Tuesday 30 January 2018

स्वरा भास्कर के भंसाली को लिखे पत्र का जवाब

स्वरा जी,

सबसे पहले तो बधाई ! आपने जो पत्र संजय लीला भंसाली को लिखा है उसका एक-एक शब्द दिल से लिखा है। आपकी पीड़ा समझ में आती है। तीसरे पैरे में सही मतलब समझ में आया। भंसाली ने बरसों पहले आपको ‘गुजारिश’ में रोल दिया था वो भी छोटा सा। इसके बाद वे आपको भूल ही गए शायद। वैसे भी भंसाली की आदत है कि वे छोटे से छोटे रोल में भी बड़े कलाकारों को लेकर भूल जाया करते हैं। बताइए, ‘पदमावत’ में अदिति राव हैदरी को लिया भी तो एक छोटे से रोल के लिए। शायद उन्हें भी भूल जाएंगे वे। लेकिन इसके बाद भी उनके साथ काम करने वाले कलाकार उनके साथ किए काम का अनुभव कभी नहीं भूल पाते। आपने भी लिखा है कि आप कभी नहीं भूल सकती कि किस तरह से छोटे से छोटे से सीन के लिए भंसाली फिल्म में मगन हो जाते हैं। वे डायरेक्टर ही कमाल के हैं। इसलिए तो उनकी फिल्में देखने के लिए सबसे पहले उनके आलोचक ही भागते हैं।

मेरी समझ में नहीं आता कि आपने ‘पदमावत’ क्यों देखी। सब जानते थे कि रानी पदमावती की कहानी का अंत जौहर पर ही होता है। आपने इतिहास नहीं पढ़ा क्या ? जहां तक मेरी जानकारी है आप दिल्ली में ही पली बढ़ी हैं। जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से आपका सीधा ताल्लुक रहा है और वहां कोई भी ऐसा इतिहासकार आपको नहीं मिला जो यह बता सके कि पदमावती की कहानी जौहर के साथ खत्म होती है? इतिहास में जो लिखा हुआ है उसे भंसाली को बदल देना चाहिए था ? जौहर शब्द का अर्थ हिम्मत व साहस से जुड़ा हुआ है। और जिन हालात में यह जौहर हुआ था उन हालात में तो यह हिम्मत का ही काम था। हो सकता है जौहर के समय उन महिलाओं के भाव ऐसे न रहे हों जैसे फिल्म में दिखाए गए हैं। शायद वे विलाप करती हुई आग में कूदी हों। लेकिन अगर ऐसा दिखाया जाता तो क्या उससे महिलाओं का सम्मान बढ़ जाता ?

सही बताऊं, आपने जिस तरह से vagina शब्द का प्रयोग करके अपने खत को सुर्खियों में लाने का प्रयास किया है वह दिखाता है कि दरअसल आपकी मंशा केवल सस्ती लोकप्रियता हासिल करना था। पूरे हिंदुस्तान में और किसी महिला को इस तरह की फीलिंग क्यों नहीं आई? अंग्रेजी में सोचने वालों को ही इस तरह के विचार आते हैं? और बेहतर होता यदि आपने पत्र हिंदी में लिखा होता और vagina शब्द की जगह हिंदी का शब्द प्रयोग किया होता। वैसे मीडिया ने आपके पत्र का हिंदी में तर्जुमा छापा है। उसमें उन्होंने शालीनता दिखाते हुए इसके स्थान पर योनि शब्द का प्रयोग किया है। वैसे vagina के लिए और भी शब्द प्रचलित हैं हिंदी में लेकिन उनका प्रयोग कोई शरीफ आदमी सोशल मीडिया के मंच पर नहीं करना चाहेगा। लेकिन आपने अंग्रेजी शब्द vagina का खुलकर इस्तेमाल किया और जो आप फिल्मों में नहीं कर पा रही हैं वह इस पत्र के माध्यम से कर लिया।

हर अभिनेत्री चाहती है कि लाखों करोड़ों लोग उसके फैन बनें। उसे चाहें, खून से लिखे पत्र भेजें आदि-आदि। कौन हिरोईन नहीं चाहती कि उसे ग्लैमरस रोल करने के लिए मिलें और मुख्य धारा की हिरोईनों में उसे भी प्रियंका चोपड़ा, दीपिका या कैटरीना की तरह गिना जाए। आपने भी तो कोशिश की थी ? Maxim मैगजीन के लिए आपने कुछ साल पहले ये फोटो शूट कराया था। याद है आपको ? फोटो साथ में ही पोस्ट कर रहा हूं।


Maxim मैगजीन जानती हैं किस लिए जानी जाती है ? Nude यानी नग्न तस्वीरों के लिए। फोटो शूट कराने से पहले आपको भी पता होगा इसका ? और महिलाओं की नग्न (और भी शब्द हैं इसके लिए) तस्वीरें छापने के पीछे vagina के अलावा और दूसरा क्या कारण हो सकता है ? या आपको पता नहीं था कि इस तरह का फोटो शूट कराने के बाद उनका क्या इस्तेमाल होगा ? पता होगा आपको जरूर। तभी तो आपने कराया था यह फोटो सेशन। पर अफसोस आपको उससे कुछ लाभ नहीं हो सका। एक भी फिल्म में आपको ऐसा रोल नहीं मिला जिसे देखकर युवा आहें भर सकें। आपको रोल मिला तो ‘प्रेम रतन धन पायो’ में सलमान खान की बहन का। क्या आपको नहीं लगता कि आप इसी तरह के रोल में फिट हैं ?

और हां आपकी एक फिल्म आई थी- अनारकली आफ आरा। इस फिल्म में भी तो सारा लफड़ा vagina के लिए हो रहा था। क्या आपको इस फिल्म का विषय नहीं पता था ? जबकि ये तो एक काल्पनिक कहानी थी। पदमावती तो फिर भी इतिहास में दर्ज एक झूठी सच्ची कहानी है। ऐसे में आपको संजय लीला भंसाली से शिकायत केवल यह हो गई कि उन्होंने जौहर को महिमामंडित कर दिया। जौहर के इस तथाकथित महिमा मंडन को देखकर मुझे तो नहीं लगा कि किसी महिला का मन जौहर के लिए किया होगा। अलबत्ता सिनेमाघर में तालियां जरूर बजती सुनी मैंने। पर यकीन मानिए Maxim के लिए किया गया आपका फोटो शूट जरूर युवकों को vagina की ओर आकर्षित करने की कोशिश था। यह बात और है कि आपको देखकर युवकों को ऐसी भावनाएं कम ही आई होंगी। और यही बात आपको सता रही है शायद।

“You may be wondering why the hell I am going on and on thus about vaginas. Because Sir, that’s what I felt like at the end of your magnum opus. I felt like a vagina. I felt reduced to a vagina–only. I felt like all the ‘minor’ achievements that women and women’s movements have made over the years– like the right to vote, the right to own property, the right to education, equal pay for equal work, maternity leave, the Vishakha judgement, the right to adopt children…… all of it was pointless; because we were back to basics.”

आपके खत का यह पैराग्राफ मुझे बहुत ही आपत्तिजनक लगा। ‘पदमावत’ फिल्म से इन सब बातों का क्या ताल्लुक? क्या आपकी फिल्मों में इन सब सामाजिक समस्याओं को हाईलाइट किया गया था? क्या आपकी आने वाली फिल्म ‘वीरे दि वेडिंग’ महिलाओं की समस्याओं को जोर-शोर से उठाने जा रही है ? नाम से तो ऐसा लगता है कि जैसे शादी ब्याह और नाच गाने में रची बसी कोई कहानी होगी। वैसे आपके हिसाब से शादी क्या है ? सामाजिक रस्म या महिलाओं के उत्थान की कोई मुहीम ? जहां तक मेरा ख्याल है आपके नजरिए से शादी का अंत भी vagina पर ही होता होगा ? सैकड़ों लोग शादी को सेलीब्रेट करने के लिए नहीं बल्कि vagina के लिए ही तो एकत्र होते हैं।

बहरहाल आपका पत्र बहुत बड़ा है और तमाम बातों का जवाब इसी प्रकार दिया भी जा सकता है लेकिन मेरा उद्देश्य कतई आपको अपमानित करना नहीं है। मुझे आप किसी फिल्म में अच्छी नहीं लगी तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपको अपमानित करूं। मेरे कहने का मतलब केवल यह है कि अगर फिल्मों को हम इस तरह के नजरिए से आंकना शुरू कर देंगे तो आपको सभी अभिनेत्रियां vagina ही नजर आने लगेंगी। जबकि ऐसा है नहीं। हमारी फिल्मों में नायिकाओं ने कई मानदंड स्थापित किए हैं केवल vagina आधारित रोल करके ही। आप 80 के दशक की ‘मंडी’ में शबाना आजमी और स्मिता पाटिल को देख लीजिए या फिर 15 साल पहले आई तब्बू की ‘चांदनी बार’ को देख लीजिए। ‘चांदनी बार’ में तो सब कुछ vagina के लिए ही हो रहा था। फिल्में आपको केवल समाज का एक रूप दिखाती हैं और यह आप पर होता है कि आप उसे स्वीकारें या अस्वीकारें। ‘पदमावत’ को जनता ने स्वीकार किया है और ऐसे में आपका यह विचारोत्तेजक पत्र केवल पब्लिसिटी स्टंट ही नजर आता है।



- हर्ष कुमार सिंह

Thursday 25 January 2018

DEEP REVIEW : Padmaavat

रणवीर सिंह पर दिलोजान से फिदा है भंसाली की फिल्म 

Rating- 3*

संजय लीला भंसाली की यह चर्चित फिल्म सही मायने में रणवीर सिंह की फिल्म है। हर सीन में रणवीर छाए हुए हैं और जिस सीन में वे मौजूद नहीं रहते वहां भी उनके किरदार की उपस्थिति आपको लगातार महसूस होती रहती है। लगता है ‘बाजीराव मस्तानी’ में रणवीर सिंह से भंसाली ज्यादा ही प्रभावित हो गए और तुरंत उन्हें लेकर अगली फिल्म बना ली। फिल्म पहले ‘पदमवती’ थी बाद में ‘पदमावत’ बनी। यही नाम सही है। पदमावती नाम इस पर ज्यादा फिट नहीं बैठता क्योंकि दीपिका पादुकोण का रोल फिल्म में संक्षिप्त है और कुछेक सीन के अलावा वे पर्दे पर नहीं नजर आती।

हाईलाइट- फिल्म का सबसे विवादित जौहर वाला सीन फिल्म की जान है। इसे भंसाली ने जिस तरह से फिल्माया है वह रोमांचित कर देता है। इसे फिल्म की हाईलाइट कह दूं तो कोई गलत नहीं होगा। इस सीन पर सिनेमाहाल में तालियां बज उठती हैं। अलबत्ता ‘पदमावत’ भंसाली की पूर्व फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ के स्थापित मानदंडों को नहीं छू पाती है।

संगीत- भंसाली शानदार निर्देशक होने के साथ-साथ संगीत के बहुत जबर्दस्त जानकार हैं। संगीत में वे कितना डूब जाते हैं इसका अंदाज इसी से लगाया जाता है कि पिछली कुछ फिल्मों (गुजारिश के बाद से) का संगीत वे खुद ही देने लगे हैं। पर इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष यही है। फिल्म का एक भी गीत ऐसा नहीं है जिसे आप गुनगुना सकें या फुरसत मे सुन सकें। पापुलर हो चुका ‘घूमर-घूमर’ गीत देखने में अच्छा लगता है लेकिन आप इसे बार-बार नहीं सुन सकते। फिल्म में संगीत के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं थी लेकिन फिर भी जो भी गीत हैं वे मन को भाते नहीं हैं। अलाउद्दीन खिलजी (रणवीर सिंह) का किरदार फिल्म में भंसाली को कितना प्यारा था इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि उन पर दो-दो सोलो गीत फिल्माए गए हैं। दोनों ही गीत बचकाने व साधारण है। किसी में भी मल्हारी जैसी मस्ती नहीं आ पाई। जंग के मैदान में खिलजी के गुलाम द्वारा उनके लिए गीत गाना बहुत ही हास्यास्पद लगता है। गाना भी क्या था समझ से बाहर है। भंसाली का संगीत नौशाद साहब की झलक देता है। ‘बाजीराव मस्तानी’ में ‘मुगले आजम’ की छाप थी तो इसमें ‘मदर इंडिया’ की। घूमर गीत में कोरस एकदम वही है जो ‘मदर इंडिया’ में था। यह उनकी पिछली फिल्मों के मुकाबले हल्की लगती है लेकिन फिर भी इस दौर में आने वाली ‘गोलमाल’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘शुभ मंगल सावधान’ और तमाम ऐसी छोटी-बड़ी फिल्में इसके सामने कहीं नहीं टिकती। यह एक बड़े पर्दे की फिल्म है और अगर आपने इसे बड़े पर्दे पर नहीं देखा तो गुनाह करेंगे।
कहानी- अलाउद्दीन खिलजी अपने चाचा को मारकर दिल्ली का बादशाह बन जाता है। एय्याश है। मेवाड़ की रानी पदमावती की सुंदरता की कहानी सुनकर उस पर मुग्ध हो जाता है और मेवाड़ को जीतने के लिए निकल लेता है। उसे हर तरह से हासिल करना चाहता है। पदमावती के पति व मेवाड़ के राजा रतन सिंह से युद्ध करता है और उसे छल कपट से मार देता है। अपनी इज्जत बचाने के लिए पदमावती किले की सैकड़ों महिलाओं के साथ जौहर की आग में कूद जाती हैं और खिलजी के हाथ कुछ नहीं आता।
एक्शन- फिल्म में एक और कमी बहुत अखरती है। वह है शानदार एक्शन की। पूरी फिल्म युद्धों की चुनौती पर टिकी है लेकिन इसके बावजूद एक भी एक्शन सीन जोरदार नहीं बन पाया। ‘बाजीराव मस्तानी’ का वो सीन याद है जब बाजीराव हाथी पर चढ़कर दुश्मन का सिर काटता है, रोंगटे खड़े कर दिए थे उस सीन ने। इस फिल्म में एक भी सीन वैसा नहीं है। कम से कम उस सीन को तो यादगार बनाया जा सकता था जिसमें खिलजी व रतन सिहं भिड़ते हैं।
अभिनय- रणवीर सिंह फिल्म में छाए हुए हैं। कहने के लिए वे विलेन हैं लेकिन दर्शकों को उनका किरदार ही भाता है। रतन सिंह के रोल में शाहिद कपूर पूरी तरह से मिसफिट हैं। उनकी कद काठी बहुत ही हल्की है और वे न तो दीपिका के साथ फिट लगते हैं न ही रणवीर के सामने टिकते हैं। कहने का मतलब यह है कि वे एकदम गलत चुनाव रहे। दीपिका पादुकोण बेहद खूबसूरत लगी हैं और वर्तमान दौर में उनके अलावा यह रोल कोई निभा भी नहीं सकता। वे एकदम सही चुनाव रही लेकिन स्क्रिप्ट ने उन्हें सपोर्ट नहीं किया। बहरहाल जितनी भी फुटेज उन्हें मिली उन्होंने महफिल लूट ली।
निर्देशन- भंसाली का निर्देशन शानदार है और उन्होंने एक भव्य फिल्म बनाई है। सीन बड़े कैनवास पर शूट किए गए हैं और आपको बार-बार चौंका देते हैं। शुरूआती हिस्से में सिंहल देश का सेट बहुत ही आकर्षक लगाया गया है। जौहर वाला सीन का सेट भी भव्य है। कहने का मतलब है कि जाइये और बच्चों के साथ यह फिल्म देख आइए।

- हर्ष कुमार सिंह