Friday 23 December 2016

DEEP REVIEW: Dangal


दंगल: अच्छी फिल्म पर बेस्ट नहीं
RATING- 4*
खेलों को लेकर बनाई जाने वाली फिल्मों का एक प्लस प्वाइंट यह होता है कि आप भावनात्मक रूप से फिल्म के साथ जुड़ जाते हैं। आप किसी खिलाड़ी के संघर्ष की कहानी को खुद से जोडऩे लगते हैं। पिछले कुछ समय में आई कई फिल्मों जैसे ‘मैरीकॉम’,’ एमएस धोनी’, ‘सुल्तान’ की सफलता इसका सबूत हैं। और अगर फिल्म किसी खिलाड़ी की सच्ची कहानी पर आधारित हो तो बात ही क्या है। यही वजह है कि धोनी ने तो सफलता का कीर्तिमान ही बना दिया। कुछ यही बात ‘दंगल’ में नजर आती है। निर्देशन की कमजोरी के बावजूद ‘दंगल’ आपके दिलो दिमाग पर शुरू के दस मिनट में ही छा जाती है। आपको महावीर सिंह फोगट के किरदार से सहानुभूति हो जाती है। सहानुभूति इसलिए क्योंकि वह अपने बेटे के जरिये देश के लिए गोल्ड जीतना चाहते हैं और भगवान की कृपा से उनके घर में एक के बाद एक चार बेटियां पैदा हो जाती हैं। इससे ज्यादा इमोशनल बात और क्या हो सकती है।


2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स में कुश्ती का गोल्ड मैडल जीतने वाली गीता फोगाट व उनके पिता व पूर्व पहलवान महावीर सिंह फोगाट के जीवन पर आधारित यह फिल्म भी यही दिखाती है कि अगर किसी खिलाड़ी को इंटरनेशनल लेवल पर सफल होना है तो उसे पारिवारिक सपोर्ट सबसे ज्यादा जरूरी है। सरकारी सुविधाएं और सरकारी अफसरों का खिलाडिय़ों के प्रति नजरिया दूसरे नंबर पर आते हैं। यह कड़वा सच है कि पारिवारिक सपोर्ट व घर में सकारात्मक माहौल के बिना बड़ा खिलाड़ी बन पाना आसान नहीं है।

इसी साल आई सलमान खान की ‘सुल्तान’ से 50 प्रतिशत तक मेल खाने वाली ‘दंगल’ की कहानी सत्य घटना का पुट हो जाने के कारण अलग नजर आने लगती है। दोनों ही फिल्में हरियाणा की बैकग्राउंड पर बनी हैं और दोनों में ही पहलवानों, खासतौर से महिला पहलवानों, की कहानी कही गई है। एक में लड़की अपने पति के लिए अपना करियर दांव पर लगा देती है तो दूसरी में बेटी अपने पिता का अरमान पूरा करती है। सुल्तान चूंकि काल्पनिक कहानी पर आधारित थी इसलिए थोड़ी नाटकीय थी। कहानी की बात करें, महावीर सिंह फोगाट जब बेटा पाने में सफल नहीं हो पाते तो बेटियों पर ही दांव खेलते हैं। तमाम तरह के सामाजिक विरोध के बावजूद महावीर सिंह दो बेटियों को नेशनल लेवल की चैंपियन बनाने में सफल रहते हैं। उनका सपना पूरा तब होता है जब एक बेटी कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीतती है।

फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि अगर आप नेशनल स्तर पर सफलता हासिल कर भी लेते हैं जरूरी नहीं कि आपको इंटरनेशनल स्तर पर भी उसी तरह से कामयाबी मिल जाए। कोचिंग का एक बड़ा रोल है। नेशनल टीम का कोच उस भावना से नहीं सोच सकता जिस तरह से एक पिता या फिर देश के लिए कुछ करने का सपना रखने वाला खिलाड़ी।
फिल्म के निर्देशक नितेश तिवारी के निर्देशन में उतनी परिपक्वता नहीं नजर आती जितनी इस तरह की फिल्मों में दरकार होती है। कई स्थानों पर वे पंच देने का मौका मिस कर देते हैं। जब गीता अपने पिता को कुश्ती में हराकर पटियाला लौटती है तो उस सीन को और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता था। इसी तरह जब महावीर सिंह अपनी बेटियों के बाल कटवाते हैं वह सीन और अधिक गंभीरता से फिल्माया जाना चाहिए था। उस सीन को लेकर दर्शक को अगर हंसी आ रही है तो इसका मतलब है कि निर्देशक उस सीन की अहमियत समझाने में विफल रहा है। यह फिल्म का एक टर्निंग प्वाइंट था। फिल्म में एक सीन में जब किशोर उम्र की गीता व उसकी बहन एक सहेली की शादी में जाती हैं तो दुल्हन से कहती हैं कि ऐसा बाप किसी को न मिले जो अपनी बेटियों से कुश्ती करवाता है। इस पर उनकी सहेली कहती है कि तुम खुशकिस्मत हो कि तुम्हारा बाप तुम्हें कुछ बनाना चाहता है दूसरे पिताओं की तरह नहीं जो अपनी बेटियों को बोझ समझते हैं और शादी करके इससे छुटकारा पा लेते हैं। यह सीन संवादों की कमजोरी की वजह से हल्का लगता है जबकि यह बहुत ही खास सीन था। इसी तरह पटियाला स्थित एनआईएस (नेशनल इंस्टीट्यूट आफ स्पोट्र्स) को फिल्म में इस तरह से पेश किया गया है जैसे वहां खिलाड़ी खेलने के बजाय मौज मस्ती करने ही जाते हैं। वहां की कोचिंग को भी बहुत ही सतही स्तर की बताया गया है। हो सकता है कि गीता फोगट के केस में ऐसा रहा हो लेकिन एनआईएस देश का सबसे बड़ा खेल संस्थान है और न जाने कितने खिलाड़ी वहां से निकलते हैं। खैर फिल्मों में अक्सर ऐसा दिखाया जाता रहा है।

फिल्म की कहानी अच्छी है लेकिन संवाद उतने उच्च कोटि के नहीं हैं। प्रीतम का संगीत केवल फिल्म देखने तक ही सीमित है। ‘सुल्तान’ संगीत के लिहाज से इससे अधिक मजबूत फिल्म थी। अभिनय में आमिर खान हमेशा की तरह अव्वल साबित हुए हैं। बिना किसी निर्देशकीय सपोर्ट के बगैर भी उन्होंने बेहतरीन काम किया है। उनकी पत्नी के रूप में साक्षी तंवर का चुनाव एकदम परफेक्ट है और उन्होंने अपने किरदार से पूरा न्याय किया है। बाकी कलाकारों का काम भी बेहतर है। फिल्म के बारे में सोचा था कि बहुत लंबा चौड़ा लिखा जा सकेगा लेकिन फिल्म देखने के बाद यह कमोबेश आमिर खान की दूसरी फिल्मों से कमजोर ही प्रतीत होती है। यह देखने वाली बात होगी कि यह सुल्तान से आगे निकल पाती है या नहीं?


- हर्ष कुमार सिंह