Friday 20 May 2016

DEEP REVIEW: Sarbjit- watch it for Randeep Hooda only

सरबजीतः रणदीप हुड्डा के बेमिसाल अभिनय के लिए देखें 

RATING- 4*

पाकिस्तान की जेल में कई साल तक बंद रहने के बाद वहां कैदियों द्वारा मार दिए गए भारतीय कैदी सरबजीत का कहानी को अखबारों में पढ़ा तो आप सबने होगा लेकिन इसे फिल्म के रूप में देखना एक अलग ही अनुभव है। कमजोर निर्देशन के बावजूद फिल्म प्रभाव छोड़ने में सफल रहती है। जब आप सिनेमाहाल से बाहर निकलते हैं तो दिमाग में सरबजीत के रूप में रणदीप हुड्डा ही छाए रहते हैं। उन्होंने किरदार को जीवंत कर दिया है, अभिनय से भी और अपने शरीर से भी। अच्छी फिल्म के शौकीनों को कम से कम एक बार जरूर ये फिल्म देखनी चाहिए।

सरबजीत से पहले बाक्सर मैरीकाम की लाइफ पर फिल्म बना चुके ओमंग कुमार ने एक बार फिर अच्छा प्रयास किया है लेकिन जो कमी ‘मैरीकाम’ में रह गई थी वो ‘सरबजीत’ में भी है। लगता है कि फिल्म जल्दी निपटाने के चक्कर में ओमंग कलाकारों को रीटेक का मौका ज्यादा नहीं देते। कुछ सीन अच्छे लिखे गए हैं लेकिन उन्हें बहुत ही जल्दबाजी में शूट किया गया है इसलिए वे प्रभावित नहीं कर पाते। जेल में बंद कैदी सरबजीत के रूप में रणदीप हुड्डा ने कमाल कर दिया है। अपने शरीर को जिस तरह से उन्होंने उन प्रताडना भरे लम्हों के लिए तैयार किया है वो बालीवुड के दूसरे अभिनेताओं के लिए सबक देने वाला है। पिछले कुछ साल में तो किसी अभिनेता ने ऐसा जीवंत कैरेक्टर नहीं निभाया है। कई बार तो रणदीप को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वह वास्तव में सरबजीत ही हैं। पाकिस्तान की जेल में उन्हें यातनाएं देकर विकलांग बना दिया जाता है उसके बाद तो हुड्डा ने अपनी संवाद अदायगी ही बदल दी। टूटे हुए दांतों से सिसक-सिसककर बाहर आती आवाज ने उनके अभिनय में और भी चार चांद लगा दिए हैं। ये रणदीप हुड्डा के कैरियर की सबसे बेहतरीन फिल्म है और निश्चित रूप से उन्हें इससे बहुत फायदा मिलने वाला है। पुरस्कार तो मिलेंगे ही।
कायदे से सरबजीत पंजाब के उस नौजवान की कहानी है जो शराब के नशे में गलती से बोर्डर पारकर पाकिस्तान की सीमा में चला जाता है और पाकिस्तानी रेंजर उसे जासूस समझकर धर लेते हैं। इसके बाद सिलसिला शुरू होता है संघर्ष का। सरबजीत की बहन दलबीर कौर (ऐश्वर्या राय) उसे छुड़ाने के लिए कई साल तक संघर्ष करती है। सरबजीत की पत्नी (रिचा चड्ढा) व उसकी दो बेटियों व एक बूढ़े पिता के संघर्ष की कहानी भी साथ-साथ चलती है। सरबजीत 1990 में पाकिस्तान की सीमा में घुसा था और 2 मई 2013 को उसकी लाहौर की कोट लखपत जेल में कुछ कैदियों ने हत्या कर दी थी। चूंकि घटनाक्रम लगभग 23 साल के अंतराल को लेकर था इसलिए घटनाक्रम बहुत तेजी से चलता है। कहानी में वास्तविकता का पुट होने के कारण नकारात्मकता बेहद है इसलिए बीच-बीच में फ्लैशबैक में सरबजीत की जवानी के सीन व पति पत्नी के बीच के रोमांस आदि से जुड़े सीन भी रखे गए हैं लेकिन यकीन मानिये इनमें किसी की दिलचस्पी नहीं पैदा होती, बल्कि ये बाधा ही बनते हैं। सब सरबजीत व दलबीर की कहानी ही देखना चाहते हैं।

ऐश्वर्या राय के लिए ये टेलर मेड रोल था। एक युवती से बुजुर्ग महिला के किरदार तक, रोल को निभाने के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की है और वे दलबीर कौर को जीने में सफल रही हैं। हालांकि जिन लोगों ने दलबीर कौर को देखा है तो वे समझ सकते हैं कि दोनों की शारीरिक संरचना में कोई समानता नहीं है। फिर भी सवाल ये था कि इस किरदार को निभाता कौन। किसी नई कलाकार को लिया जाता तो फिल्म की बाक्स आफिस पर पकड़ कमजोर हो जाती। रणदीप ने उम्र बढ़ने के साथ-साथ अपने शरीर को उसी तरह से ढाला है लेकिन ऐश्वर्या राय को मेकअप में उतनी सावधानी नहीं बरती गई। उनके बाल जरूर सफेद हो जाते हैं लेकिन चेहरे पर रौनक बनी रहती है जो बहुत बड़ी खामी है। निर्देशक ने ऐसी गलती कैसे कर दी ?
जैसा कि मैंने लिखा है ओमंग कुमार सीन जल्दी में फिल्माते हैं और इसकी वजह से सीन प्रभाव पैदा नहीं कर पाते। उदाहरण के तौर पर वो सीन देखें जहां पाकिस्तान में सरबजीत के दूसरे वकील (दर्शन कुमार) को अपना ही पुतला जलाते हुए दिखाया गया है। ये सीन इतनी तेजी से आता है और खत्म हो जाता है कि दर्शक ये भी समझ नहीं पाते कि आखिर हुआ क्या है। ये सीन बहुत ही बेहतरीन लिखा गया है और इसे और थोड़ी गंभीरता से फिल्माया जाता तो ये अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहता और लोग इस सीन के मर्म को भी समझ पाते। इस तरह की गलती कई सीन में की है ओमंग कुमार है। लगता है कि उन्हें केवल सरबजीत व दलबीर के किरदारों में ही ज्यादा दिलचस्पी थी। उन्हें ही ज्यादा तवज्जो दी गई है। रिचा चड्ढा जैसी अच्छी कलाकार को वेस्ट कर दिया गया है। उन्हें फिल्म के अंत में एक ही सीन करने को मिला और उसी में वे छा गई।
फिल्म का संगीत भी बहुत कमजोर है। एक भी गीत प्रभावित नहीं करता। हालांकि फिल्म देखते समय सभी गीत ठीक-ठाक लगते हैं लेकिन हॉल से निकलने के बाद एक भी याद नहीं रहता। ‘मैरीकॉम’ में भी ऐसा ही हुआ था। संगीत अच्छा हो तो फिल्म की रिपीट वैल्यू बढ़ जाती है। ‘एयरलिफ्ट’ भी सच्चे घटनाक्रम पर आधारित थी लेकिन तीन गाने अच्छे होने के कारण उसकी सफलता भी बड़ी ही रही। अब देखना ये है कि ‘सरबजीत’ का बाक्स आफिस पर भविष्य क्या होता है।

नोटः अगर आप अच्छे अभिनय पर आधारित फिल्म देखने के इच्छुक हैं तो ये फिल्म आपके लिए है। रणदीप के लिए ये फिल्म देखें।

- हर्ष कुमार