Wednesday 5 October 2016

Main Aur Amitabh- the untold story

मैं और अमिताभ- अनकही कहानी

अमिताभ बच्चन को लेकर इतना कुछ लिखा जाता है और लिखा जा चुका है कि कुछ भी नया नहीं लगेगा। इसलिए कुछ ऐसा लिख रहा हूं जो बिल्कुल निजी तौर पर मैंने अनुभव किया। 

मैं ही नहीं जिन लोगों का जन्म 70 या 80 के दशक में हुआ है वो अमिताभ बच्चन के फैन मिलेंगे ही यह जान लीजिए। जो फिल्म प्रेमी नहीं हैं उनके बारे में मैं नहीं कह सकता। अमिताभ की फिल्में देखकर बड़े हुए और उनके प्रशंसक होने के नाते उनके जीवन से जुड़ी हर एक गतिविधि को अखबारों व मैगजीन के जरिये फॉलो किया। मैगजीन से याद आया। उन दिनों एक वीकली मैगजीन आया करती थी 'साप्ताहिक हिंदुस्तान’ (हिंदुस्तान टाइम्स प्रकाशन द्वारा टाइम्स ग्रुप की 'धर्मयुग’ की टक्कर में शुरू की गई पत्रिका)। मैगजीन में एक सेक्शन फिल्मों का भी हुआ करता था। एक पूरे पेज का रंगीन पोस्टर छपा करता था। हर बार किसी अभिनेता या अभिनेत्री का रंगीन चित्र। ऐसे ही एक बार अमिताभ का फोटो छपा। काले रंग की पैंट और नीले रंग का कोट पहने हुए बच्चन का फुलर पोज। अमिताभ के दोनों हाथ कोट के नीचे पहनी जैकेट की जेबों में। गजब का फोटो था। घर में मां द्वारा मंदिर में लगाई गई भगवान की कुछ पुरानी तस्वीरों के कांच के फ्रेम पड़े थे। एक में से हनुमान जी की पुरानी फोटो निकालकर मैंने अमिताभ की फोटो लगाकर शो केस में रख दी। ये तस्वीर मुझे इसलिए याद रही क्योंकि इसी फोटो को देखकर मैंने बाल निकालने सीखे। जी हां, इससे पहले मां जिस तरह बाल निकाल दिया करती थी उसी तरह से सारा दिन। यही वो फोटो थी जिसे देखकर मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न खुद ही कंघी का जाए। अमिताभ ने किस तरह से अपने बाल निकाले हुए हैं, शीशा बगल में ही रख लिया और उसे देख-देखकर बाल बहाने शुरू कर दिए। मां ने बाद में देखा तो गुस्सा भी किया लेकिन मैं नहीं माना। मुझे तो बाल बच्चन स्टाइल में ही बहाने थे। हालांकि यह कभी हो नहीं पाया क्योंकि कभी भी बड़े बाल नहीं रख पाया और ये आरजू अधूरी ही रह गई।

अमिताभ की कौन सी फिल्म पहली बार देखी थी कुछ खास नहीं लेकिन एक बहुत पुराना किस्सा याद आ रहा है। बड़े भाई बच्चन के फैन थे। उन्होंने कई बार साथ ले जाकर मुझे फिल्में दिखाई। 'दोस्ताना’, 'शोले’ (रिलीज के कुछ साल बाद), 'मजबूर’, 'अमर अकबर एंथनी’, 'शक्ति’, 'इंकलाब’ जैसी फिल्में उन्होंने ही दिखाई। 'दोस्ताना’ के समय की बात है। 1980 के अक्टूबर महीने में रिलीज हुई 'दोस्ताना’ को लेकर बहुत ही हंगामा मचा हुआ था। इसमें अमिताभ बच्चन व शत्रुघ्न सिन्हा एक साथ आ रहे थे। जीनत अमान हिरोईन थी। गाने रेडियो पर बज रहे थे और सब फिल्म देखने के लिए बेचैन थे। भाई साहब ने एक दिन यह फिल्म देखने का फैसला किया और पहुंच गए मुझे साइकिल पर बैठाकर अलंकार सिनेमा। अलंकार (अब बंद हो चुका है) शहर में बस स्टैंड के ठीक सामने बना हुआ था और इसमें सब लोग फैमिली के साथ फिल्में देखने जाया करते थे। कोई भी अच्छी सी फिल्म आ गई तो बस जानिये की टिकट नहीं मिलेंगे। हम मैटिनी शो देखने पहुंचे थे लेकिन 2.30 बजे से पहले ही टिकट बिक चुके थे। खिड़की बंद थी और उस समय के रिवाज के अनुसार सारी टिकटें ब्लैकियों के पास थीं। भाई साहब कालेज में पढ़ते थे और उनका सिद्धांत था कि फिल्म देखनी है लेकिन ब्लैक में टिकट लेकर नहीं। दोस्तों के साथ जाते थे तो टिकट वैसे ही मिल जाती थी। अब टिकट मिल नहीं रही थी। मैं भी निराश। भाई साहब का मूड आफ हो गया। बोले-आज नहीं देखते फिल्म फिर किसी दिन देखेंगे। मेरे अरमानों पर तो जैसे बिजली गिर गई। मुंह लटकाकर दोनों घर आ गए। कुछ दिन बाद (कितने दिन ये याद नहीं) फिर पहुंचे। फिर वही हाल। भाई साहब कालेज में पढ़ रहे थे तो बजट कुछ कम ही हुआ करता था। फिल्म भी बालकनी में नहीं फस्र्ट क्लास में देखी जाती थी। मुझे याद है कि 4 रुपये का टिकट बालकनी का और 2.25 रुपये का फस्र्ट का। अब दूसरे दिन भी कैसे वापस घर जाएं। भाई साहब ने मेरे उतरे हुए मुंह की ओर देखा और बोले- 'तेरी वजह से टिकट ब्लैक में ले रहा हूं।‘ मन तो उनका भी था फिल्म देखने का लेकिन टिकट ब्लैक में लेने का इल्जाम मुझ पर थोपना चाहते थे। मुझे मंजूर था या इल्जाम। बस फिल्म देखने को मिल जाए। 2.25 रुपये वाली टिकट तीन रुपये में लेकर देखी गई और सच जानिये मजा आ गया। अफसोस इस बात का रहा कि फिल्म का मेरा सबसे पंसदीदा गाना फिल्म का टाइटल गीत निकल गया। यह गाना निकल इसलिए गया क्योंकि फिल्म के पहले सीन में ही यह गाना आ जाता है। टिकट खरीदने के चक्कर में देर हो गई फिल्म शुरू हो गई। खैर ये तो अमिताभ बच्चन की सभी फिल्मों में हुआ करता था। तीन से साढ़े तीन घंटे तक की फिल्में होती थी। शो रेगुलर समय से आधा पौना घंटा पहले ही शुरू हो जाते थे। उस समय इतनी गनीमत हुआ करती थी कि यदि आपकी 10-20 मिनट की फिल्म निकल गई है तो आप गेटकीपर से रिक्वेस्ट करके अगले शो में खड़े होकर फिल्म देख लेते थे। अब 10-20 मिनट की तो फिल्म देख लें लेकिन आधा पौने घंटे की फिल्म कैसे देखी जा सकती थी। गेटकीपर भी बाहर निकाल देता था। 'शान’ फिल्म बहुत ही लंबी थी। पिता जी के साथ देखी थी लेकिन ये भी अधूरी। इन बातों का मलाल बहुत हुआ करता था। बाद में ये सभी फिल्में कई-कई बार देखकर मन की भड़ास निकाली। तो ऐसा था अमिताभ बच्चन की फिल्म को सिनेमाहाल में पहली बार देखने का अनुभव। पहली बार इसलिए कह रहा हूं कि दस साल की उम्र में ये देखी थी इसलिए याद है। इससे पहले पिता जी ने 'शोले’, 'जंजीर’ या और कोई दूसरी फिल्म भी दिखाई होगी लेकिन मुझे याद नहीं है। बाद में पिताजी के साथ पूरे परिवार ने 'सुहाग’, 'नमक हलाल’, 'शराबी’, 'नसीब’ जैसी फिल्में भी देखी।

1981 की गर्मियों में प्रकाश मेहरा निर्देशित 'लावारिस’ रिलीज हुई थी। पहले गर्मियों में फिल्में रिलीज करना अच्छा माना जाता था। बच्चों के स्कूल बंद हो जाते थे और छुट्टियों में बच्चों की फिल्म देखने की तमन्ना पूरी हो जाए तो बस समझिए कि छुट्टी वसूल। आज की तरह टीवी व इंटरनेट नहीं था। दूरदर्शन पर ही एकाध फिल्म आया करती थी। बड़े-बड़े निर्माता गर्मियों में रिलीज को अच्छा मानता थे। डेढ़ दो महीने तक लोग फिल्म देखते थे और अगर अच्छी हो तो परिवार के साथ दो-तीन बार भी देख लेते थे लोग। उस समय टिकटों के रेट भी आज की तरह महंगे नहीं थे। हर वर्ग के लोग फिल्में देखने लायक तो पैसे निकाल ही लेते थे। 'लावारिस’ ब्लाकबस्टर साबित हो रही थी। शायद यही वजह थी कि पिता जी ने ये फिल्म मुझे भी दिखाने का फैसला किया। पिता जी भी फिल्मों के शौकीन कालेज टाइम से ही थे। उन्होंने मां से कहा कि वे आफिस से सीधे सिनेमा हाल पहुंच जाएंगे और तुम दोनों (मैं और मां) वहीं पहुंच जाना 12 बजे तक। मीनाक्षी सिनेमा (जो हाल ही में बंद हुआ है) घर से बहुत दूर था इसलिए मां और मैं रिक्शा से सिनेमा हाल पहुंचे। हम 12 बजे से पहले ही पहुंच गए और टिकट खिड़की के पास ही पिता जी का इंतजार करने लगे। खिड़की बंद थी और टिकट बिक चुके थे। बस कुछ ब्लैकिये ही बाहर घूम रहे थे। फिल्म भी शुरू हो चुकी थी। हम इंतजार कर रहे थे कि पिता जी कब आएंगे। पिता जी पहुंचे 12.15 बजे के करीब। शायद उन्हें अंदाजा था कि फिल्म की स्थिति क्या है। इसलिए आनन-फानन में ब्लैकिये से टिकट ले लिए। मेरे ख्याल से बालकनी वाला 4-5 रुपये का टिकट 15 रुपये में मिला था। अंदर पहुंचे तो अंधेरा। गाना चल रहा था 'अपनी तो जैसे तैसे’। जिन लोगों ने 'लावारिस’ देखी है वो जानते होंगे कि ये गाना कितनी देर बाद आता है। हमारी फिल्म लगभग एक घंटे की निकल चुकी थी। मेरा मूड खराब। पिता जी गेटकीपर से सीट की व्यवस्था कराने के लिए कह रहे थे। पूरी बालकनी में एक ही सीट खाली थी। उस पर मां बैठ गई। पिता जी और मैं खड़े हुए फिल्म देख रहे हैं। गेटकीपर कहीं से एक स्टूल लाया और वहीं मां की सीट की बगल में रख दिया। कहा- 'अभी टिकट चेक कर लूं। इंटरवल में आपको एडजस्ट करा दूंगा। जरूर कोई बिना टिकटवाला बैठा होगा।‘ यही हुआ। इंटरवल में जाकर सीट का इंतजाम हुआ और मैं और मां एक जगह और पिता जी कहीं और बैठे। एक और फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' पिता जी ने दिखाई थी और उसमें जब अंदर पहुंचे तो गाना चल रहा था रोते हुए आते हैं सब। यानी एक घंटे की फिल्म ये भी निकल गई।

अमिताभ बच्चन के चोटिल होने के बाद 'कुली’ (83) रिलीज हुई थी तो 25 सप्ताह से भी ज्यादा समय तक हमारे शहर में चली थी और भाई साहब ने मुझे दिखाई पर रिलीज के कई हफ्ते बाद। पर इतना तो आभास हो गया था कि अमिताभ बच्चन जैसा स्टार कोई नहीं। 'त्रिशूल’, 'द ग्रेट गैंबलर’, 'मि.नटरवरलाल’, 'सिलसिला’ जैसी फिल्में भी इसी दौर में आई लेकिन इन्हें देखने का मौका नहीं मिल सका। 'कालिया’, 'खुद्दार’, 'सत्ते पे सत्ता’, 'बेमिसाल’, 'जुर्माना’ आदि भी नहीं देख पाया। या यूं कहिए कि भाई साहब या पिता जी ने मुझे नहीं दिखाई। उन्होंने खुद देखी हों तो पता नहीं। हां इस दौर की एक फिल्म 'शक्ति’ जरूर भाई साहब ने दिखाई। फिल्म बहुत ही गजब की लगी। हालांकि ये थोड़ी अलग स्टाइल की फिल्म थी, गंभीर सी लेकिन उस समय तक इतनी समझ तो विकसित हो चुकी थी कि फिल्म की कहानी, डायलाग व अभिनय का आकलन कर सकें। कुछ साल बाद पता चला कि फिल्म के लिए दिलीप कुमार को बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला। वैसे ये कहानी भी दिलीप कुमार को ध्यान में लिखकर लिखी गई थी लेकिन मेरा आज भी मानना है कि अमिताभ बच्चन ने उनसे बेहतर अभिनय किया था लेकिन चूंकि उनका रोल एक सहायक अभिनेता की तरह से थोड़ा निगेटिव शेड के साथ पेश किया गया था इसलिए दिलीप कुमार बाजी मार ले गए।

1984 में 'शराबी’ आई और पिता जी ने पूरे परिवार के साथ ये फिल्म देखी। सही बताऊं तो ये फिल्म मुझे उस समय ज्यादा अच्छी नहीं लगी क्योंकि इसमें एक्शन नहीं था। अब देखते हैं तो लगता है कि शायद ये उनके कैरियर की सबसे बेहतरीन भूमिका है। बेहतरीन संवाद और अमिताभ की शानदार अदायगी।
थोड़ा बड़े हुए तो बच्चन के प्रति दीवानगी और बढ़ चुकी थी। ये वो दौर था जब देश में राजनीतिक उथल-पुथल चल रही थी। इंदिरा गांधी की मौत के बाद उनके बेटे राजीव गांधी ने दोस्ती का हवाला देकर बच्चन को राजनीति में उतार लिया। 1984-85 में देश में आम चुनाव हुए और अमिताभ को इलाहाबाद से कांग्रेस का टिकट दिया गया। उनके सामने थे दिग्गज राजनीतिक हेमवती नंदन बहुगुणा। उस समय तक राजनीति की समझ नहीं थी। बड़े भाई साहब अक्सर पिता जी के साथ राजनीति पर चर्चा करते थे तो सुनता था कि अमिताभ का बहुगुणा के सामने जीतना मुश्किल होगा। बालक मन था। ये सुनकर लगता था कि भला अमिताभ बच्चन से पापुलर कोई कैसे हो सकता है? वही हुआ भी, बच्चन ने चुनाव जीता और जोरदार तरीके से जीता।

वैसे जितना याद है मेरे हिसाब से ये दौर अमिताभ बच्चन के कैरियर का सबसे लो फेज रहा। अखबारों में उनकी आलोचना ही पढऩे की मिलती थी। इस दौर में केवल एक ही फिल्म उनकी रिलीज हुई और वो थी 'मर्द’ (85)। मुझे साफ याद है कि शहर के प्रकाश सिनेमा में ये फिल्म लगी थी। दर्शक क्षमता के हिसाब से यह सिनेमा हाल बहुत छोटा था। इसी वजह से जैसे ही खिड़की खुलती थी वैसे ही हाउसफुल। मैंने एक दो दोस्तों के साथ इसे अकेले देखने का प्रयास भी किया लेकिन टिकट लेने में सफल नहीं हो सके। ब्लैक में लेकर देखने लायक पैसे नहीं होते थे। लगभग 10-12 हफ्ते बाद बड़े भाई साहब ने ही फिल्म दिखाई और ये फिल्म हमारे शहर में 28 हफ्ते चलने के बाद उतरी। बाद में एक दो बार दोस्तों के साथ भी देख ली।

राजनीति में बिजी रहने की वजह से बच्चन की कोई और फिल्म इस दौर में नहीं आई। बाद में पता चला कि अमिताभ ने राजनीति को अलविदा कह दिया और फिल्मों पर ही ध्यान देने का फैसला किया। मीडिया उनसे नाराज था और उनके इंटरव्यू वगैरह नहीं छपते थे। अमिताभ ने खुद ही मीडिया से किनारा कर लिया था। उनके इस खराब दौर में जो सबसे पहली फिल्म आई वो थी 'शहंशाह’ (88)। 'शहंशाह’ को लेकर बवाल मचा था। तीन साल बाद कोई फिल्म आ रही थी। इस समय तक अकेले ही फिल्म देखने की परमिशन मिल चुकी थी। इसी दौर में वे फिल्में भी देखी जो पहले देखने से चूक गए थे। उस समय रिलीज के बाद जब दोबारा फिल्म रिलीज होती थी तो उसके टिकट सस्ते होते थे और हमारे जैसे स्टूडेंट्स की जेब एडजस्ट कर लेती थी। खैर 'शहंशाह’ के बारे में पता चला कि मिलन सिनेमा में लगेगी। शहर के एक छोर पर बना यह सिनेमा हाल सबसे दूर वाला सिनेमा माना जाता था। 10-15 साल हुए ये सिनेमा भी बंद हो चुका है। एक दोस्त खबर लाया कि फिल्म की एक हफ्ते पहले से एडवांस बुकिंग होगी। ये हमारे छोटे से शहर के लिए बहुत ही बड़ी बात थी। कभी किसी फिल्म की एडवांस बुकिंग सुनी नहीं थी। गर्व के साथ टिकट एडवांस में बुक कराई गई और पहले दिन ही देखी गई। दस हफ्ते तक फिल्म में टिकट नहीं मिले थे लेकिन अखबार में जब खबरें पढ़ते थे तो लिखा होता था कि फिल्म फ्लॉप जा रही है और बच्चन की राजनीति से बालीवुड में वापसी ठंडी रही है। किशोर अवस्था का मन और बस यही ख्याल चलता रहता था कि आखिर इस फिल्म को फ्लॉप कैसे कहा जा रहा है?

इसके बाद आई 'अग्निपथ’, 'हम’, व 'खुदागवाह’ जैसी फिल्मों के प्रति भी मीडिया का रिस्पांस कुछ यही रहा। हालांकि ये तीनों ही फिल्में उनके कैरियर की बेहतरीन फिल्में हैं। इसके बाद 'आज का अर्जुन’ जैसी फिल्म से उन्होंने वापसी की। हालांकि ये फिल्म मुझे पसंद नहीं आई। 'बड़े मियां छोटे मियां’, 'हम किसी से कम नहीं’ 'लाल बादशाह’, 'सूर्यवंशम’ और न जाने ऐसी कितनी ही फिल्में पिछले 10-15 साल में आई जिन्हें मैंने देखा भी नहीं। शायद इसकी वजह यह रही कि बच्चन ने इनमें अपने किरदार अपनी बढ़ती आयु के अनुकूल नहीं किए।
इसके बाद 2000 में 'मोहब्बतें’ व 'कभी खुशी कभी गम’ जैसी फिल्में आई जिनसे अमिताभ ने खुद को मुख्य नायक की भूमिका से अलग कर लिया। इसी के बाद वह दौर शुरू हुआ जिसमें एक से एक विविध भूमिकाओं में हम इस महान अभिनेता को देखते हैं।

एक सवाल हमेशा मन में रहता है कि इस गाने में अमित जी ने हाथ छोड़कर बाइक चलाई थी। उनसे इस बार मिलूंगा तो जरूर पूछूंगा कि ये कैसे किया था उन्होंने। पिछली बार उनसे मिला था तो भूल गया था।

अमित जी के 75वें जन्मदिन पर यही कहना चाहूंगा कि हिंदी सिनेमा के वे सबसे महान अभिनेता हैं और यकीन मानिए वे ही आगे भी बने रहेंगे। कोई आसपास भी नजर नहीं आ रहा है।

- हर्ष कुमार


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अमिताभ बच्चन से अप्रैल 2015 में दिल्ली में मिलने का मुझे मौका भी मिला बाद जिसके अनुभव को आप मेरे ब्लॉग की पुरानी पोस्ट में पढ़ सकते हैं।