Saturday 23 September 2017

DEEP REVIEW: Newton

सफल होने के तमाम गुणों से भरपूर है ‘न्यूटन’

Rating- 5*

‘न्यूटन’ को आस्कर के लिए चुने जाने का फिल्म को जबर्दस्त लाभ होने जा रहा है। इसे व्यवसायिक सफलता मिलने जा रही है। मैंने यह फिल्म रिलीज के एक दिन बाद नई दिल्ली के मिराज सिनेमा (पूर्व नाम अजंता), सुभाष नगर में मौजूद, में देखी जो अब डबल स्क्रीन बन चुका है। 90 के दशक में इस सिनेमा को दिल्ली के सबसे बड़े (सीटों के हिसाब से) सिनेमाघरों में गिना जाता था। इसमें ‘अग्निपथ’ व ‘लव लव लव’ जैसी फिल्में कालेज के समय में हमने देखी थी। इसमें लगभग एक हजार लोग एक साथ बैठ जाया करते थे। अभी भी इसकी दोनों स्क्रीन काफी विशाल हैं। ‘न्यूटन’ जैसी फिल्म को दिल्ली में मुश्किल से 20-25 स्क्रीन मिल पाई हैं। ऐसे में मजबूरी में यह फिल्म मिराज में देखनी पड़ी। फिल्म शुरू होने के दस मिनट बाद अंदर घुसा और देखकर दंग रह गया कि ऑडी में सारी सीटें फुल थी। यानी हाउसफुल। ये आज के दौर में दुर्लभ नजारा है। इतनी बड़ी-ब़ड़ी फिल्में हाल फिलहाल देखी हैं लेकिन ‘बाहुबली’ व इससे पहले ‘बाजीराव मस्तानी’ के अलावा किसी में भी सीटें फुल नहीं नजर आई। ‘न्यूटन’ जैसी फिल्म में हाउसफुल मिलना सुखद आश्चर्य से कम नहीं था। दरअसल फिल्म रिलीज होने के दिन ही फिल्म को आस्कर के लिए भारत की एंट्री घोषित कर दिया गया और फिल्म को वो प्रचार मिल गया जो करोड़ों खर्च के भी नहीं मिल पाता।
बहरहाल फिल्म में भीड़ की वजह केवल आस्कर ही नहीं है बल्कि फिल्म को बनाया भी गया है बहुत ही गंभीरता से। बस आस्कर के लिए नामांकित हो जाने से इसके बारे में लोग जान गए और इसे अब ज्यादा दर्शक मिल जाएंगे जो सही बात है। ऐसी फिल्में ज्यादा से ज्यादा बड़े वर्ग तक पहुंचनी चाहिए। फिल्म में किसी भी मुद्दे पर भाषणबाजी नहीं की गई है। सकारात्मक व निष्पक्ष तरीके से निर्देशक अमित मसुरकर ने लोकतंत्र में मतदान की अहमियत को दिखाने का प्रयास किया है और वे अपना संदेश देने में सफल रहे हैं। कहानी इस तरह से है- नूतन उर्फ न्यूटन कुमार (राजकुमार राव) एक सरकारी मुलाजिम है और पूरी तरह से अपने काम के प्रति सजग व ईमानदार है। नक्सली इलाके (सुकमा, छत्तीसगढ़) में एक 76 मतदाताओं के बूथ पर निष्पक्ष मतदान कराने का जिम्मा उन्हें सौपा जाता है। वे अर्धसैनिक बलों की टुकड़ी के साथ पोलिंग बूथ पर जाते हैं और तमाम मुश्किलों के बीच वोट डलवाने में सफल रहते हैं। हालांकि जिस तरीके से मतदान सैनिक कराते हैं उससे वे सहमत नहीं थे लेकिन फिर भी आधे लोग मतदान कर देते हैं। बस इसके बाद सब लोग वापस लौट जाते हैं और अपने-अपने काम में लग जाते हैं।

 फिल्म की खासियत यह है कि इसमें किसी भी प्रकार का उपदेश नहीं दिया गया है। नक्सल प्रभावित व दूर दराज के इलाकों में चुनावी प्रक्रिया कैसे होती है और चुनाव प्रणाली के बारे में वहां के आदिवासी लोगों को कितनी जानकारी है इसकी तस्वीर फिल्म में बहुत ही ईमानदारी से खींची गई है। शानदार स्क्रीनप्ले व डायलाग हैं जो व्यवस्था पर व्यंग्य करने के साथ-साथ दर्शकों को गुदगुदाते भी रहते हैं। उदाहरण के तौर पर वह सीन जिसमें सैन्य अफसर यह कहता है- मैं लिखकर देता हूं कि कोई वोट डालने नहीं आएगा। इस पर पीठासीन अधिकारी का दायित्व निभा रहे राजकुमार राव उसके सामने कागज-पेन रखते हैं और कहते हैं लिखो। इस सीन पर दर्शक तालियां बजाने को मजबूर हो जाते हैं। फिल्म में एकमात्र महिला किरदार के रूप में एक आदिवासी टीचर को भी पोलिंग टीम में दिखाया गया है जो अपने क्षेत्र की समस्याओं से भी अवगत कराती रहती है। मतदानकर्मियों में से एक रघुबीर यादव हैं जो अच्छी कॉमेडी करते हैं। उनकी कॉमेडी भी व्यंग्य से भरी हुई है और कई मौकों पर चोट करने में सफल रहती है। फिल्म में नक्सली इलाकों में तैनात सैनिकों की समस्या भी उठाई गई है जो सुविधाओं के अभाव में वहां रहते हैं। जिनकी तनख्वाह बहुत कम होती है, आधुनिक हथियारों की कमी है।


कुल मिलाकर फिल्म एक संदेश देती है। संदेश यह है कि देश में आज भी ऐसे इलाके भी हैं जहां लोगों को अपने मताधिकार के बारे में नहीं पता है। उनका प्रत्याशी कौन है लोग यह भी नहीं जानते। इसलिए जब न्यूटन उनसे कहता है कि उनका चुना हुआ प्रतिनिधि दिल्ली में जाकर उनकी बात कहेगा तो वे अपने सरपंच को ही भेजने की बात करने लगते हैं। यह अच्छी बात है कि ऐसी फिल्म को लोग देख रहे हैं। इसी हफ्ते रिलीज हुई ‘भूमि’ जैसी बड़ी फिल्म से यह कई गुना बेहतर है। इसमें ‘टायलेट-एक प्रेम कथा’ की तरह से व्यवसायिक लटके झटके तो नहीं हैं लेकिन संदेश देने के मामले में यह उससे कहीं कम नहीं है। इसे देखें और पूरे परिवार के साथ देखें, यकीन मानिए पैसे व्यर्थ नहीं जाएंगे।

- हर्ष कुमार सिंह

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Friday 22 September 2017

DEEP REVIEW : Bhoomi

बदले की कहानी है संजय दत्त की कमबैक फिल्म

Rating- 2*

'भूमि' फिल्म के उस हिस्से की विशेष रूप से तारीफ होनी चाहिए जिसमें उसने बलात्कार करने वाले नाबालिग आरोपी की उम्र को लेकर सवाल खड़े किए हैं। दिखाया गया है कि अफगानिस्तान, सऊदी अरब, ईरान व कोरिया जैसे देशों में ऐसे आरोपी को कितनी बेरहमी से मारा जाता है। जबकि हमारे देश में उसे सुधार गृह भेजा जाता है। यहां तक की उसे क्षमायाचना का भी प्रावधान है। फिल्म के इस हिस्से को छोड़ दिया जाए तो 'भूमि' फिल्म कहीं भी रेप के मुद्दे पर कोई बहस शुरू करती नहीं नजर आती। यह एक बदले की कहानी है जिसमें एक पिता अपनी बेटी के बलात्कारियों को मौत के घाट उतारता है।

कुछ महीने पहले रवीना टंडन की 'मातृ' व श्रीदेवी की 'मॉम' में जो दिखाया गया था उससे इसमें कुछ भी अलग नहीं दिखाया गया है। बल्कि अगर इन्हें रैंक किया जाए तो 'भूमि' का नंबर तीसरा ही होगा। श्रीदेवी की फिल्म इन सबसे ज्यादा संवेदनशील थी। 'भूमि' की बस एक ही खासियत है कि इसमें संजय दत्त वापसी कर रहे हैं। उनके फैंस इसे देख सकते हैं। जेल से बाहर आने के बाद यह उनकी पहली फिल्म है और लगता है कि निर्देशक ओमंग कुमार इसे कैश कराना चाहते थे। उन्होंने फटाफट कहानी गढ़ी और संजय दत्त को सुना दी। फिल्म भी जल्दबाजी में शूट की गई है। ओमंग कुमार फिल्म जल्दी बनाने में एक्सपर्ट हैं। तीन साल में उनकी तीसरी फिल्म है। पहले 'मैरीकॉम', फिर 'सरबजीत' और अब 'भूमि'। और यकीन मानिए जो मौलिकता उनकी 'मैरीकॉम' में थी वह बाकी किसी में नहीं नजर आई। 'भूमि' तो उनकी सबसे कमजोर फिल्म है।
कहानी आगरा की दिखाई गई है। बार-बार ताजमहल दिखाया जाता है लेकिन इसका फिल्म से कोई ताल्लुक नहीं है। अरुण (संजय दत्त) जूते का काम करता है लेकिन यह नहीं साफ किया गया है कि क्या वह मोची (या दलित बिरादरी का) है? उनके रहन सहन को देखकर तो यह नहीं लगता। वैसे आगरा में बहुत से दूसरा जातियों के जूता व्यवसायी भी हैं। भूमि (अदिति राव हैदरी) संजय की बेटी है जिसे वह बहुत प्यार करते हैं। शुरू की आधा घंटे की फिल्म में तो यही दिखाने की कोशिश की गई है कि वे अपनी बेटी से कितना प्यार करते हैं। यह हिस्सा बहुत ही बोर करता है। अदिति के अपने प्रेमी (कोई नया हीरो) के साथ दो गाने भी इसी हिस्से में दिखा दिए गए हैं लेकिन कोई भी गीत ऐसा नहीं है जो आप याद रख सकें। इसके बाद वही कहानी शुरू हो जाती है जो रेप के मामलों में दिखाई जाती रही है। चार लोग भूमि से रेप करते हैं। उसकी शादी भी टूट जाती है। पुलिस व कानून कुछ नहीं कर पाते और अंत में संजय दत्त व अदिति खुद ही बदला लेने की ठान लेते हैं। बदला लेने का कहानी भी बेहद घिसी पिटी हुई है। या यूं कहें कि बहुत ही कमजोर है। संजय इतनी आसानी से सब को मार डालते हैं कि बस पूछिए मत। पुलिस भी उनकी मदद करने लगती है। इससे पहले 'मातृ' व 'मॉम' में भी पुलिस को मददगार दिखाया गया था।
संजय दत्त इस फिल्म में बुजुर्ग नजर आते हैं जो उनकी उम्र के हिसाब से सही है। एक जवान बेटी के पिता वे असली जीवन में भी हैं और यहां भी उसके लिए उपयुक्त नजर आते हैं। वैसे जेल से आने के बाद संजय दत्त ने अपने शरीर पर मेहनत नहीं की और उनका पेट बाहर निकला नजर आता है। वे उतने फिट भी नहीं दिखे। एक्शन सींस में वे उतने प्रभावशाली नहीं नजर आए। कुछ सींस में उन्होंने अभिनय अच्छा किया है। अदालत में अपनी बेटी के समर्थन में आवाज उठाना और शराब पीकर मोहल्ले के लोगों को धिक्कारने वाले सीन में उन्होंने प्रभावित किया है। अदिति राव हैदरी अच्छी कलाकार हैं। आंसू बहाने का काम उन्हें मिला था जिसे वे अच्छी तरह से निभा गई हैं। कोई और अभिनेत्री होती तो वह भी यही करती। उन्हें केवल आंसू बहाने थे और 'बेचारी बेटी' की भूमिका निभानी थी और इसमें वे सफल रही हैं। हां लंबे समय बाद शेखर सुमन को बड़े पर्दे पर देखकर अच्छा लगा। संजय के दोस्त ताज की भूमिका उन्होंने बढिय़ा निभाई है। बाकी कलाकार औसत हैं।
ऐसे गंभीर विषयों पर फिल्म बनाने के लिए अच्छे डायलाग व संगीत की जरूरत होती है और इसमें ये दोनों ही गायब हैं। ओमंग कुमार ने 'सरबजीत' की तरह इसमें भी इन पर ध्यान नहीं दिया। सबसे गलत बात तो यह लगी जब इंटरवल के एकदम बाद सन्नी लियोनी का वाहियात आयटम सांग ठूंस दिया। इसकी कतई जरूरत नहीं थी। न गीत समझ में आया कि क्या है और न ही सनी लियोनी का डांस? इससे फिल्म केवल कमजोर व लंबी ही हुई। फोटोग्राफी कुछ हिस्सों में अच्छी है। खासतौर से क्लाइमेक्स में राजस्थान की बावड़ी का सीन बहुत ही बढिय़ा पिक्चराइज किया गया है। लगता है ओमंग कुमार ने फिल्म के निर्माण के दौरान इसमें चेंज भी किए तभी तो श्राद्ध व नवरात्र की टाइमिंग सही बैठी है। अभी एक ही दिन पहले नवरात्र शुरू हुए हैं और फिल्म के क्लाइमेक्स में जय माता दी की गूंज सुनाई गई है।
कुल मिलाकर फिल्म प्रभावित नहीं करती। परिवार के साथ आप इसे देखेंगे तो समय खराब होगा और न आप अपने परिवार को मनोरंजन कर पाएंगे और ना ही कोई सीख हासिल करा पाएंगे।

- हर्ष कुमार सिंह 


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Friday 15 September 2017

DEEP REVIEW : Simran

कंगना की हौसला अफजाई के लिए जरूर देखें ये फिल्म 

Rating: 3*

अगर आप सिमरन से ये उम्मीद कर रहे हैं कि ये दूसरी क्वीन है तो आपको धक्का लग सकता है। यह फिल्म क्वीन की तरह मनोरंजन से भरपूर नहीं है। न उस तरह का संगीत है न कहानी। बस केवल कंगना ही कंगना है। कंगना रनौत ने इस फिल्म के माध्यम से यह संदेश देने की कोशिश की है कि अब वे उस पोजिशन में पहुंच चुकी हैं कि उन्हें किसी भी स्टार को अपनी फिल्म में लेने की जरूरत नहीं है। हालांकि इसे आप उनका अति आत्मविश्वास भी कह सकते हैं लेकिन अगर अब कंगना को ऐसा लगता है तो कोई क्या कर सकता है?

कंगना ने हाल ही में एक इंटरव्यू में पूछे गए सवाल के जवाब में कहा है कि अगर अपने रवैये के कारण फिल्म इंडस्ट्री में उन पर लोग बैन भी लगा देते हैं तो उन्हें इसकी फिक्र नहीं है। वे तीन-तीन नेशनल अवार्ड जीत चुकी हैं और सिरे से तीन-तीन सुपर हिट (क्वीन, तनु वेड्स मनु व तनु वेड्स मनु रिटर्नंस)फिल्में दे चुकी हैं। ऐसे में अगर उनका कैरियर खत्म भी हो जाता है तो उन्हें कोई परवाह नहीं। इंडस्ट्री में गुटबाजी, भाई-भतीजावाद जैसे मुद्दों से आजिज आ चुकी कंगना रनौत ने अब अपना तरीका अपनाया है बालीवुड से पंगा लेने का।
सिमरन के साथ कंगना ने प्रोडक्शन की कमान भी संभाल ली है। यानी अब वे अपनी मर्जी की फिल्म करेंगी अपनी मर्जी के निर्देशक के साथ काम करेंगी और अपनी इच्छा से स्टार चुनेंगी। और इसी वजह से सिमरन में कोई बड़ा स्टार नहीं लिया गया है। छोटे से छोटे रोल में भी नए व अपेक्षाकृत कम पापुलर कलाकारों को कास्ट किया गया है। मैं अपनी बात करूं तो पूरी फिल्म की जितनी भी स्टार कास्ट है उनमें से किसी का नाम मुझे नहीं पता। उनके नाम जानने के लिए मुझे गूगल पर सर्च करना होगा और यह मैं करना नहीं चाहता।
कंगना की पिछली फिल्म रंगून जब बाक्स आफिस पर ढेर हो गई थी तो इंडस्ट्री का एक बड़ा तबका बहुत खुश हुआ था। पार्टियां हुई थी। कंगना ने इतने लोगों से पंगे लिए हैं कि वे उनकी नाकामयाबी को सेलीब्रेट कर रहे हैं। अब सिमरन बाक्स आफिस पर क्या करिश्मा दिखाती है यह तो एक हफ्ते में पता चल ही जाएगा लेकिन यहां हम बात करते हैं इस फिल्म के खास बातों पर।

प्रफुल्ल पटेल (कंगना) गुजराती परिवार से है और अपने मां-बाप के साथ अमेरिका में रहती है। होटल में हाउसकीपिंग का जॉब करती है। अपने पैसे एकत्र करके घर खरीदना चाहती है। तलाक हो चुका है, 30 साल की आयु पार कर चुकी है लेकिन बिंदास जीने की तमन्ना उसके मन में है। एक दिन जुए में इत्तेफाक से कुछ पैसे जीत जाती है तो जुए में रिस्क उठाकर अपने घर के लिए जमा किए हुए पैसे भी हार जाती है। कुछ लोगों से पैसा उधार ले लेती है और उन्हें भी जुए में हार जाती है। उनका उधार चुकाने के लिए चोरी करने लगती है, बैंक लूटने लगती है। मां-बाप शादी के लिए जोर डालते हैं तो पैसे के लालच में उसके लिए भी तैयार हो जाती है। उसे देखने आया लड़का भी उसे पसंद करता है। वह पैसे से उसकी मदद करना चाहता है लेकिन खुद्दार कंगना को यह पसंद नहीं आता। अंत में कंगना गिरफ्तार हो जाती है और 10 महीने की सजा उसे हो जाती है।
फिल्म का अंत सुखद और मजेदार है। पर फिल्म उतनी जोरदार नहीं है जितनी होनी चाहिए थी। मनोरंजन कम है। गीत-संगीत कुछ खास नहीं है। अगर कुछ देखने लायक है तो है वो है कंगना का अभिनय। कंगना ने क्वीन से कमतर काम नहीं किया है। बस लोगों को यह कहानी, जो कहा जा रहा है सत्यकथा पर आधारित है, शायद हजम नहीं हो। कंगना के अभिनय में उनके निजी जीवन के संघर्ष व उतार चढ़ाव की झलक नजर आती है। एक आम हिंदुस्तानी लड़की का अंग्रेजी बोलने का जो अंदाज उन्होंने दिखाया है वो दर्शकों को खूब हंसाता है। कंगना का अभिनय तो खैर है ही स्वाभाविक। लगता ही नहीं है कि वे एक्टिंग कर रही हैं। वे किरदार में इतना घुस जाती हैं कि लगता है कि जैसे वे चरित्र को ही जी रही हैं।
फिल्म के निर्देशक हंसल मेहता हैं। वे इससे पहले कई जबर्दस्त व पुरस्कार विजेता (अलीगढ़, शाहिद व सिटीलाइट) फिल्में बना चुके हैं लेकिन मैंने उनकी यह पहली फिल्म देखी है। अपनी निर्देशन क्षमता से उन्होंने कोई खास प्रभावित नहीं किया। फिल्म में हर सीन में कंगना ही नजर आती हैं और हंसल भी लगता है कि यह फिल्म कंगना के लिए ही बना रहे थे। अब तो सुनने में यह भी आ रहा है कि कंगना निर्देशक भी बन रही हैं। यानी कंगना ने पूरी फिल्म इंडस्ट्री से ही ठान ली है। ऐसे में उनका हौसला तो बढ़ाने की जरूरत है। इसलिए यह फिल्म एक बार जरूर देखें और इस साहसी अभिनेत्री की हौसला अफजाई करें।

- हर्ष कुमार सिंह 

Watch Video - Deep Review of Simran





Friday 8 September 2017

Watch: आखिर क्या है 'पदमावती' की कहानी



संजय लीला भंसाली की बहुप्रतीक्षित फिल्म 'पदमावती' की कहानी को लेकर खूब बवाल हो चुका है। आखिर क्या है इसका सच। क्या कहानी थी रानी पदमावती की। इसी से परदा उठाया गया है इस वीडियो में। देखें, सुनें और शेयर करें। फिल्म में रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण, शाहिद कपूर व अदिति राव हैदरी मुख्य भूमिका में हैं।

Watch : Story of Film Padmavati ! Facts and findings!! 

(Subscribe- harshkumarvideos) 

 

फिल्म 1 दिसंबर 2017 को रिलीज होगी।

Monday 4 September 2017

पहलाज निहलानी के विरोध और समर्थन में एक पोस्ट

विरोध मेंः
संस्कारी का टैग पा चुके सेंसर बोर्ड के पूर्व चेयरमैन पहलाज निहलानी के पास अब किसी सवाल का जवाब नहीं है। एक महीने पहले सेंसर बोर्ड के चेयरमैन पद से अपमानजनक तरीके से हटा दिए गए पहलाज निहलानी बतौर वितरक अपनी पहली फिल्म की हिरोईन की खूबसूरती की तारीफ करके सारे सवालों से किनारा करते नजर आए। ऐसा ही होता है, कहते हैं सवाल करने से आसान काम कुछ नहीं लेकिन जब जवाब देने की बारी आती है तो पसीने छूट जाते हैं।
एक साल पहले उड़ता पंजाब फिल्म को पास करने से इनकार कर देने वाले पहलाज निहलानी अब खुद उसी स्थिति में खड़े नजर आ रहे हैं जहां कुछ समय पहले तक वे दूसरों को किया करते थे। 90 के दशक में बालीवुड के एक कामयाब निर्माता रहे पहलाज निहलानी केंद्र में मोदी सरकार के गठन के समय सेंसर बोर्ड के चेयरमैन बनाए गए थे। उसके बाद से कोई महीना ऐसा नहीं गया जब पहलाज निहलानी अपने दायित्व को निभाते समय किसी विवाद में न फंसे हों। किसी भी फिल्म में इंटीमेट सींस हों या फिर कोई ऐसा डायलाग हो जिसमें कोई राजनीतिक एंगल उन्हें नजर आता हो तो समझ लीजिए आपकी फिल्म फंस गई। इंतहा तो उस समय हो गई जब उड़ता पंजाब को उन्होंने पास करने से केवल इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि इसमें देश के एक राज्य की छवि धूमिल हो रही थी। अमूमन सामान्य तौर पर सॉफ्ट टारगेट बन जाने वाली पूरी फिल्म इंडस्ट्री उनके खिलाफ उठ खड़ी हुई और पहलाज के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इसमें अनुराग कश्यप, एकता कपूर, अभिषेक कपूर, मुकेश भट्ट, महेश भट्ट जैसे बड़े नाम शामिल थे। खैर फिल्म रिलीज भी हुई थी और अच्छा खासा बिजनेस भी करने में सफल रही थी।

प्रेस कांफ्रेंस में पहलाज निहलानी
बहरहाल पहलाज पर लगातार उठ रही उंगलियों के बाद सरकार ने खुद को असहज स्थिति से बचाने के लिए पहलाज से किनारा कर लिया। जैसे ही स्मृति ईरानी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनी वैसे ही पहलाज को हटाकर लेखक प्रसून जोशी को सेंसर बोर्ड की कमान सौंप दी गई।
अब पहलाज निहलानी दूसरे फिल्म निर्माताओं की तरह ही हैं और लंबे समय से डिब्बे में बंद पड़ी फिल्म जूली 2 को रिलीज करने जा रहे हैं। फिल्म में दक्षिण की अभिनेत्री राय लक्ष्मी लीड स्टार हैं और निर्देशक हैं दीपक शिवदासानी। दीपक व पहलाज का पुराना व्यवसायिक रिश्ता रहा है। 90 के दशक में दीपक ने पहलाज के लिए भी कुछ फिल्में बनाई थीं लेकिन पिछले कुछ साल से दीपक गायब से हो गए हैं। इससे पहले उन्होंने नेहा धूपिया को लेकर जूली फिल्म बनाई थी जो अपने बोल्ड सींस की वजह से ही याद की जाती है। नेहा ने इसमें एक सेक्स वर्कर का किरदार निभाया था। हालांकि फिल्म बहुत बड़ी हिट नहीं थी लेकिन नुकसान में भी नहीं रही थी। सीक्वल फिल्मों के दौर में दीपक ने कन्नड़ अभिनेत्री राय लक्ष्मी के साथ इस फिल्म को बनाया और दो साल से यह फिल्म रिलीज की राह तक रही है। वजह, वितरक नहीं मिल रहे। और जानते हैं इसे रिलीज करने का बीड़ा उठाया तो किसने ? अपने संस्कारी पहलाज निहलानी ने। फिल्म 6 अक्टूबर को रिलीज होने जा रही है और इसी सिलसिले में पहलाज व फिल्म की टीम ने सोमवार को एक प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया। अब जब से चेयरमैन पद से हटे हैं तब से पहलाज मीडिया के घेरे में आए ही नहीं थे और आज मौका था। सवालों की शुरूआत भी पहलाज से ही हुई और अंत भी। मजेदार बात यह थी कि पहलाज सवालों का जवाब देते हुए इतने नर्वस नजर आए कि वे सवाल क्या पूछा जा रहा है और उसका क्या जवाब देना चाहिए ये उन्हें सूझा ही नहीं। सवाल कुछ भी था बस जवाब यही था कि मैंने सेंसर बोर्ड में रहते हुए कुछ भी गलत नहीं किया। हां उन्होंने यह जरूर कहा कि आप लोग फिल्म देखने से पहले ही यह ओपिनियन क्यों बना रहे हैं कि फिल्म में आपत्तिजनक सींस होंगे। मीडियाकर्मी भी कम नहीं थे। सवाल उछला कि पहला पार्ट सबने देखा है और उसमें इतने हॉट सींस थे फिर यह कैसे मान लिया जाए कि इसमें नहीं होंगे ? बहरहाल फिल्म के निर्माता निर्देशक को बीच में कूदना पड़ा और बात को फिल्म की दिशा में मोड़ने की कोशिश की लेकिन मीडिया के हमले कम नहीं हुए। अंत में पहलाज को यही कहना पड़ा कि इस फिल्म में इतनी सुंदर हिरोईन है और आप किसी चक्कर में पड़े हुए हैं। फिल्म देखिए और इसके बाद फैसला कीजिए।
जूली 2 की हिरोइन राय लक्ष्मी प्रेस कांफ्रेंस में।
समर्थन मेंः
पहलाज निहलानी का नाम आते ही सेंसर बोर्ड के चेयरमैन के रूप में उनकी कथित तौर पर कट्टर संस्कारी छवि ही सामने उभर आती है। आलोचनाएं करते समय लोग यह भी भूल जाते हैं कि 90 के दशक में मनोरंजक फिल्में पेश करने का कीर्तिमान भी पहलाज निहलानी के नाम रहा है। बतौर सेंसर बोर्ड चीफ उनकी कार्य प्रणाली कुछ ज्यादा ही टारगेट पर रही। सेंसर की कैंची जब भी उन्होंने उठाई तब-तब उनकी बनाई गई फिल्मों के अश्लील संवादों व डबल मीनिंग डायलाग्स की चर्चा मीडिया ने जोर-शोर से की।
सेंसर बोर्ड का चेयरमैन रहते समय उन्होंने जो भी काम किया या फिल्मों को प्रमाण पत्र देते समय जो भी नजरिया अपनाया उसे लेकर सवाल तो बहुत उठे लेकिन इस पर एतरफा हमले ही ज्यादा हुए। हर बार यह मान लिया गया कि पहलाज कुछ गलत कर रहे हैं। इसके अन्य पहलुओं पर बहस, जिसकी गुंजाइश थी, नहीं हुई।
उड़ता पंजाब की ही बात करें। इस फिल्म को देखने के बाद पंजाब के लोगों में इस ओपनियन ने भी जन्म लिया कि यह फिल्म उनके राज्य के बारे में बहुत ही गलत छवि पेश कर रही है। पहले पंजाब का नाम आते ही जहां लहलहाते खेत, भंगड़ा करते युवक व गिद्धा डालती युवतियों की छवि उभर आती थी वहीं अब पंजाब का नाम चिट्टा यानी ड्रग्स से जुड़ गया। हालांकि इस तरह की आवाजें राजनीतिक ज्यादा थीं। पंजाब में विधानसभा चुनाव सिर पर थे और वहां की अकाली-भाजपा सरकार लगातार इसे लेकर निशाने पर थी कि स्टेट में नशे का कारोबार बहुत फैल गया है। और यह फिल्म ठीक चुनाव से कुछ समय पहले रिलीज हो रही थी। तमाम दबावों के बाद फिल्म रिलीज तो जरूर हो गई थी लेकिन यह महसूस किया गया था कि वास्तव में यह फिल्म पंजाब जैसे खुशहाल राज्य की बहुत ही डार्क छवि सामने लाती है।
मेरे मित्र कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य का ये बेहतरीन कार्टून।
 अब जबकि पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड चेयरमैन नहीं रहे हैं और फिर से अपने निर्माण व वितरण के धंधे में वापसी कर रहे हैं तो उन्हें निशाने पर लिया जा रहा है। जूली 2 के नाम से बनी एक फिल्म, जो लगभग 2 साल से रिलीज की राह तक रही है, को पहलाज रिलीज करने जा रहे हैं। उन्होंने सोमवार को इसके ट्रेलर रिलीज इवेंट में मीडिया के बहुत कड़े सवालों का सामना किया। इस प्रेस कांफ्रेंस में सारे सवाल उसी दिशा में रहे। आपने चेयरमैन रहते हुए तो दूसरों की फिल्मों पर सवाल उठाए और अब आप ही ऐसी बोल्ड फिल्म रिलीज करने जा रहे हैं ? सवाल उठना वाजिब ही है लेकिन इस पर पहलाज ने अपनी राय दी कि आप फिल्म को देखने से पहले ही क्यों अपनी धारणा बना रहे हैं। पहलाज ने कहा- फिल्म को यू/ए सर्टीफिकेट दिया गया है और इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। इसके बावजूद वे मीडिया के सवालों को लगातार झेलते रहे और यही कहने का प्रयास करते रहे कि आप पहले फिल्म देख तो लें।
जूली के स्टिल में राय लक्ष्मी
यहां अहम सवाल यह भी उठता है कि क्या बतौर निर्माता या वितरक भी पहलाज ऐसे सवालों का ही हमेशा जवाब देते रहेंगे? सोशल मीडिया ने भी उन पर कड़ी प्रतिक्रया दी है। सोशलाइट सुहेल सेठ ने टि्वटर पर चुटकी भी ले डाली- चलिए लगता है कि पहलाज अब सेंसर बोर्ड चीफ के दायित्व से मुक्त हो गए हैं और खुद को डिलाइटिड फील कर रहे हैं कि वे हमारे लिए जूली 2 जैसी फिल्म पेश कर सकें। सुहेल सेठ खुद बालीवुड से जुड़े रहे हैं लेकिन पहलाज निहलानी का सेंसर बोर्ड चेयरमैन के रूप में कामकाज शायद उन्हें इतना अखरा कि वे उनके समर्थन के लिए खुद को तैयार नहीं कर सके।
बालीवुड से उनके समर्थन में एक आवाज नहीं उठी है। बात-बात पर ट्वीट कर देने वाला बालीवुड अब खामोशी का रुख अख्तयार कर चुका है। ऐसे में पहलाज खुद को अकेला ही खड़ा महसूस करेंगे।
इस मुद्दे पर बहुत ज्यादा बहस नहीं की गई कि क्या सेंसर बोर्ड के चेयरमैन रहते हुए उन्होंने जो भी किया था उसके लिए क्या ऊपर से उन्हें कोई गाइड लाइन दी गई थी? क्या सही है क्या गलत है, क्या पास किया जाए और क्या नहीं, इसे लेकर क्या उन्हें कोई दिशा दी गई थी ? इस पर कोई चर्चा नहीं हुई और बस चेयरमैन के रूप में उनका कार्यकाल खत्म होने के साथ ही शायद संतुष्टि के भाव ने जन्म ले लिया और अब शायद पहलाज निशाने पर ही बने रहेंगे।

- हर्ष कुमार सिंह

Friday 1 September 2017

DEEP REVIEW : Baadshaho

इलियाना डी क्रूज के कैरियर की सबसे अहम फिल्म  
Rating - 1*

इस फिल्म को देखने के बाद अगर आप यह बता दें कि इसका नाम 'बादशाहो' क्यों है तो समझिए आप कौन बनेगा करोड़पति में 7 करोड़ का इनाम जीतने के हकदार हैं। इस फिल्म को इलियाना डी क्रूज के अलावा किसी भी अन्य कलाकार ने क्या सोचकर साइन किया होगा इसका जवाब वे ही दे सकते हैं। वैसे मिलन लुथारिया व अजय देवगन की जोड़ी ने इससे पहले 'कच्चे धागे' व 'वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई' जैसी बेहतरीन फिल्में दी हैं लेकिन यहां यह जोड़ी बुरी तरह मात खा गई।

एक छोटी सी कहानी को इतनी खींच दिया गया कि दर्शक इंटरवल तक आते-आते ही यह पूछने लगते हैं कि यार बहुत बड़ी फिल्म है। अभी तो इंटरवल ही नहीं हुआ खत्म कब होगी? समझ में नहीं आता कि 'द डर्टी पिक्चर' जैसी बेहतरीन आल टाइम क्लासिक बनाने वाला मिलन लुथारिया जैसा निर्देशक कैसे इतनी घटिया फिल्म बना सकता है। वैसे राजस्थान से मिलन को हमेशा प्यार रहा है और उन्होंने इसका ताना बाना भी वहीं बुना लेकिन कहानी इतनी कमजोर चुनी कि बात नहीं बन सकी। इस फिल्म से अगर किसी को फायदा हो सकता है तो वो है इलियाना। उनके कैरियर की यह सबसे बड़ी फिल्म है। मेरा मानना है कि इतना लंबा व सेंटर कैरेक्टर वाला किरदार आज की तारीख में किसी अभिनेत्री को निभाने के लिए नहीं मिलता है। इलियाना को इसका आभास हो गया था और उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया। न्यूड सीन से लेकर लंबे-लंबे किस तक उन्होंने किसी भी चीज में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिल्म चले या न चले लेकिन इलियाना को इससे फायदा होना तय है।

कहानी गीतांजलि (इलियाना) के ईर्द गिर्द घूमती है। गीतांजलि राजस्थान की एक रियासत की रानी है। 1975 में देश में इमरजैंसी लगती है तो सरकार मनमानी करने लगती है। इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी की तरह दिखने वाला संजीव (एक नेता) गीतांजलि पर गंदी नीयत रखता है और उसके इनकार करने पर उसके पीछे पड़ जाता है। उसे जेल में डालकर उसका सारा खजाना हड़प कर लेने की साजिश करता है। गीतांजलि का बॉडीगार्ड भवानी (अजय देवगन) अपने दोस्त दलिया (इमरान हाशमी) व गुरुजी (संजय मिश्रा) के साथ मिलकर खजाने को बचाने की कोशिश करता है। इसमें गीतांजलि की दोस्त संजना (एशा गुप्ता) भी उनकी मदद करती है। लंबी खिचड़ी पकती है। बिना किसी गीत संगीत के फिल्म यूं ही राजस्थान की लोकेशंस व राजस्थान जैसे दिखने वाले स्टूडियो सेट्स पर धक्के खाते रहती है और अंत में बिना किसी तार्किक नतीजे पर पहुंचे खत्म हो जाती है। खजाना जनता के बीच पहुंच जाता है और बाकी किसी को कुछ हाथ नहीं लगता। कुछ ऐसा ही हाल दर्शकों का हो चुका होता है। वे भी खुद को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं। अरे ये क्या हुआ? इलियाना कहां गई? उसका प्रेमी कहां गया? कुछ पता नहीं चलता।
पहली बात तो यह समझ में नहीं आई कि इस फिल्म को इमरजैंसी की बैकग्राउंड पर क्यों बनाया गया? हाल ही में 'इंदु सरकार' भी उसी टाइम पीरियड पर बनी थी और उसका बाक्स आफिस पर क्या हाल हुआ था सब जानते हैं। यहां तो हालत और भी बुरी है। इतनी बड़ी स्टार कास्ट के बाद भी फिल्म में रत्तीभर रोमांच नहीं है। कहानी को 1975 का दिखाने के लिए बस इतना किया गया है कि इमरान हाशमी, इलियाना व एशा को बैलबाटम पहना दी गई हैं। मोबाइल के बजाए लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल होता है। बाकी कुछ भी 1975 का नहीं लगता। सनी लियोनी आइटम सांग के लिए आती है तो ऐसा लगता है जैसे आजकल का ही कोई अन्य चालू आइटम सांग देख रहे हैं। गोलियां चलती हैं तो धड़ाधड़ चलती ही रहती हैं। सारी गन्स व पिस्टल ऑटोमैटिक हैं जिनकी गोलियां खत्म होने का नाम नहीं लेती।
एक्टिंग की बात करें तो अजय देवगन, इमरान हाशमी, विद्युत जामवाल, एशा गुप्ता व संजय मिश्रा सभी साधारण हैं। अजय देवगन को कहानी अच्छी मिलती है तो वे जोरदार काम करते हैं लेकिन पिछले कुछ समय से उनका कहानी का चुनाव बहुत खराब रहा है। 'एक्शन जैक्शन' व 'शिवाय' जैसी बेसिर पैर की फिल्में वे कर रहे हैं। इमरान हाशमी तो कभी अच्छे अभिनेता थे ही नहीं। संजय मिश्रा फिर भी दिल लगा देते हैं थोड़ा बहुत।
कुल मिलाकर यह फिल्म एक बार देखने लायक भी नहीं है। यदि आप कोई फिल्म देखना ही चाहते हैं तो 'बादशाहो' के बजाय 'टायलेट एक प्रेम कथा' या फिर 'बाबूमोशाए बंदूकबाज' ही देख लें तो बेहतर होगा। कम से कम पैसा खराब होने का पछतावा तो नहीं होगा।
- हर्ष कुमार 

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