Thursday 10 March 2016

‘DOUBLE’ DEEP REVIEW: 'Neerja' & 'Jai Gangajal'

NEERJA- RATING- 3*

JAI GANGAJAL- RATING- 2*

 रीयल होकर भी रीयल नहीं लगती दोनों ही महिला प्रधान फिल्में 

सोनम और प्रियंका की बेस्ट फिल्म नहीं, कई कमजोरियां दोनों में 


शायद ये पहला मौका है कि दो फिल्मों का रीव्यू एक साथ कर रहा हूं। पहले किसी ने ऐसा नहीं किया है लेकिन मेरा इरादा कोई ऐसा रिकार्ड बनाने का नहीं था। इसकी दो वजह थी- एक तो दोनों ही महिला प्रधान फिल्में हैं और दूसरे दोनों ही एक-दो हफ्ते के अंतर पर रिलीज हो रही थी। इसलिए मैंने तय किया कि इनका एक साथ रीव्यू किया जाए। पहले से ही ये तो पता चल रहा था कि ‘नीरजा’ सत्यकथा पर आधारित है लेकिन ट्रेलर व प्रोमो से ‘जय गंगाजल’ भी वास्तविक किरदारों के करीब ही जान पड़ रही थी। इसलिए फैसला किया कि इस बार कुछ नया तरीका अपनाया जाए और दो फिल्मों की समीक्षा को एक साथ किया जाए। देखते हैं कि ये प्रयोग कितना सफल रहता है और आप सबका फीडबैक कैसा मिलता है:-

‘नीरजा’ की सोनम कपूर और ‘जय गंगाजल’ की प्रियंका चोपड़ा, दोनों ही रीयल लाइफ कैरेक्टर हैं। नीरजा के बारे में तो सब जानते ही हैं और ‘जय गंगाजल’ की महिला आईपीएस अधिकारी जैसे किरदार आपको असली जिंदगी में देखने के लिए मिल जाएंगे। जो लोग यूपी, बिहार व मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से संबंध रखते हैं वे इस तरह की महिला आईपीएस अफसरों को देख भी चुके होंगे। ‘जय गंगाजल’ में दावा किया गया है कि ये सत्य कथा पर आधारित नहीं है और काल्पनिक है लेकिन फिल्म देखकर आप भी समझ जाएंगे कि ये प्रकाश झा की अपनी ही फिल्म ‘गंगाजल’ की सीक्वल है। ‘गंगाजल’ की कहानी बिहार में हुए सच्चे वाकये पर आधारित थी और ‘जय गंगाजल’ में प्रकाश झा ने इसी तरह का एक काल्पनिक वाकया गढ़ा है। फर्क केवल ये कर दिया है कि इस बार उन्होंने सब्जेक्ट को बिहार में केंद्रित न करके मध्य प्रदेश से जोड़ दिया है। इसके पीछे उनका क्या तर्क है ये तो समझ से बाहर है लेकिन जिस तरह से किरदार बोलते हैं और व्यवहार करते हैं उसे देखकर लगता है कि हम बिहार या पूर्वी यूपी के किसी जिले की कहानी देख रहे हैं। ये निर्देशक की कमजोरी है। ऐसी ही कमजोरी नीरजा में राम माधवानी ने की है। उन्होंने सच्चे घटनाक्रम पर एक बहुत ही नकली फिल्म बनाई है। फिल्म में हवाई जहाज का सेट लगाया गया है जो बिल्कुल भी असली प्लेन की फीलिंग नहीं देता है। एक नहीं कई ऐसे मौके आते हैं जब ‘नीरजा’ में इस तरह की कमजोरियां नजर आती हैं।

दोनों ही फिल्मों में कई कमजोरियां कॉमन ही हैं। भले ही ये फिल्में प्रियंका चोपड़ा व सोनम के किरदारों के लिए लिखी गई हैं लेकिन यह कड़वा सच है कि दोनों में ही कुछ सहायक कलाकारों के कैरेक्टर व एक्टिंग मुख्य एक्टर पर भारी पड़ जाते हैं। ‘नीरजा’ में शबाना आजमी सबको पानी पिला देती हैं तो ‘जय गंगाजल’ में प्रकाश झा का पात्र दर्शकों के दिल को भा जाता है। ये तो गनीमत रही कि प्रकाश झा संभल गए और उन्होंने अंत में प्रियंका को ही फिल्म की हीरो बना दिया लेकिन ‘नीरजा’ में ऐसा नहीं हो पाया। नीरजा की मौत के एक साल बाद हुए कार्यक्रम में शबाना का स्पीच देने वाला सीन पूरी फिल्म पर भारी पड़ गया। ये सीन लोगों की आंखों में आंसू ला देता है जबकि ‘जय गंगाजल’ का क्लाईमैक्स अधूरा सा लगता है। बस एक एक्शन सीन में ही आईपीएस अफसर ने विधायक को ठिकाने लगा दिया ? शायद इसी फर्क की वजह से ‘जय गंगाजल’ उतना प्रभाव नहीं छोड़ पाई जितना कि ‘नीरजा’।

भले ही दोनों फिल्मों के रीव्यू में ये कहा जा रहा हो कि ये फिल्में प्रियंका व सोनम की बेस्ट फिल्में हैं लेकिन ऐसा है नहीं। प्रियंका चोपड़ा आईपीएस अफसर की वर्दी में जमती हैं लेकिन सोनम कपूर एयर होस्टेस के रूप में प्रभाव नहीं छोड़ती। वास्तविक नीरजा भनोट बेहद खूबसूरत थी और किसी सुंदर सी हिरोईन को इस रोल के लिए चुना जाता तो बेहतर होता। नीरजा भनोट की मां ने भी कहीं कहा था कि मेरी बेटी सोनम से सुंदर थी और उनकी ये बात सही है। दोनों ही फिल्मों में एक भी सीन ऐसा नहीं डवलेप किया गया है जिसमें प्रियंका व सोनम की एक्टिंग का लोहा आप मान सकें।

दोनों ही फिल्मों की सबसे बड़ी कमजोरी हैं इसके डायलाग। ‘नीरजा’ में तो दमदार डायलाग के लिए गुंजाइश कम ही थी और उसमें ठीक-ठाक संवाद लिखे गए हैं लेकिन ‘जय गंगाजल’ में तो इसकी अपार संभावना थी और यहां लेखक चूक गए हैं। कुछ सीन ऐसे थे जहां लेखक चाहता तो तालियां बजवा सकता था। उदाहरण के तौर पर जब प्रियंका प्रकाश झा से कहती हैं कि वर्दी की गंदगी को गंदे पानी से नहीं धोया जा सकता तो इसके जवाब में वे कह सकते थे कि मैं अपने खून से इसे धोऊंगा, तो तालियां बज जातीं।

दोनों ही फिल्मों के निर्देशकों ने नाटकीयता का सहारा ज्यादा लिया है। कहीं भी रीयल होने की कोशिश नहीं की। ‘नीरजा’ में हाईजैक हो चुके जहाज के भीतर का घटनाक्रम कुछ और लंबा व रोमांचक हो सकता था लेकिन ये बोझिल सा लगता है। दर्शक सोचता है कि जल्द ही सेना हमला करे और कहानी को खत्म करे। हालांकि ‘नीरजा’ में 30 साल पुराना घटनाक्रम दिखाया गया है और इस वजह से ये आज के संदर्भ में कमजोर लगती है लेकिन इससे पहले ‘एयरलिफ्ट’ में कुछ इसी तरह की हकीकत को बहुत ही रीयल तरीके से दिखाया गया था और उसे बहुत ही पसंद किया गया था। ‘जय गंगाजल’ में प्रकाश झा ने काफी रीयल होने की कोशिश की लेकिन वे ओवर हो गए। वे भूल गए कि वे माहौल तो जरूर वास्तविकता की ओर बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वर्तमान समय में आए बदलावों के बारे में वे भूल ही गए। वे भूल गए कि आज के दौर में इस तरह का नंगा नाच संभव नहीं है जैसा वे दिखा रहे हैं। खुलेआम लोगों को मारा जा रहा है और किसी के पास कोई सबूत नहीं। हर किरदार पांच मिनट में आईफोन पर बात करता नजर आता है। यहां तक की आईफोन के फेसटाइम (वीडियो कॉलिंग) के जरिये विधायक को ये तक दिखा दिया जाता है कि बच्चे का अपहरण कर लिया गया है लेकिन जब सरे आम विधायक के आदमियों को पेड़ से लटकाकर मारा जाता है तो कोई उसकी मोबाइल से क्लिप नहीं बना पाता। चलो मान लिया कि आम पब्लिक ने जानबूझकर ऐसा किया क्योंकि वे विधायक के आदमियों से पीड़ित थे, लेकिन जब विधायक बबलू पांडे खुलेआम लोगों को देख लेने की धमकी देता है और पुलिस अफसर को बीच चौराहे पर अधमरा कर देता है तो आम पब्लिक में से तब भी कोई इसकी वीडियो नहीं बनाता या फोटो नहीं खींचता। ये बहुत बड़ी खामी है जो अखरती है। अजय देवगन की ‘गंगाजल’ तो उन्होंने उस दौर से ली थी जिस दौर में मोबाइल नहीं थे लेकिन ‘जय गंगाजल’ तो आज की फिल्म है इसमें ऐसी गलती कैसे हो गई प्रकाश झा से?

कुल मिलाकर बार ‘नीरजा’ एक बार देखने लायक फिल्म है। बच्चों के साथ इसे देखें तो बेहतर होगा क्योंकि फिल्म ये सिखाती है कि किसी भी हालात में हार नहीं माननी चाहिए लेकिन ‘जय गंगाजल’ में ऐसा कुछ नहीं है। ये फिल्म केवल हमारे पुलिस अफसरों व नेताओं को देखनी चाहिए और इससे सबक लेने का प्रयास करना चाहिए। पर ऐसा हुआ नहीं होगा।

- हर्ष कुमार सिंह