत लगती हैं। उनके कपड़े बेहद शानदार डिजाइन किए गए हैं। कपड़ों में मुस्लिम टच दिखता है और दीपिका उनमें बेहद सुंदर लगती हैं। रणवीर सिंह के साथ जो उनकी रीयल लाइफ कैमिस्ट्री फिल्म में भी नजर आती है। संवाद बोलते समय दीपिका के चेहरे के हाव-भाव बहुत ही प्रभाव छोड़ते हैं। खासतौर से जिस सीन में वे पेशवा के बेटे की बधाई देने के लिए उनके यहां पहुंचती हैं उसमें उन्होंने कमाल ही कर दिया है। संवादों के प्रेषण में वे जोरदार साबित हुई हैं।
2. रणवीर सिंह को बाजीराव के रोल में जब फाइनल किया गया था तो सवाल उठे थे कि कहीं भंसाली गलती तो नहीं कर रहे, लेकिन रणवीर ने जिस तरह से किरदार को निभाय़ा है उन्होंने साबित कर दिया है कि वे मेहनत के बल पर कैरेक्टर में घुस जाने का साहस भी रखते हैं। उन्होंने मराठी स्टाइल में जिस तरह डायलाग बोले हैं वो उनके कैरेक्टर को स्थापित करने में सफल साबित होता है। अलबत्ता तेजी से बोलने के चक्कर में कुछ जगह उनके डायलाग समझ में नहीं आते। योद्धा के रूप में रणवीर जमे हैं और युद्ध के सीन उन्होंने जोरदार तरीके से निभाए हैं। उनकी एनर्जी एक-एक सीन में नजर आती है और फिल्म की सबसे बड़ी ताकत बनती है।
3. प्रियंका चोपड़ा ने फिल्म को केवल संजय लीला भंसाली की वजह से साइन किया था। ये बात उन्होंने अपने इंटरव्यू में भी कही है। फिल्म के टाइटल व कहानी को देखते हुए भी ऐसा लग रहा था कि संभवतः उनका पात्र कम महत्व वाला होगा और फिल्म में उनके सीन भी कम ही होंगे लेकिन ऐसा है नहीं। इंटरवल के बाद फिल्म में प्रियंका छा जाती हैं। कुछ सीन में तो प्रियंका रणवीर को भी पानी पिला देती हैं। जिस दृश्य में प्रियंका रणवीर को राधा-कृष्ण का किस्सा सुनाती है वो फिल्म का सबसे बेहतरीन सीन है। इसमें इमोशन उभरकर आते हैं और प्रियंका ये साबित कर देती हैं कि रोल भले ही कुछ भी हो लेकिन वे अपने दम पर उसमें जान डाल देने की क्षमता भरपूर रखती हैं।
4. फिल्म के बारे में सब कुछ कह दिया जाए और संजय लीला भंसाली के बारे में कुछ न कहा जाए तो ये नाइंसाफी होगा। आज के दौर में निर्देशकों से ज्यादा काम तकनीकी टीम का होता है। गाने कोरियोग्राफर पिक्चराइज कर देते हैं। इसी तरह एक्शन डायेरक्टर व दूसरे तकनीकी सहायक अपना काम बखूबी कर देते हैं तो अच्छी फिल्म बन जाती है लेकिन यहां ऐसा नहीं है। भंसाली की छाप हर जगह नजर आती है। फिल्म में कई बार ये भी नजर आता है कि भंसाली किस तरह ‘मुगल ए आजम’ व दूसरी ऐसी ही फिल्मों से प्रभावित रहे हैं। फिर भी उन्होंने एक ईमानदार, साहसिक, ऐतिहासिक फिल्म बनाई है। इस दौर में ऐसा साहस केवल वे ही कर सकते हैं और उनकी सराहना की जानी चाहिए।
खामियांः रिपीट वैल्यू की कमी:-
किसी भी फिल्म को सुपर-डुपर हिट तभी बनाया जा सकता है जब दर्शक बार-बार किसी फिल्म को देखें, लेकिन इस फिल्म को एक बार देख लेने के बाद आप दोबारा देखने की नहीं सोचेंगे। इसकी एक नहीं कई-कई वजहें हैः-
1. ‘बाजीराव मस्तानी’ एक शानदार फिल्म है। इसका सबसे प्लस प्वाइंट ये है कि इसकी कहानी सबको नई लगती है। पेशवा बाजीराव की कहानी से हम-आप ज्यादा वाकिफ नहीं हैं। विवाहित हिंदू नायक व सुंदर मुस्लिम प्रेमिका की कहानी में नयापन महसूस होता है लेकिन फिल्म का क्लाइमेक्स अधूरा प्रतीत होता है। जब भंसाली ने फिल्म के शुरू में ही ये स्पष्ट कर दिया कि ये फिल्म वास्तविक कहानी में कुछ बदलाव करके बनाए गई है और ऐतिहासिक प्रमाणिकता का दावा नहीं करती है तो फिर इसका अंत कुछ भी बनाया जा सकता था। जो अंत भंसाली ने रचा है वो सिनेमेटिक नजरिये से बहुत दर्शनीय है लेकिन दर्शकों को आसानी से हजम नहीं होता। बाजीराव लंबे समय से बीमार है और अपना मानसिक संतुलन खो बैठ जाने के कारण मौत के मुंह में चला जाता है लेकिन मस्तानी का जेल में यूं ही दम तोड़ देना समझ से परे है।
2. किसी भी फिल्म को बार-बार देखने के लिए मजबूर करने में सबसे बड़ा योगदान संगीत का होता है। भंसाली की ‘देवदास’ व ‘हम दिल चुके सनम’ जैसी फिल्में आज भी अमर हैं तो केवल उनके संगीत की वजह से। ‘देवदास’ का संगीत कुछ कमजोर था इसलिए आज भी भंसाली की सबसे बड़ी हिट फिल्म ‘हम दिल चुके सनम’ ही मानी जाती है। खुद भंसाली ने ‘बाजीराव मस्तानी’ में ‘हम दिल चुके सनम’ के गीत ‘अलबेला सजन आयो रे’ को री-क्रिएट किया है। ये साबित करता है कि उसका संगीत कितना मजबूत था। ‘रामलीला’ के बाद से संजय लीला भंसाली खुद ही संगीत भी देने लगे हैं, ये उनकी बड़ी गलती है। स्वतंत्र संगीतकार अपनी रचनात्मकता की फ्रेशनेस लेकर आता है तो बात कुछ और होती है। अगर आपके दिमाग में कोई सीन चल रहा है और आप उसके हिसाब से संगीत गढ़ते हैं तो वो बात आ ही नहीं सकती। इसलिए जरूरी है कि संगीत तैयार किया जाए और वो भी सिचुएशन के हिसाब से और फिर उसे फिल्माया जाए। ‘बाजीराव मस्तानी’ में गीत-संगीत तो तैयार कर लिया गया लेकिन उनके लिए फिल्म में स्थान ही नहीं था। ये एक योद्धा की कहानी है और उसमें गानों की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। भंसाली का संगीत के प्रति जरूरत से ज्यादा लगाव इस फिल्म की ताकत बनने के बजाए कमजोरी साबित होता है। ‘मस्तानी हो गई‘ गीत को छोड़कर कोई भी गीत जुबान पर नहीं चढता है। देखने में सभी गीत अच्छे लगते हैं लेकिन जैसे ही वे खत्म होते हैं वैसे ही लोग उन्हें भूल जाते हैं।
3. बाजीराव एक योद्धा की कहानी है और रणवीर सिंह ने अपने अंदाज और बॉड़ी लैंग्वेज से फिल्म में जान डाल दी है। उन्हें एक अजेय योद्धा के रूप में स्थापित करने के लिए शुरू में ही जिस तरह से भंसाली ने युद्ध के सीन क्रिएट किए हैं वे फिल्म का सबसे रोमांचक हिस्सा हैं। एनिमेटिड ग्राफिक्स के साथ रियल शाट बेहतरीन तरीके से मिक्स किए गए हैं वे रोमांचित कर देने वाले हैं। पर 40 लड़ाइयों को लगातार जीतने वाले बाजीराव को केवल दो बड़ी लड़ाइयां लड़ते हुए ही भंसाली ने दिखाया है। जबकि दर्शकों को लगता है कि ये सीन और आएं और कुछ और लड़ाइयां लड़ते हुए बाजीराव को दिखाया जाए। ऐसा नहीं होता। गीतों की ओवरलोडिंग में योद्धा का जलवा दबकर रह जाता है। दर्शक ज्यादा से ज्यादा रणवीर सिंह को ही देखना चाहते हैं लेकिन बीच-बीच में वे गायब कर दिए जाते हैं तो फिल्म बोझिल लगने लगती है।
4. फिल्म में कुछ किरदार बहुत ही जोरदार तरीके से पेश किए गए हैं लेकिन अचानक ही उनका अस्तित्व खत्म कर दिया जाता है। जैसे- आदित्य पंचोली पहले ही सीन में बाजीराव को पेशवा बनाए जाने का विरोध करते हैं और बाजीराव अपने कौशल से उन्हें पस्त करते हैं। लगता है कि आगे चलकर पंचोली का किरदार उनकी राह में रोड़े खड़े करेगा लेकिन ऐसा नहीं होता। फिल्म में दो सीन के बाद पंचोली का किरदार गायब हो जाता है। मस्तानी बुंदेलखंड के राजा की बेटी है लेकिन जो उसे पेशवा के राज्य में सहना पड़ता है उसकी खबर पिता को नहीं होती। ये कहानी की ऐसी कमी है जो खलती रहती है। सिनेमाहाल में बैठे दर्शक भी इस तरह के सवालों को एक दूसरे से पूछते हुए नजर आते हैं।
5. फिल्म के जिस चर्चित गीत ‘पिंगा’ को लेकर काफी खबरें आ रही थी वह उतना प्रभावी नहीं बन पाया है जितना कि ‘देवदास’ का ‘डोला रे’। अब तक यही समझा जा रहा था कि ‘पिंगा’ में दीपिका व प्रियंका में वैसा ही कंपीटिशन देखने को मिलेगा जैसा कि माधुरी व ऐश में हुआ था लेकिन न तो गीत उतना जोरदार है और न ही कोरियोग्राफी।
मेरी राय-
ये पूरी तरह से फैमिली फिल्म है। आप इसे बच्चों के साथ देख सकते हैं। फिल्म सीख भी देती है कि क्यों इंसान के लिए उसका परिवार भी अहमियत रखता है। 40 लड़ाइयां लगातार जीतने वाला योद्धा हारता है तो केवल अपने परिवार से। बार-बार परिवार ही उसके जीवन में बाधाएं खड़ी करता है। इस फिल्म को पूरे परिवार के साथ देखिये और ऐसी साहसिक फिल्म बनाने वालों की हौसला अफजाई करें ताकी आने वाले समय में भी फिल्मकार ऐसी फिल्में बनाने की हिम्मत जुटा सकें।
- हर्ष कुमार