टैक्स फ्री क्यों नहीं किया जाता इस तरह की फिल्मों को ?
RATING- 4*
कायदे से यह लेखक की फिल्म है। फिल्म के पहले सीन से ही यह संकेत मिल जाता है कि इसे लिखने का ख्याल लेखक को दिल्ली में हुए निर्भया गैंगरेप कांड के बाद ही आया होगा। इसके बाद लेखक ने एक ऐसे हिंदुस्तान की कल्पना की जो बेगम जान के कोठे में बसता है। वहां अलग-अलग जुबान बोलने वाली औरते हैं जो सैक्स वर्कर होने के साथ-साथ एक परिवार भी हैं। लेखक ने बहुत ही खूबसूरती से इसे भारत की आजादी के वक्त हुए घटनाक्रम से जोड़ते हुए वर्तमान हालात का आइना दिखाने की कोशिश की है। कश्मीर के विवादित मुद्दे को भी छूने का प्रयास किया गया है। फिल्म का अंत बहुत ही विचारोत्तेजक है और देश को मिली आजादी और उसके मायनों पर यह गहरे सवाल छोड़ता है।
फिल्म की कहानी बेगम जान (विद्या) के उस कोठीनुमा कोठे की है जो एक ऐसी जगह पर स्थित है जो भारत और पाकिस्तान के बटवारे के समय बिल्कुल बीचों बीच आ जाती है। अंग्रेजों ने जो सीमारेखा बनाई थी उस पर पूरी तरह पालन करने के लिए कांग्रेस व मुस्लिम लीग के नेता मौके पर पहुंचते हैं। बेगम जान को एक महीने का समय दिया जाता है मकान खाली करने के लिए। इस दौरान बेगम जान तमाम प्रयास करती है कि किसी तरह से ऐसा न हो पाए। तमाम कोशिशें करने के बाद भी जब सफलता नहीं मिलती तो कोठे की सारी औरतें बंदूकें लेकर हमलावरों का सामना करती हैं। यहां पुलिस, नेता, अफसर, हिंदू-मुसलमान, राजा-रंक किसी को नहीं छोड़ा गया है। सब पर कटाक्ष किए गए हैं।
फिल्म बहुत ही डार्क व हार्ट हिटिंग है। मनोरंजन के तत्व इसमें बहुत ही कम हैं। गीत-संगीत भी ऐसा नहीं है जो सुकून दे सके। यह उस क्लास के दर्शकों की फिल्म है जो सिनेमा को समाज का दर्पण समझते हैं। केवल मनोरंजन या वीकएंड पर परिवार के लोगों के साथ कुछ घंटे बिताने की इच्छा रखने वालों के लिए यह फिल्म नहीं है। फिल्म चूंकि वेश्याओं के किरदारों को लेकर गढ़ी गई है इसलिए इसे पारिवारिक बनाने की कोशिश भी फिल्मकार ने नहीं की है। कुछ बहुत ही बोल्ड सीन व डायलाग भी फिल्म में रखे गए हैं। अलबत्ता हर सीन व डायलाग के पीछे एक मतलब है। जब बेगम जान को एक महीने का समय दिया जाता है तो उसका जवाब होता है- ‘महीना गिनना हमें आता है। जब भी आता है हमें लाल करके जाता है।‘ देश आजाद होता है और सब औरतें खुशियां मनाती हैं। तब बेगम जान कहती है- ‘आजादी तो मर्दों के लिए आई है औरतों के लिए कैसी आजादी। आजादी का दिन इज्जत वाले लोग अपने घरों में मनाएंगे, कोठे पर भी कोई नहीं आएगा।‘
वास्तव में कई स्थानों पर फिल्म बहुत ही ऊंचे दर्जे का व्यंग्य कसने में कामयाब होती है। फिल्म में तमाम लेखकीय खूबियां होने के बावजूद यह फिल्म कुछेक सीन के अलावा अपेक्षित रूप से प्रभावी नहीं नजर आती। इसकी कई वजहें हैं। फिल्म को बहुत ही जल्दबाजी, शायद 32 दिन, में ही शूट कर दिया गया है। कुछ सीन और भी अच्छे हो सकते थे लेकिन लगता है कि टीम के पास कम समय था और सब कुछ फटाफट निपटा देना था। कलाकार भी बड़े-बड़े नहीं थे और एक ही सेट पर फिल्म शूट होनी थी इसलिए सब कुछ तेजी से किया गया। पूरी तकनीकी टीम वही थी जो बंगाली फिल्म से जुड़ी थी। उन्हें भी भरोसा था कि उन्हें फिल्म को केवल री-शूट ही तो करना है। इसी में गलती हुई है। कलाकारों को कुछ और समय दिया जाता तो सीन अच्छे हो सकते थे। आर्ट डायरेक्शन भी कुछ खास नहीं है। बटवारे के सीन बहुत ही साधारण नजर आते हैं। ऐसा लगता है जैसे स्टूडियो में ही शूट किए गए हों। चूंकि लेखक की फिल्म है तो हर कलाकार को काम दिखाने का अवसर मिलता है लेकिन कलाकारों की भीड़ के बीच विद्या के अलावा इला अरुण, गौहर खान व चंकी पांडे ने अपनी उपस्थिति मजबूती से दर्ज कराई है। चंकी पांडे तो चौंका देते हैं। उनका गेटअप अलग है। उन्हे कमीने आदमी के रोल में कभी देखा नहीं इसलिए वे बेहद प्रभावित करते हैं। नसीरुद्दीन शाह व विवेक मुश्रान बहुत ही साधारण रहे।
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चंकी पांडे सबको चौंका देते हैं। |
बंगाली में रितुपर्णों सेनगुप्ता लीड में थीं और इसमें विद्या बालन हैं। दोनों ही एकदम परफेक्ट हैं। अलबत्ता विद्या का भारी भरकम शरीर कई बार उनकी एक्टिंग पर भी भारी पड़ता नजर आता है। इस रोल के लिए तो वे एकदम सही हैं लेकिन कोई अन्य रोल निभाने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी होगी। एक्टिंग उन्होंने बढिया की है।
फिल्म में सबसे खास है इसके जरिये दिया जाने वाला संदेश। इसमें आजादी के मायनों व उसकी अहमियत को समझने पर बल दिया गया है।
पर दुख की बात यह है कि इस तरह की फिल्म को देखने के लिए जो लोग सिनेमा तक जाते हैं या जाएंगे वे तो इस मतलब को पहले से ही समझते हैं। फिल्म का संदेश भी दर्शक समझ जाते हैं लेकिन यह संदेश उन लोगों तक कैसे पहुंचाया जाए जो ज्यादा पढ़े लिखे वर्ग से नहीं आते। जो 400 रुपये का टिकट लेकर फिल्म नहीं देखते बल्कि मोबाइल में डाउनलोड करके ही काम चला लेते हैं। मेरा मानना है कि इस तरह की फिल्म का फायदा तभी है जब उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाए। फिल्मकार को फिल्म में ऐसे दृश्यों से बचना चाहिए था जो इसे ए सर्टीफिकेट दिलाते हैं। इसके अलावा इस फिल्म को टैक्स फ्री किया जाना चाहिए था जिससे यह समाज के उस वर्ग तक भी पहुंचती जो कायदे से निर्भया गैंगरेप जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं।
फिल्म के दो सीन में पूरी कहानी का सार हैं-
1. पहले सीन में जब कनाट प्लेस में एक युवती से रेप की प्रयास किया जाता है तो एक बुजुर्ग महिला उसकी रक्षा के लिए आती है। बुजुर्ग महिला हमलावरों के सामने खुद को निर्वस्त्र करना शुरू कर देती है तो उन युवकों को शर्म आने लगती है और वे भाग खड़े होते हैं। सभी का मन घृणा से भर उठता है।
2. बेगम जान जब दुश्मनों से लोहा लेने की ठान लेती है तो घर में रह रही बच्चियों को अपनी एक साथी के साथ वहां से निकल जाने को कह देती है। जब सीमा पर उन्हें पुलिसवाला रोकने का प्रयास करता है तो एक बच्ची अपने कपड़े उतारने लगती है। दरोगा हाथ जोड़ता है गिड़गिड़ाता है लेकिन बच्ची कपड़े उतारती चली जाती है। दरोगा ऐसा मत करो तुम तो मेरी बच्ची की तरह हो कहते हुए उल्टी तक कर देता है।
ये दोनों सीन झकझोर देने वाले हैं। फिल्म कमजोर निर्देशन के चलते कई स्थानों पर बहुत ही साधारण नजर आती है। इस फिल्म के लिए तो लेखक को बधाई देनी चाहिए। कहानी लिखते समय जिस तरह एक-एक बात का बारीकी से ध्यान रखा गया है वह कमाल है। फिल्म में देश की वीरांगनाओं के किस्सों को जिस तरह से मुख्य कहानी से क्लब किया गया है वह शानदार व उच्चकोटि की फ्यूजन क्षमता को दर्शाता है। दुख केवल यही है कि फिल्म लोग परिवार के साथ नहीं देख सकते और डाउनलोडिंग के इस दौर में महंगे टिकट लेकर इसे चंद लोग ही देखने जाएंगे।
- हर्ष कुमार सिंह