साल में 5 या 6 फिल्में ही ऐसी आती हैं जिन्हें आप बार-बार देख सकते हैं। दर्शक वीकेंड में एक ऐसी फिल्म का इंतजार करते हैं जिसमें वे परिवार के साथ कुछ घंटे बिता सकें। फिल्म जरा सी औसत भी होती है तो भी लोग देख लेते हैं। पिछले दिनों रिलीज हुई ‘गोल्ड’ व ‘सत्यमेव जयते’ जैसी दोयम दर्जे की फिल्में 100 करोड़ के आसपास का कारोबार इसलिए कर ले रही हैं क्योंकि ये कम से कम टाइम पास फिल्में तो हैं ही। निर्देशक कबीर खान का कहना है कि बालीवुड में अच्छी स्क्रिप्ट का अकाल है। उनकी बात एकदम सही है। कहानी में जरा सी भी कुछ नयापन हो तो लोग फिल्म देख ही लेते हैं। ‘स्त्री’ भी एक ऐसी ही फिल्म है।
Rating 2*
‘स्त्री’ वैसे तो अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाली फिल्म है लेकिन जिस प्रकार निर्देशक अमर कौशिक ने इसे पेश किया है उससे यह एक हॉरर कॉमडी बन गई है। थोड़ा हंस लिए लोग इसलिए फिल्म मनोरंजक बन गई और अच्छा खासा पैसा कमा रही है। इतना पैसा कि जितना किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी। राजकुमार राव कोई सुपर स्टार नहीं हैं और न ही श्रद्धा कपूर के नाम से दर्शक खिंचे चले आते हैं। फिर भी फिल्म क्यों अच्छी चल रही है। देखिए मेरा रीव्यूः-
अक्षय कुमार के बारे में एक बात जरूर कहना चाहूंगा। बहुत अच्छे अभिनेता
नहीं होने के बावजूद उनके अंदर विषय को पहचान लेने की बहुत ही अच्छी क्षमता
है। उनके समकालीन शाहरुख खान, अजय देवगन आदि के साथ ऐसा नहीं है। अक्षय
समझ लेते हैं कि किस फिल्म से दर्शक आसानी से कनेक्ट हो सकते हैं। एक तरफ
तो वे 'हाउसफुल' जैसी माइंडलैस कॉमेडी करते हैं वहीं दूसरी ओर उनकी
सब्जेक्ट आधारित फिल्मों की लिस्ट देखिए बहुत लंबी है।
Rating 3*
मैंने पहले भी कहा है कि खेलों पर आधारित फिल्में दर्शकों से सीधे कनेक्ट हो जाती हैं। फिल्म किसी भी खेल पर बनी हो लेकिन उसका देशप्रेम से सीधा नाता हो जाता है। यानी डबल इमोशनल। फिर 'गोल्ड' तो आजादी के बाद भारत के पहले ओलंपिक गोल्ड मैडल जीतने के अभियान से जुड़ी हुई है। यहां तो और भी ज्यादा भावनाएं उमड़ पडऩा लाजिमी था। भारत कभी हाकी में दुनिया की सबसे बड़ी ताकत रहा है यह तो सब जानते होंगे लेकिन आजादी से पहले जीते दो स्वर्ण पदक व आजादी के बाद मिली जीतों के फर्क को ज्यादा लोग समझ नहीं सकते। भारत ने आखिरी बार ओलंपिक गोल्ड 1980 के मास्को ओलंपिक में जीता था और उस समय अमेरिकी व उसके समर्थक देशों ने बायकाट किया हुआ था। इसलिए उसे ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता।
खैर मेरा मानना है कि फिल्म का प्लाट जानदार है और इस पर एक बहुत शानदार फिल्म बननी तय थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रीमा कागती ने यह बहुत बड़ा अवसर खो दिया। शानदार विषय को कमजोर निर्देशन की वजह से बेकार कर दिया गया। रीमा कागती ने इससे पहले 'हनीमून ट्रैवल्स लि.' व 'तलाश' फिल्में बनाई हैं। दोनों ही बुरी तरह से फेल रही थी। 'तलाश' तो पिछले 15 साल में आमिर खान की एकमात्र फ्लॉप फिल्म है। रीमा कागती लकी हैं कि उन्हें फरहान अख्तर व रीतेश सिडवानी जैसे निर्माता मिले जिन्होंने उन्हें एक और अवसर दे दिया। शायद यहां सब्जेक्ट विनर था। उन्हें लग रहा था कि इस पर 'चक दे इंडिया' जैसी फिल्म बन जाएगी। इसलिए शायद उन्होंने 'चक दे इंडिया' को बार-बार देखा भी। बस यहीं गड़बड़ हो गई। फिल्म को 'चक दे इंडिया' बनाने के चक्कर में रीमा मात खा गईं। फिल्म में देश, धर्म, क्षेत्रवाद, हाकी फेडरेशन की राजनीति आदि का ऐसा घालमेल उन्होंने किया कि फिल्म अपने मूल विषय से भटक गई। फिल्म के क्लाईमैक्स को छोड़ दिया जाए तो फिल्म कहीं भी बांध नहीं पाती है।
अक्षय कुमार के बारे में एक बात जरूर कहना चाहूंगा। बहुत अच्छे अभिनेता नहीं होने के बावजूद उनके अंदर विषय को पहचान लेने की बहुत ही अच्छी क्षमता है। उनके समकालीन शाहरुख खान, अजय देवगन आदि के साथ ऐसा नहीं है। अक्षय समझ लेते हैं कि किस फिल्म से दर्शक आसानी से कनेक्ट हो सकते हैं। एक तरफ तो वे 'हाउसफुल' जैसी माइंडलैस कॉमेडी करते हैं वहीं दूसरी ओर उनकी सब्जेक्ट आधारित फिल्मों की लिस्ट देखिए बहुत लंबी है। 'बेबी', 'पैडमेन', 'टायलेट एक प्रेम कथा', 'रुस्तम', 'एयरलिफ्ट' आदि आदि।
शायद ये फिल्म भी अक्षय ने यह समझकर साइन कर ली कि सब्जेक्ट बढिय़ा है। इसमें अक्षय की कोई गलती नहीं। हालांकि जब फिल्म बन रही थी तो उन्हें इसका आभास होना चाहिए था कि कहां गलती हो रही है। कम से कम फिल्म की फाइनल कॉपी देखकर उन्हें वे दो गीत तो जरूर निकलवा देने चाहिए थे जिसमें वे शराब पीकर क्लब में नाचते हैं। फिल्म छोटी भी हो जाती और अक्षय का कैरेक्टर भी बैलेंस हो जाता। यकीन मानिए तपनदास (अक्षय कुमार) के किरदार का खराब चरित्र चित्रण इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। उसे शराबी, जुआरी, सट्टेबाज, बीवी (मौनी रॉय) से पिटने वाला, झूठा और न जाने क्या-क्या दिखा दिया गया है। फिल्म ने बॉक्स आफिस पर ओपनिंग अच्छी ली है लेकिन यदि निर्देशक ने थोड़ी मेहनत की होती तो यह फिल्म बहुत बड़ी हिट हो सकती थी।
कहानी आपको पहले ही बता चुका हूं लेकिन फिर भी बता देता हूं। भारत आजादी से पहले बर्लिन ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतता है तो टीम व उसके असिस्टेंट मैनेजर को लगता है कि यह जीत तो ब्रिटिश सरकार के नाम गई। तपनदास सपना देखता है कि एक दिन उसकी टीम आजाद भारत में भी गोल्ड जीतेगी। अगले दो ओलंपिक विश्व युद्ध की भेंट चढ़ जाते हैं। 1948 के ओलंपिक लंदन में होने तय होते हैं तो तपनदास फिर से टीम जुटाने लगता है। काफी मेहनत के बाद जब टीम तैयार होने वाली होती है तो देश का बंटवारा हो जाता है और आधी टीम पाकिस्तान चली जाती है। तपन फिर से प्रयास करता है तमाम कठिनाइयों के बाद आखिरकार भारत गोल्ड जीतने में सफल रहता है।
फिल्म की कहानी ठीक-ठाक है और स्क्रीनप्ले में भी कोई कमी नहीं है बस निर्देशन में खराबी है। कुछ सीन बहुत ही जल्दी में शूट किए गए हैं। मैदान में ईंटें एक ओर से दूसरी ओर रखने वाला सीन यदि गंभीरता से फिल्माया गया होता यह बड़ा संदेश दे सकता था। किसी भी सीन की आत्मा में निर्देशक घुस नहीं पाई हैं।
इसके अलावा फिल्म का संगीत बहुत ही कमजोर है। ऐसी फिल्मों में संगीत का अच्छा होना भी जरूरी है। अक्षय की फिल्मों में एकाध गीत जरूर अच्छा होता है लेकिन यहां कोई भी गीत यादगार नहीं है। शराब पीकर बंगाली तपनदास जब पंजाबी गीत पर भंगड़ा करता है तो बहुत ही बेहूदा लगता है। संवाद खराब हैं। अच्छे संवाद भी फिल्म को मजबूती देते हैं। अभिनय में अक्षय कुमार ने हमेशा की तरह अच्छा काम किया है। मौनी रॉय को पहली बार बड़ा ब्रेक मिला है लेकिन वे प्रभावित नहीं करती। उनके बड़े बड़े होंठ अजीब लगते हैं। इस मामले में टायलेट में भूमि पेढनेकर ने कमाल किया था। साधारण नैन नक्श होने के बाद भी झंडे गाड़ दिए थे।
कुल मिलाकर यह फिल्म केवल एक बार देखी जा सकती है। यह तो इस फिल्म की किस्मत है कि 15 अगस्त की रिलीज की वजह से इसे अच्छी ओपनिंग मिली और इसके सामने 'सत्यमेव जयते' जैसी कमजोर फिल्म है नहीं तो इसका बाक्स आफिस कलेक्शन ज्यादा अच्छा नहीं रह पाता। वीकेंड पर टाइम पास करना चाहते हैं तो यह फिल्म बुरी नहीं है।
- हर्ष कुमार सिंह
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अनुष्का-वरुण के सच्चे किरदारों वाली दर्शक से कनेक्ट होती नजर आने वाली कहानी
हमारे फिल्मकार देश दुनिया में घटित हो रही घटनाओं से प्रेरणा लेकर फिल्में बनाना सीख रहे हैं। ऐसा अच्छे लेखकों व कहानियों के अभाव की वजह से हुआ है। अच्छे किरदार घडऩा लेखकों के बूते नहीं है। इसलिए रीयल लाइफ हीरोज ढूंढे जा रहे हैं। चाहे वे खिलाड़ी (धोनी, सूरमा, सचिन, मिल्खा, मैरीकॉम, दंगल, गोल्ड आदि) हों या फिर समाज में कुछ नया करने वाले सोशल हीरो (मांझी, शाहिद, नीरजा, पैडमैन, टॉयलेट आदि)। ऐसा हमेशा से होता रहा है। कभी बालीवुड में उपन्यासों पर फिल्में बनाने का दौर भी था।
हमारी सरकार के मेड इन इंडिया व स्किल इंडिया के स्लोगन से निकला हुआ लगता है 'सुई धागा' का सब्जेक्ट। राजस्थान की बैकग्राउंड पर बनाई गई है फिल्म। ट्रेलर देखने के बाद लगता है कि इसका मुख्य किरदार मौजी (वरुण धवन) जो घर परिवार में सम्मान अर्जित करने के लिए संघर्ष कर रहा है अचानक अपने पैर पर खड़े होने का फैसला ले लेता है।
इसमें उसकी प्रेरणा बनती है पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा)। ममता उसके आत्मसम्मान को झकझोरती है और सिलाई मशीन की दुकान पर मामूली नौकरी करने वाला मौजी अपने संघर्ष से बन जाता है एक टैक्सटाइल कंपनी का मालिक। ट्रेलर देखकर तो ऐसा ही लगा। अब वह टैक्सटाइल कंपनी में काम करता दिखाया गया है या मालिक बनता दिखाया गया है यह तो फिल्म में ही साफ हो पाएगा? लेकिन जिस वरुण को यह कहते हुए दिखाया गया है कि जब कंपनी इंडिया की है तो कपड़े पर भी मेड इन इंडिया ही लिखेंगे। अब यह फैसला तो कोई मालिक ही ले सकता है। इस तरह की कई फिल्में पहले भी बनी हैं जिनमें हीरो को फर्श से अर्श पर पहुंचते हुए दिखाया गया है।
इस तरह के सब्जेक्ट लोगों को लुभाते हैं और दर्शक बहुत जल्दी कनेक्ट हो जाते हैं। हमारे देश में हर इंसान अपने संघर्ष में जुटा हुआ है और उसे फिल्मी हीरो को जीतते हुए देखने में अपनी जीत नजर आती है। बहरहाल फिल्म अच्छी नजर आ रही है। यशराज का बैनर है और आदित्य चोपड़ा जैसा प्रोड्यूसर, प्रोडक्ट तो बेहतर बनना ही है। सबसे खास बात है कि लीड स्टार्स मुख्य किरदारों में एकदम परफेक्ट नजर आ रहे हैं। वरुण धवन से ज्यादा अनुष्का रोल के अधिक करीब नजर आ रही हैं। वरुण फिर भी फिल्मी हीरो टाइप लग रहे हैं लेकिन अनुष्का ने तो खुद को पूरी तरह से बदल दिया है। 200 रुपये की धोती में लिपटी गांव देहात की घरेलू महिला। फिल्म कैसी होगी यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा लेकिन अनुष्का शर्मा और वरुण के खाते में एक और बेहतर फिल्म आती नजर आ रही है। गीत-संगीत के बारे में अभी कोई आइडिया नहीं हुआ है। निर्देशक शरत कटारिया ने इससे पहले 'दम लगा के हईशा' बनाई थी जो अपने सब्जेक्ट की वजह से सराही गई थी। उसमें तो अनु मलिक ने संगीत भी अच्छा दिया था, देखते हैं इस बार क्या करेंगे?
अभिषेक बच्चन ने कुछ महीने पहले अनुपमा चोपड़ा के साथ एक इंटरव्यू में कहा था कि वे तीन साल से कोई फिल्म इसलिए नहीं साइन कर रहे हैं क्योंकि वे कुछ ऐसा करना चाहते हैं जो उन्हें व उनके फैंस को चौंका दे। 'हाउसफुल 3' के बाद से उनकी कोई फिल्म आई भी नहीं है। 'मनमर्जियां' साइन करते समय वे उलझन में थे कि अनुराग कश्यप के साथ फिल्म करें या नहीं? अनुराग से उनकी पुरानी अनबन भी थी लेकिन फिर भी अभिषेक ने इस फिल्म को साइन किया और ट्रेलर को देखकर लग रहा है कि अभिषेक वास्तव में अलग नजर आ रहे हैं इस फिल्म में। एक सिख युवक रॉबी के किरदार में वे बहुत ही संयत व मैच्योर नजर आ रहे हैं।
अनुपमा चोपड़ा के साथ अभिषेक का बेहतरीन इंटरव्यू यहां देखें-
हो सकता है कि यह फिल्म उनके कैरियर को एक नई दिशा दे दे, लेकिन ट्रेलर देखने के बाद तो मुझे यही लगा कि और किसी का फायदा हो या न हो लेकिन विक्की कौशल का रोल जरूर सबको पसंद आने वाला है। वे हंगामा किए दे रहे हैं और तापसी पन्नू के साथ उनकी कैमिसट्री आग लगा देने वाली नजर आ रही है। मुझे डर है कि कहीं विक्की इस फिल्म में भी वही न कर दें जो उन्होंने 'संजू' में किया। 'संजू' में उन्होंने रणबीर की चमक को भी फीका कर दिया था। इस फिल्म में भी विक्की सबको चौंकाने की तैयारी में हैं।
मनमर्जियां का ट्रेलर देखें-
ट्रेलर देखने के बाद कहानी मुझे कुछ इस तरह समझ में आई- पंजाब की पृष्ठभूमि है। जैसा कि मोहल्लों में अक्सर होता है। लड़के-लड़की की प्रेम कहानी चल रही है। जिसमें लव से ज्यादा लस्ट है। फिर अचानक ही शादी की बात और तीसरे लड़के का प्रवेश। विक्की (विक्की कौशल) व रुमी (तापसी) के जबर्दस्त किसिंग सीन से ट्रेलर शुरू होता है और दोनों जल्द ही बिस्तर में दिखाए जाते हैं। मतलब दोनों में रोमांस से कुछ आगे भी चल रहा है। बिंदास व मुंहफट रुमी उससे कहती है कि वह घरवालों से शादी की बात करे नहीं तो वह किसी और से शादी कर लेगी। पर विक्की को तो शादी से ज्यादा मां के गोभी के परांठे प्यारे हैं। ऐसे में ही एंट्री होती है एक और सिख युवक रॉबी (अभिषेक बच्चन) की। रॉबी घरवालों के कहने पर रुमी को देखने आता है। पहले तो रुमी घबराती है कंफ्यूज होती है लेकिन फिर विक्की के व्यवहार को देखकर रॉबी से शादी को तैयार हो जाती है। इससे विक्की उत्तेजित होता है और लड़ाई झगड़ा भी होता है लेकिन रुमी व रॉबी की शादी हो जाती है। क्या दोनों की शादी कामयाब हो जाती है? विक्की का क्या होता है? यह साफ नहीं किया गया है। ट्रेलर के अंत में दिखाया गया है कि रुमी को रॉबी का साथ नहीं पसंद आ रहा है और फोन पर वह चाची से कहती नजर आती है कि जब सब कुछ होने वाला होता है तो वह (रॉबी) कंडोम ही भूल जाता है। यहीं से हिंट मिलता है कि फिल्म के अंत में ट्विस्ट है। तनु वेड्स मनु के हिट गीत -
संगीत कुछ वैसा लगता है जैसा आनंद एल राय (निर्माता) की 'तनु वेड्स मनु' में था। फिल्म का प्रस्तुतिकरण भी उसी तरह का लगता है। पर यहां डायरेक्टर अनुराग हैं। कुछ तो फर्क होगा। फिल्म युवा एनर्जी से भरपूर लगती है। तापसी पन्नू इस समय देश की सबसे प्रतिभाशाली और तेजी से उभरती हिरोईनों में से एक हैं और उन्हें अब तक परिपक्व किरदारों में देखने के आदी उनके फैंस इस बोल्ड किरदार में देखकर चौंक सकते हैं। तापसी ने भी कहा है कि वे इस रोल को करके बहुत ही खुश हैं और उन्होंने खूब मजा किया है इस रोल में।
देखते हैं क्या होता है। फिल्म 14 सितंबर 2018 को रिलीज हो रही है।
अंतहीन बहस को मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश है 'मुल्क'
" दरअसल मुल्क एक फिल्म नहीं एक अंतहीन बहस है। यह बहस बरसों बरस दुनिया में चलती रही है कि क्या आतंकवाद का कोई मजहब होता है या सारे आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होते हैं। इसका न कोई अंत है न हल। अतः यह फिल्म भी अंत में एक लंबी चौड़ी बहस पर ही खत्म होती है। डायरेक्टर अनुभव सिन्हा ने बहुत ही साधारण व सीधे शब्दों में इस बहस को निपटाया है।"
Rating - 4*
मनोज पाहवा का नाम आपमें से कम लोग जानते होंगे। वे छोटे-छोटे किरदारों को बड़ा बनाने की कुव्वत रखते हैं। पर आपने उन्हें हमेशा हास्य कलाकार के रूप में ही देखा है। मोटा सा आदमी जो अपने शरीर व मोटी गर्दन से अजीब सा नजर आता है और बस उसे देखकर हंसा जा सकता है, लेकिन यकीन मानिए 'मुल्क' देखने के बाद आपकी अवधारणा पाहवा के बारे में बदल जाएगी। फिल्म में इंटरवल से पहले एक सीन है जिसमें वे अपने बड़े भाई से जेल के भीतर बातचीत करते हैं और कहते हैं कि मैं तो नहीं बच पाऊंगा लेकिन हो सके तो तुम (तापसी) भाई साहब (ऋषि कपूर) को बचा लेना बेटा। इस सीन में पाहवा ने झंडे गाड़ दिए हैं। वैसे तो इस फिल्म में सभी कलाकार खरे सोने की तरह हैं लेकिन पाहवा और तापसी पन्नू की चमक देखते ही बनती है।
अक्सर फिल्म शुक्रवार को ही देखकर रीव्यू कर दिया करता हूं लेकिन 'मुल्क' देखने का वक्त रविवार को मिला। ये देखकर बहुत ही धक्का लगा कि जिस मल्टीप्लेक्स में देखना था उसमें केवल दो ही शो में फिल्म चल रही है। दोनों में टिकट तेजी से बिक रहे थे। पत्नी के साथ जल्दी से निकला और जाकर बारिश के मौसम में जहां भी टिकट मिली ले ली और फिल्म देखी। बाहर निकले तो बारिश हो रही थी। सिनेमा ज्यादा दूर नहीं था इसलिए गाड़ी घर पर ही खड़ी कर पैदल गए और भीगते हुई वापस आए, पर यकीन मानिए जरा भी अफसोस नहीं हुआ। इतनी बेहतरीन फिल्म देखकर किसी को भी किसी बात का मलाल नहीं होना चाहिए।
दरअसल 'मुल्क' एक फिल्म नहीं अंतहीन बहस है। यह बहस बरसों बरस दुनिया में चलती रही है कि क्या आतंकवाद का कोई मजहब होता है या सारे आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होते हैं? इसका न कोई अंत है न हल। अतः यह फिल्म भी अंत में एक लंबी चौड़ी बहस पर ही खत्म होती है। डायरेक्टर अनुभव सिन्हा ने बहुत ही साधारण व सीधे शब्दों में इस बहस को निपटाया है। उतना ही खींचा जितना कि दर्शक हजम कर सकें। इससे ज्यादा खींचते तो बोझिल हो जाती फिल्म।
कहानी वाराणसी में रहने वाले वकील मुराद अली (ऋषि) के परिवार की है। उनके छोटे भाई बिलाल (मनोज पाहवा) का बेटा शाहिद (प्रतीक बब्बर) आतंकवादियों के बहकावे में आ जाता है। एक बम धमाके में लिप्त होने के बाद शाहिद को पुलिस मुठभेड़ में मार गिराती है। अचानक ही पूरे परिवार पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ता है। बिलाल को गिरफ्तार कर लिया जाता है। सरकारी वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा) पूरे परिवार पर आरोप लगाता है कि सभी आतंकवादी नेटवर्क से जुड़े हैं। मुराद अली को भी इस मामले में आरोपी बना दिया जाता है। मुराद अली को अचानक अपने दोस्तों-पड़ोसियों में भी भारी बदलाव नजर आने लगता है। सभी उनके परिवार को दोषी मानते हैं। सबको लगता है कि पूरा परिवार यह जानता था और सभी इसमें लिप्त हैं। मुराद अली के सामने दिक्कत थी वे केस लड़ें या समाज से। बिलाल की मुकदमे के दौरान दिल का दौरा पड़ने से मौत हो जाती है। थककर वे मुकदमा लड़ने का जिम्मा अपनी हिंदू बहु आरती (तापसी पन्नू) पर छोड़ देते हैं। लंदन में रहने वाली आरती कुछ समय के लिए ही यहां आई थी। अंत में सच की जीत होती है।
फिल्म को ओरिजनल लोकेशंस पर शूट किया गया है। यही सबसे बड़ी ताकत है फिल्म की। मुराद अली का घर सेट नहीं नजर आता। गली-मोहल्ला वास्तविक नजर आता हैं और कलाकार तो सभी कमाल के थे ही। तापसी पन्नू तो इसकी हीरो हैं। कोर्ट में बहस के दौरान तापसी ने जबर्दस्त काम किया है। ऐसे किरदारों के लिए तो वे एकदम फिट हैं। कई फिल्में इस तरह की कर लेने के बाद अब उनमें किरदार में घुस जाने की कला खूब आ गई है। वकील के लबादे में वे वकील नजर आती हैं और यही उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी जीत है। इस रोल के लिए उन्हें सभी अवार्ड नोमिनेशंस तो मिलने ही हैं। हो सकता है कोई पुरस्कार भी मिले।
ऋषि कपूर के लिए तो ऐसे किरदार बाएं हाथ का खेल हैं। वे अपने कैरियर के सबसे खूबसूरत दौर से गुजर रहे हैं। एक से एक भिन्नता लिए हुए रोल उन्हें मिल रहे हैं और वे बहुत ही सहजता से उन्हें निभा देते हैं। नीना गुप्ता भी काफी समय बाद दिखी और शानदार रोल निभाया उन्होंने। जज के रोल में कुमुद मिश्रा, पुलिस अफसर के रोल में रजत कपूर और बिलाल की बीवी के रोल में प्राची शाह ने भी अपने रोल को बढ़िय़ा निभाया है। लेखक की खास बात यह रही कि उसने सभी कलाकारों को कम से कम एक जोरदार सीन जरूर दिया है। फिल्म तकनीकि रूप से भी बढ़िया है। संगीत की जरूरत थी नहीं। तीन गीत हैं जो सिचुएशन के हिसाब से अच्छे लगते हैं।
फिल्म जिस उद्देश्य से बनाई गई है उसमें यह सफल रहती है और काफी हद तक इस बहस को तार्किक रूप से खत्म करने में सफल रहती है कि हर आतंकी मुसलमान नहीं होता और आतंक का कोई मजहब नहीं होती है। एक सीख भी देती है कि हमारे बच्चे किस राह पर जा रहे हैं उन पर भी नजर रखना हमारा फर्ज है। नहीं तो जैसा ऋषि कपूर ने कहा- 'मैं यह कैसे साबित करूं कि मैं अपने मुल्क से बेहद प्यार करता हूं?' यह काम बड़ा कठिन है और कठिन ही रह जाएगा।
'बॉर्डर' का मोह नहीं छो़ड़ पा रहे हैं दत्ता साहब
जेपी दत्ता को 'बॉर्डर' (1997) का हैंगओवर हो गया है। उनके कैरियर की इस सबसे हिट फिल्म ने उन पर इस कदर अपनी छाप छोड़ दी है कि वे इससे बाहर शायद कभी नहीं निकल पाएंगे। 'बॉर्डर' के बाद दत्ता साहब ने 'एलओसी-कारगिल' भी बनाई थी जो बुरी तरह से फेल रही थी। उसकी स्टार कास्ट व स्केल किसी भी तरह से 'बॉर्डर' से कम नहीं था लेकिन फिल्म फेल रही थी।
एकदम झटका लगने के बाद दत्ता साहब ने आफबीट जाते हुए अपने मिजाज से हटकर 'उमराव जान' (2006) भी बनाई। इसमें ऐश्वर्या राय व अभिषेक बच्चन थे लेकिन फिल्म चली नहीं। हां इस फिल्म के दौरान दोनों के बीच प्यार पनपा और वे जीवनसाथी जरूर बन गए।
अब जेपी दत्ता लगभग 12 साल बाद एक फिल्म लेकर आए हैं - 'पलटन'। जैसा कि नाम से जाहिर है यह फिल्म भी युद्ध की बैकग्राउंड पर ही आधारित है। 2 अगस्त को 'पलटन' का ट्रेलर रिलीज किया गया और फिल्म 7 सितंबर को रिलीज हो रही है। फिल्म में वैसे तो सितारों की भरमार है लेकिन पापुलर स्टार केवल अर्जुन रामपाल, जैकी श्रॉफ व सोनू सूद ही हैं। बाकी गुरमीत चौधरी, हर्षवर्धन राणे, रोहित राय, सिद्धांत कपूर (शक्ति कपूर का बेटा) लव सिन्हा (शत्रुघ्न सिन्हा का बेटा) आदि हैं। इन सबको मैं पहचानता नहीं और फिल्म के ट्रेलर में सभी आर्मी की वेशभूषा में एक जैसे ही नजर आ रहे हैं।
see trailer of 'PALTAN'
3 मिनट 11 सेकेंड लंबे इस ट्रेलर में दिखाया गया है कि 1962 में भारत चीन से युद्ध हार गया। बाद में 5 साल बाद नाथूला इलाके में एक जमीन के टुकड़े को लेकर भारत व चीन की सेनाएं भिड़ी थी। इसी सच्ची घटना को लेकर यह फिल्म बनाई गई है। इस ट्रेलर में केवल यही दिखाया गया है कि घटना के दौरान फौजियों के बीच क्या हुआ। कैसे एक दूसरे से भिड़े, कैसे पथराव हुआ, कैसे गोलियां चलीं आदि-आदि।
लव सिन्हा
इसे देखने के बाद फिल्म की मूल कहानी का अंदाज तो हो जाता है लेकिन यह पता नहीं चलता कि इसमें इस युद्ध के अलावा क्या दिखाया गया है? हिरोईनों की झलक एक-एक सेकेंड के लिए दिखाई गई। उनके सीन देखकर लगा कि जिस तरह से फौजी 'बॉर्डर' फिल्म में अपनी पत्नियों व प्रेमिकाओं को छोड़कर आए थे उसी तरह यहां भी हुआ है। हिरोईनों को मैं पहचान ही नहीं पाया। इंटरनेट पर तलाशा तो पता चला कि इसमें सोनल चौहान, मोनिका गिल, एशा गुप्ता आदि हिरोईनें हैं। वैसे अर्जुन व जैकी की बाक्स आफिस पर क्या हैसियत है आज के दौर में यह सब जानते हैं। ट्रेलर से इसके गीत-संगीत का कोई आइडिया नहीं होता। इसमें पता नहीं कोई गीत भी है या नहीं। जबकि 'बॉर्डर' का सबसे सशक्त पहलू उसका संगीत ही था। फिल्म चूंकि 1967 के कालखंड पर आधारित है इसलिए मुझे नहीं लगता कि इसमें ज्यादा प्रयोग दत्ता साहब कर पाए होंगे। फिल्म में कितने इमोशंस जेपी साहब जगा पाते हैं इसी पर सारा दारोमदार टिका है इस फिल्म का। ट्रेलर को देखकर तो ज्यादा उम्मीदें नहीं जग रही हैं।