Friday 14 July 2017

DEEP REVIEW: Jagga Jasoos

'निर्माता रनबीर कपूर' के कैरियर की 'मेरा नाम जोकर'

Rating: 1*

कहानियों से भरी इस फिल्म की समीक्षा के पहले ये तीन कहानियां जरूर पढ़ लें:-
1. बतौर निर्माता रनबीर कपूर की यह पहली फिल्म है। सिद्धार्थ राय कपूर व अनुराग बसु भी सहयोगी निर्माता हैं। उनके साथ रनबीर पहले भी काम करते रहे हैं और इसलिए तीनों ने यह ज्वाइंट वेंचर बनाया है।
2. अनुराग बसु ने रनबीर के कैरियर की सबसे बेहतर फिल्म 'बर्फी' उन्हें दी थी। रनबीर उनके साथ एक और फिल्म करने के लिए बेताब थे भले ही वे कुछ भी बना दें। 'बर्फी' में अनुराग ने उन्हें गूंगा-बहरा बनाया था तो यहां हकला बना दिया।
3. फिल्म में कैटरीना कैफ केवल इसलिए हैं क्योंकि वे रनबीर की गर्लफ्रेंड हैं, नहीं तो कोई भी हिरोईन इस फिल्म को करने के लिए तैयार नहीं होती। यह कैटरीना की भूल है। उनके लिए फिल्म में कुछ था ही नहीं।

रनबीर कपूर इस दौर के सबसे बेहतरीन अभिनेता हैं इसमें कोई दोराय नहीं। वे कुछ भी करते हैं वो अलग ही होता है। अमिताभ बच्चन ने कहा था कि रनबीर बिना चेहरे पर हावभाव लिए एकटक देखते भी रहते हैं तो उसमें भी उनका अभिनय होता है। यह बात बिल्कुल सही भी है। वे स्ट्रेट फेस से भी अपनी बात कह देते हैं। उनमें ये मासूमियत भरी प्रतिभा अपने दादा राज कपूर से आई है। भोले आदमी के किरदार वे बखूबी निभाते थे और हसोड़ भी थे। बस गंभीरता के मामले में वे मात खा जाते थे। रनबीर ने 'पिक्चर शुरू' के नाम से अपना बैनर बनाया है और पहली फिल्म प्रोड्यूस की है और यकीन मानिए उन्होंने शुरू में ही 'मेरा नाम जोकर' बना दी है। फिल्म देखकर लगता है कि उन्होंने एक बेहद प्रयोगधर्मी फिल्म बनाने का फैसला किया, पर गच्चा खा गए। फर्क केवल इतना है कि 'मेरा नाम जोकर' को सब आज भी याद करते हैं लेकिन आने वाले समय में 'जग्गा जासूस' को कोई पूछेगा भी नहीं। जब राज कपूर ने चार घंटे की दो इंटरवल वाली 'मेरा नाम जोकर' बनाई थी तो उस समय के लिहाज से वह बहुत लंबी फिल्म थी। आज जबकि दो घंटे से भी कम समय में फिल्में निपट जाती हैं तो रनबीर ने तीन घंटे के करीब की फिल्म बना दी। इतिहास रिपीट होगा। 'मेरा नाम जोकर' भी नहीं फ्लाप रही थी और 'जग्गा जासूस' का भी हश्र वही होगा। शायद दादा जी की तरह रनबीर भी इस फिल्म को सबसे पसंदीदा बताते रहें लेकिन यह फिल्म देखने लायक नहीं बन पाई है।
 'जग्गा जासूस' को देखने के बाद केवल दो लोगों की ही तारीफ की जा सकती है। एक तो संवाद लेखक की और दूसरे कैमरामेन की। बाकी फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे पसंद किया जा सके या फिर जिसकी वजह से मैं यह फिल्म देखने की सिफारिश कर दूं। कहानी एक हकले लड़के की है जिसे अपने पिता की तलाश है। जासूसी का शौक है। बीच-बीच में अपने हुनर से वह कुछ मिस्ट्री भी हल करता जाता है। बस यही कहानी है और इसे ही खींचतान कर तीन घंटे के करीब का कर दिया गया है। संवाद कभी-कभी अच्छे हैं लेकिन कहानी इतनी पेचिदा और स्क्रीनप्ले इतना उलझा हुआ है कि कब क्या हुआ था इसे याद करने के लिए आपको बार-बार दिमाग पर जोर डालना पड़ता है। अगला सीन देखने के चक्कर में आप यह भूल ही जाते हैं कि आप क्या याद करने की कोशिश कर रहे थे। फिल्म की शुरूआत 1995 में नार्थ ईस्ट के पुरुलिया में हथियार गिराए जाने की घटना से होती है तो लगता है कि फिल्म में कुछ बहुत ही दिलचस्प देखने को मिलेगा लेकिन कहानी उट पटांग तरीके से आगे बढ़ती है और जमकर पकाती है। अंत में जरूर यह मैसेज देने की कोशिश करती है कि कुछ ताकतें हथियारों के जरिये किस तरह आतंकवाद को बढावा दे रही हैंं, लेकिन लोग फिल्म देखते समय इतना पक चुके होते हैं कि यह उन्हें बेमानी और फिजूल नजर आएगा।

वर्तमान दौर के सबसे प्रतिभाशाली संगीतकार प्रीतम चक्रवर्ती ने संगीत दिया है जो उनकी अन्य फिल्मों के मुकाबले बेहद कमजोर है। 'उल्ला का पट्ठा' व 'मिस्टेक' गीत फिल्म में इसलिए अच्छे लगते हैं क्योंकि वे टीवी और यूट्यूब पर हम अनगिनत बार देख चुके हैं अन्यथा फिल्म का संगीत पक्ष बेहद कमजोर है। अनुराग बसु ने यह फिल्म काव्यात्मक संवादों में संगीत से सजाने की कोशिश की है और इस प्रयोग में वे बुरी तरह से फेल रहे हैं। पांच दशक पहले इसी तर्ज पर चेतन आनंद ने 'हीर रांझा' बनाई थी जिसने बाक्स आफिस पर इतिहास रचा था। लेकिन उस फिल्म की कहानी और मिजाज कुछ और था। उसमें मदन मोहन ने यादगार संगीत दिया था।
इस फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे याद रखा जा सके। रनबीर ने एक्टिंग बेहतरीन की है और वे हर फिल्म में बेहतरीन ही करते हैं। हां, ये भी बता दूं कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी कुछ सेकेंड के लिए इसमें भी जाते हैं। इन दिनों नवाज हर फिल्म में नजर आ रहे हैं। उन्हें आइटम सांग की तरह यूज किया जाने लगा है। वैसे उनके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। कैटरीना कैफ के लिए भी यह फिल्म नुकसान देह ही साबित होगी। इसे रनबीर के कैरियर के दूसरी 'बॉम्बे वेलवेट' कह दूं कोई गलत नहीं होगा।

आपको सलाह देना चाहूंगा कि इसे बिल्कुल मत देखें। समय व पैसा बरबाद होगा। अगर आप बच्चों को इसलिए लेकर जा रहे हैं कि शायद यह बच्चों की फिल्म है तो बहुत बड़ी गलती करेंगे। बच्चे आपको कभी माफ नहीं करेंगे इस सजा के लिए।

- हर्ष कुमार सिंह 

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Sunday 9 July 2017

एक कंगना ही काफी नहीं है, बालीवुड को और चाहिए

साल भर में न जाने कितने फिल्म पुरस्कार समारोह होते हैं। उनमें तमाम हिंदी फिल्मी गीतों पर कलाकार परफोर्म करते हैं। हिंदी फिल्मों के लिए पुरस्कार भी जीतते हैं लेकिन जैसे ही थैंकिंग स्पीच देने की बात आती है तो सब अंग्रेजी में शुरू हो जाते हैं। सब हिंदी फिल्मों में काम करते हैं लेकिन जब भी मौका आता है तो हिंदी बोलने में शर्म महसूस करते हैं।
 
 हम लोग भी उन्हीं सितारों को अच्छा व पढ़ा लिखा समझते हैं जो ताबड़तोड़ अंग्रेजी बोलते हैं। गोविंदा या नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसा कोई कलाकार हिंदी में धन्यवाद देता है तो हम कहते हैं- लगता है इसे अंग्रेजी नहीं आती। फिल्में ही क्यों क्रिकेट की दुनिया में भी तो कुछ ऐसा ही है। जो खिलाड़ी अंग्रेजी नहीं बोल पाते उन्हें हम हेय दृष्टि से देखते हैं। शुक्र है वीरेंद्र सहवाग जैसे बल्लेबाजों का जिन्होंने अपनी सारी जिंदगी आक्रामक बल्लेबाजी करते हुए दुनियाभर के गेंदबाजों की पिटाई की और हिंदी का झंडा भी बुलंद रखा। अब हिंदी की कमेंट्री में भी उन्होंने नए आयाम स्थापित किए। बात खेलों की करूं तो अक्सर देखता हूं कि क्रोएशिया, रूस, जर्मनी, उक्रेन, चीन, जापान, कोरिया जैसे देशों के खिलाड़ी अपने देश की भाषा में ही बोलना पसंद करते हैं। उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती।
हिंदी बोलने में हमारे बालीवुड में ही सबसे ज्यादा शर्म महसूस की जाती है। जबकि यह भी सब जानते हैं कि हिंदी फिल्मों की पहुंच देश में सबसे ज्यादा है और अगर अमिताभ बच्चन आज देश के सबसे बड़े महानायक हैं तो इसलिए क्योंकि वे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से आते हैं। रजनीकांत तमिल भाषाई होने के कारण सुपर स्टार होते हुए भी देश में वो पहचान नहीं रखते जो उनके समकालीन अमिताभ बच्चन की है। जिक्र अमिताभ बच्चन का चला है तो यह भी लिखना जरूरी है कि हिंदी बोलने में अमिताभ बच्चन को कोई जवाब नहीं। अक्सर कई अभिनेत्रियों को मैंने यह कहते सुना है कि वे बच्चन साहब को केवल इसलिए पसंद करती हैं क्योंकि वे हिंदी बहुत अच्छी बोलते हैं। बेबी डॉल सिंगर कनिका कपूर ने तो उन्हें दुनिया का सबसे सैक्सी मर्द बता दिया था केवल उनकी हिंदी बोलने की अदा की वजह से ही। पर जानते हैं अमिताभ बच्चन को हिंदी बोलने के लिए केवल इसलिए इतना पसंद किया जाता है क्योंकि वे अंग्रेजी भी उतनी दक्षता से बोलते हैं। या यूं कहें कि जिस तरह की अंग्रेजी वे बोलते हैं वो बालीवुड के दूसरे फिल्म स्टार्स के भी बस की बात नहीं है। एकदम इंटरनेशनल क्लास और ग्रामर की दृष्टि से एकदम परफेक्ट।

बालीवुड में हिंदी व अंग्रेजी की लड़ाई को एक नया रूप दिया है क्वीन कंगना रनौत ने। कंगना बालीवुड में अपनी शर्तों पर काम करने वाली हिरोईन के रूप में पहचान बना चुकी हैं। लगभग 10 साल तक संघर्ष करने के बाद कंगना ने अपना जो मुकाम बनाया है उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है। हिमाचल प्रदेश से आई और बालीवुड की सुपर स्टार बन गई। कंगना ने अक्सर हिंदी भाषी होने के कारण अपनी अनदेखी की बात कही। कंगना ने साफ कहा कि बालीवुड में उनसे कुछ लोग केवल इसलिए खुलकर बात नहीं करते थे क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं जानती थी। आज वे अंग्रेजी भी बोलती हैं और उन्हें फैशन आईकन तक कहा जाने लगा है।
मेरे इस ब्लॉग के पीछे कंगना रनौत ही एक मुख्य वजह हैं। कंगना ने पिछले दिनों दो टीवी शो में कुछ बातें कहीं और उन्हें लेकर काफी कुछ लिखा गया। काफी विद करण में कंगना ने होस्ट व निर्माता निर्देशक करण जौहर पर भाई भतीजावाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। शो का फोरमेट कुछ ऐसा है जिससे कुछ विवाद हमेशा होते रहे हैं लेकिन इस बार इस बात ने तूल पकड़ लिया। कंगना ने कह दिया कि करण जौहर बालीवुड में भाई भतीजावाद को सबसे ज्यादा बढ़ावा देते हैं और हमेशा बड़े बालीवुड घरानों के बच्चों को ही अपनी फिल्मों में लेते हैं। हालांकि बाद में कंगना ने यह भी कहा कि उन्होंने ऐसा इसलिए भी कहा क्योंकि शो में थोड़ा मिर्च मसाला आ जाएगा लेकिन मामला मजाक तक नहीं रहा गंभीर हो गया। कंगना के आरोप के जवाब में करण जौहर ने सोशल मीडिया पर लिखा कि वे क्या करें जब बालीवुड घरानों के बच्चे हैं ही इतने प्रतिभाशाली? अगर बालीवुड में ही अच्छे कलाकार सामने आ रहे हैं तो वे उन्हें क्यों नहीं साइन करें?

करण ने अपने तर्क दिए लेकिन बात यहीं नहीं थमी। कंगना रनौत ने करण के इन तर्कों को खारिज किया। हाल ही में कंगना रनौत नजर आई रिपब्लिक वल्र्ड चैनल पर अनुपम खेर के चैट शो में। इस इंटरव्यू में जब अनुपम खेर ने उनसे करण के साथ हुए विवाद के बारे में पूछा तो कंगना ने खुलकर अपनी बात कही। कंगना ने कहा कि करण की यह बात उन्हें बिल्कुल हजम नहीं हुई कि केवल बालीवुड में ही टैलेंट पैदा हो रहा है। केवल चार घरानों तक ही बालीवुड सीमित नहीं है। कंगना ने जोर देकर कहा कि दरअसल यहां अंग्रेजी में बात करने वालों को ज्यादा तवज्जो दी जाती है, उन्हें ही सम्मान मिलता है। पर ऐसा नहीं है। उन्होंने अपनी और अनुपम की ओर इशारा करते हुए कहा कि यहां ऐसे भी लोग हैं जो बाहर से आए और अपना स्थान बनाया। अनुपम ने भी उनसे सहमति जताई। करण जौहर के जवाब में कंगना ने बहुत तफ्सील से अपनी बात कही। कंगना का तर्क था कि बालीवुड के बच्चे बचपन से ही फिल्मों के माहौल में आंख खोलते हैं। उन्हें उसी तरह की ट्रेनिंग मिलती है। उन्हें तैयार करने में कई लोग जुटे होते हैं। इसके अलावा जब वे पहली फिल्म के लिए तैयार होते हैं तो उनकी एक फैन आडियंस भी तैयार हो चुकी होती है जो उनके माता-पिता या परिवार की वजह से उन्हें देखने जाती है। जबकि बाहर से आए कलाकारों को सब कुछ जीरो से शुरू करना होता है।

दरअसल बालीवुड में भाई भताजीवाद, हिंदी-अंग्रेजी का भेदभाव पहले भी था और आगे भी बना रहेगा। सवाल यह है कि क्या एक कंगना रनौत से यह फासला खत्म करना संभव होगा? नहीं हमें एक नहीं सैकड़ों कंगना चाहिए ऐसा करने के लिए।

सलाम है कंगना और उनके जज्बे को।
 

हम आपके साथ हैं कंगना। 


- हर्ष कुमार सिंह

 

Friday 7 July 2017

DEEP REVIEW: MOM ***

कुछ नया नहीं, केवल श्रीदेवी और अपने बच्चों के लिए देखें 

Ratings- 3*

 महिला प्रधान फिल्मों के नाम पर पिछले कुछ साल से दिल्ली का निर्भया कांड या यूं कहें गैंगरेप की घटनाएं पसंदीदा विषय बन गया है। पिछले दो साल में ही इस तरह के थीम को लेकर मातृ, जज्बा, पिंक और मॉम जैसी कई फिल्में बनी हैं। मेरा तो मानना है कि बेगम जान भी इसी सब्जेक्ट को दिमाग में रखकर बनाई गई थी। इन सभी में मां और बेटी की कहानियां हैं। बेटी को तकलीफ में देखकर नायिका के भीतर की मां जाग जाती है और फिर सभी अपने-अपने तरीके से अपनी कहानी को अंजाम तक ले जाती हैं। मॉम भी कुछ अलग नहीं है। मुझे तो आश्चर्य यह हो रहा है कि मॉम व अभी कुछ महीने पहले आई फिल्म मातृ की कहानी में इतनी समानता कैसे है? दोनों में ही नायिका स्कूल टीचर हैं। दोनों में ही पुलिस अंत में हिरोईन को एक के बाद एक हत्याएं करते हुए रंगे हाथ पकडऩे के बाद भी कुछ नहीं कहती। केवल फर्क यह है कि मातृ में मां व बेटी, दोनों रेप का शिकार होती हैं जबकि मॉम में केवल बेटी। अब चूंकि दोनों ही फिल्में एक साथ बन रही थी और हो सकता है कि लेखकों को इस बात की भनक हो गई थी कि दोनों की कहानी एक ही है और इसलिए कुछ फर्क कर दिया गया। मातृ में रवीना टंडन का पति उन्हें ही सारी घटना के लिए जिम्मेदार ठहराता है जबकि मॉम में श्रीदेवी के पति को उनके सपोर्ट में दिखाया गया है।

मूल कहानी को छोड़ दिया जाए तो मॉम और मातृ में बहुत से बुनियादी फर्क हैं। मॉम एक बड़े स्केल पर बनाई गई फिल्म है। इसमें सब कुछ बड़े पैमाने पर रचा गया है। सपोर्टिंग कास्ट में नवाजुद्दीन सिद्दीकी व अक्षय खन्ना जैसे मंझे हुए कलाकार रखे गए हैं जिनकी वजह से फिल्म में दर्शकों की दिलचस्पी बनी रहती है। कहानी एक लाइन की है। श्रीदेवी की 18 साल की बेटी से चार लोग गैंगरेप करते हैं और आरोपी सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं। सिस्टम से नाराज होकर श्रीदेवी एक जासूस की मदद से आरोपियों से बदला लेती हैं। फिल्म बहुत ही साधारण बन जाती अगर इसमें श्रीदेवी, और ए आर रहमान का बैकग्राउंड म्यूजिक न होता। ए आर रहमान ने बैकग्राउंड संगीत से फिल्म के स्केल को बहुत ऊपर उठा दिया है। कुछ संवाद भी अच्छे हैं। जैसे- भगवान हर जगह नहीं हो सकता इसलिए उसने मां बना दी, गलत और बहुत गलत में से कुछ चुनना हो तो आप क्या करोगे?

श्रीदेवी ने इंग्लिश विंग्लिश के पांच साल बाद यह फिल्म की है लेकिन मेरा मानना है कि यह फिल्म उतनी बेहतर नहीं बन सकी है। न ही इसकी बाक्स आफिस पर सफलता के कोई आसार नजर आते हैं। इस तरह की फिल्में बहुत ही डार्क होने के कारण रिपीट वैल्यू वाली नहीं होतीं। मनोरंजन कम होता है तो लोग फिल्म देखने सपरिवार नहीं जाते। इंग्लिश-विंग्लिश बहुत ही मनोरंजक व पारिवारिक फिल्म थी और उसे आप बार-बार देख सकते हैं। मैसेज देने में सबसे ज्यादा सफल पिंक रही थी जिसमें इस विषय को सबसे ज्यादा खूबसूरती से हैंडल किया गया था।
श्रीदेवी का फैन होने के नाते मैं मॉम में इससे कुछ ज्यादा उम्मीद कर रहा था। जहां तक एक्टिंग का सवाल है तो श्रीदेवी ने जबर्दस्त काम किया है। हाल फिलहाल आई दूसरी महिला प्रधान फिल्मों से यह थोड़ी मजबूत अगर नजर आती है तो इसका पूरा श्रेय श्रीदेवी को ही है। जब अस्पताल में श्रीदेवी पहली बार अपनी बेटी को देखती हैं और फूट-फूटकर रोती हैं तो उनके अभिनय की बुलंदियां नजर आती हैं। यह सबूत मिल जाता है कि उन्हें क्यों इतनी आला दर्जे की अभिनेत्री माना जाता है। इसके अलावा कई और दृश्यों में भी श्रीदेवी अपनी छाप छोड़ती हैं। वैसे लगता है श्रीदेवी कुछ ज्यादा ही डाइटिंग करती हैं। खासतौर से क्लोज अप्स में चेहरे की हड्डियां नजर आती हैं, अगर थोड़ा सा वजन बढ़ा लें तो भी कोई दिक्कत नहीं होगी। फिल्म में श्रीदेवी की बेटी का रोल निभाने वाली सजल अली व पति बने अदनान सिद्दीकी, दोनों ही पाकिस्तानी कलाकार हैं, और उन्होंने अपने रोल के साथ पूरा न्याय किया है। अदनान को हमने कई पाकिस्तानी टीवी सीरियल्स में देखा है वे शानदार कलाकार हैं। सजल अली बेहद खूबसूरत हैं और एक्टिंग के लक्षण उनमें इस फिल्म में नजर आते हैं। बाप-बेटी के बीच भी कुछ मार्मिक सीन हैं। खासतौर से जब दोनों मोबाइल पर मैसेजिंग के जरिये बात करते हैं तो दर्शकों की आंखें भर आती हैं। ऐसी फिल्में भले ही बाक्स आफिस पर क्रांति नहीं करती लेकिन सबक तो देकर जाती हैं। इसलिए मेरी सलाह है कि आप भी बच्चों के साथ जाकर इस फिल्म को जरूर देखें। कम से कम फिल्म देखने से बच्चों की समझ में तो यह तो आएगा कि मां-बाप की सलाह मानना उनके लिए क्यों जरूरी है और अभिभावक अपने बच्चों के दुश्मन नहीं हैं। इसके अलावा उन लोगों के लिए भी इनमें सबक होता है जिनके बच्चे गलत सोहबत में बिगड़ रहे हैं।

- हर्ष कुमार सिंह