Friday 22 December 2017

DEEP REVIEW : Tiger Zinda Hai

सलमान खान के फैन हैं तो जरूर देखें वरना नहीं!

 Ratings- 2*

'टाइगर जिंदा है' कई तरह की नजीर पेश करने की कोशिश करती है। इसमें संदेश दिया गया है कि यदि भारत और पाकिस्तान एक हो जाएं तो दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बन सकते हैं। अमेरिका से भी बड़ी। यही नहीं अगर दोनों देश एक होते और सचिन व अकरम एक ही टीम के लिए खेलते तो सारे विश्व कप इनके पास ही होते। यही नहीं एक जगह तो यह तक कह दिया गया है कि अगर हमारे सारे संगीतकार व गायक भी एक ही साथ गाया करते तो क्या बात होती। यही नहीं इसमें यह भी दिखाया गया है कि पाकिस्तानी आतंकियों को शरण नहीं देता बल्कि उसे यूं ही बदनाम किया जा रहा है। असली आतंकी तो अमेरिका है। वाह क्या बात है!  एकदम नई सोच के साथ बनाई गई फिल्म है। पर जैसे-जैसे आप फिल्म देखते जाते हैं वैसे-वैसे आपको लगने लगता है कि यह तो पिछले कुछ साल में आई 'बेबी', 'एयरलिफ्ट', 'एजेंट विनोद' आदि की तरह ही एक मसाला फिल्म है। 'बेबी' और 'एयरलिफ्ट' तो बहुत ही कमाल की फिल्में थी। इसकी तुलना तो 'एजेंट विनोद' से ही सही रहेगी। अगर इस फिल्म में सलमान खान न होते तो गारंटी देता हूं कि यह फिल्म बाक्स आफिस पर पहले ही दिन ढेर हो जाती। 

बेहद कमजोर स्टोरी लाइन है इस फिल्म की। जो लोग सीरिया और उसके आसपास के देशों में चल रही आतंकी गतिविधियों के बारे में मीडिया में पढ़ते सुनते रहते हैं उन्हें इसमें कोई खास मजा नहीं आएगा। कुछ सच्ची घटनाओं से भी प्रेरणा ली गई है। फिल्म का मुख्य आधार आईएसआईएस (इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया) नामक आतंकी संगठन को बनाया गया है। इस ग्रुप का एक आतंकी लीडर अमेरिकी हमले में घायल हो जाता है और अपना इलाज कराने के लिए सीरिया के एक अस्पताल में घुस जाता है और उस पर कब्जा कर लेता है। अस्पताल में 25 हिंदुस्तानी और 15 पाकिस्तानी नर्सें हैं जिन्हें बंधक बना लिया जाता है। एक नर्स भारतीय दूतावास में फोन कर देती है और भारत सरकार इसके लिए एक मिशन चलाने का फैसला करती है। भारत सरकार की एजैंसी रॉ के पास बस एक ही एजेंट है जो ऐसे काम कर सकता है। वो है टाइगर (सलमान)।

'एक था टाइगर' में सलमान अंत में गायब हो गए थे और रॉ के हाथ नहीं आए थे लेकिन वे ईमेल्स के जरिए अपने बॉस (गिरीश कर्नाड) के टच में लगातार थे। यही बताया गया है इस फिल्म में। इसी आधार पर उन्हें ढूंढा जाता है। टाइगर अब अपनी पाकिस्तानी बीवी जोया (कैटरीना) और बेटे के साथ किसी बर्फीले इलाके में रहता है। वहीं उसे ढूंढ लिया जाता है और मिशन पर भेज दिया जाता है। बाद में जोया भी पाकिस्तानी लड़कियों को बचाने के लिए इस मिशन में साथ हो जाती है। और इस तरह शुरू होता है भारत-पाकिस्तान का अद्भुत मिशन। देखिये उन लड़कियों को छुड़ाने के लिए कितना बचकाना प्लान बनाया जाता है। सभी तेल रिफाईनरी में मजदूर बनकर भर्ती होते हैं और एक नकली आग लगने का हादसा गढ़ते हैं जिसमें वे झुलस जाएं और फिर इलाज के लिए उन्हें उसी अस्पताल में ले जाया जाए जिसमें नर्स बंधक हैं। सब कुछ मजाक नजर आता है। बहरहाल मिशन पूरा होता है और अंत में टाइगर व जोया फिर गायब हो जाते हैं जिससे एक और सीक्वल बनाने के आप्शन खुले रहें। और अब तो फिल्म जमकर पैसा कमा रही है। ऐसे में तो इसका सीक्वल बनना लाजिमी है।

अगर फिल्म को रोमांचक ही बनाना था तो केवल अस्पताल में घुसने व फिर सबको बाहर निकालने की ही प्लॉटिंग की जानी चाहिए थी लेकिन निर्देशक-लेखक ने ऐसा ताना बाना बुना है कि आम आदमी तो समझ ही नहीं पाता कि हो क्या रहा है। बहरहाल दर्शक केवल इसलिए फिल्म देखते रहते हैं कि जब-जब सलमान खान स्क्रीन पर आते हैं तो कुछ रोमांचक होता है और बोरियत दूर हो जाती है। सलमान की फिल्मों में इमोशन बहुत अहम होते हैं लेकिन इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है। 'बजरंगी भाईजान' या फिर 'सुल्तान' वाली बात इसमें नहीं है। हां यह फिल्म 'ट्यूबलाइट' से बेहतर है और कई हफ्ते से लोग किसी बड़ी फिल्म को देखने के लिए तरस रहे थे और इसलिए इसे देख रहे हैं।

फिल्म का संगीत अच्छा है लेकिन गीतों का उपयोग सही नहीं किया जा सका है। एक गीत शुरू में ही आ जाता है इसका सबसे हिट गीत 'स्वैग से करेंगे स्वागत' अंत में टाइटल्स के साथ आता है। बाकी गीतों का पता नहीं क्या हुआ, वे कब आए और कैसे आए? सलमान और अली अब्बास जफर की जोड़ी ने 'सुल्तान' के रूप में ब्लॉकबस्टर दी थी लेकिन 'टाइगर जिंदा है' कहीं भी टिक नहीं पाती है उसके सामने। सलमान के लिए न इसमें इमोशन दिखाने का मौका था न कॉमेडी दिखाने का। एक्शन ही एक्शन है और वो भी ऐसा नहीं कि जो आपने पहले न देखा हो। इसे आप देख सकते हैं केवल सलमान के लिए। बाकी फिल्म में कुछ नहीं है।


-हर्ष कुमार सिंह

Saturday 23 September 2017

DEEP REVIEW: Newton

सफल होने के तमाम गुणों से भरपूर है ‘न्यूटन’

Rating- 5*

‘न्यूटन’ को आस्कर के लिए चुने जाने का फिल्म को जबर्दस्त लाभ होने जा रहा है। इसे व्यवसायिक सफलता मिलने जा रही है। मैंने यह फिल्म रिलीज के एक दिन बाद नई दिल्ली के मिराज सिनेमा (पूर्व नाम अजंता), सुभाष नगर में मौजूद, में देखी जो अब डबल स्क्रीन बन चुका है। 90 के दशक में इस सिनेमा को दिल्ली के सबसे बड़े (सीटों के हिसाब से) सिनेमाघरों में गिना जाता था। इसमें ‘अग्निपथ’ व ‘लव लव लव’ जैसी फिल्में कालेज के समय में हमने देखी थी। इसमें लगभग एक हजार लोग एक साथ बैठ जाया करते थे। अभी भी इसकी दोनों स्क्रीन काफी विशाल हैं। ‘न्यूटन’ जैसी फिल्म को दिल्ली में मुश्किल से 20-25 स्क्रीन मिल पाई हैं। ऐसे में मजबूरी में यह फिल्म मिराज में देखनी पड़ी। फिल्म शुरू होने के दस मिनट बाद अंदर घुसा और देखकर दंग रह गया कि ऑडी में सारी सीटें फुल थी। यानी हाउसफुल। ये आज के दौर में दुर्लभ नजारा है। इतनी बड़ी-ब़ड़ी फिल्में हाल फिलहाल देखी हैं लेकिन ‘बाहुबली’ व इससे पहले ‘बाजीराव मस्तानी’ के अलावा किसी में भी सीटें फुल नहीं नजर आई। ‘न्यूटन’ जैसी फिल्म में हाउसफुल मिलना सुखद आश्चर्य से कम नहीं था। दरअसल फिल्म रिलीज होने के दिन ही फिल्म को आस्कर के लिए भारत की एंट्री घोषित कर दिया गया और फिल्म को वो प्रचार मिल गया जो करोड़ों खर्च के भी नहीं मिल पाता।
बहरहाल फिल्म में भीड़ की वजह केवल आस्कर ही नहीं है बल्कि फिल्म को बनाया भी गया है बहुत ही गंभीरता से। बस आस्कर के लिए नामांकित हो जाने से इसके बारे में लोग जान गए और इसे अब ज्यादा दर्शक मिल जाएंगे जो सही बात है। ऐसी फिल्में ज्यादा से ज्यादा बड़े वर्ग तक पहुंचनी चाहिए। फिल्म में किसी भी मुद्दे पर भाषणबाजी नहीं की गई है। सकारात्मक व निष्पक्ष तरीके से निर्देशक अमित मसुरकर ने लोकतंत्र में मतदान की अहमियत को दिखाने का प्रयास किया है और वे अपना संदेश देने में सफल रहे हैं। कहानी इस तरह से है- नूतन उर्फ न्यूटन कुमार (राजकुमार राव) एक सरकारी मुलाजिम है और पूरी तरह से अपने काम के प्रति सजग व ईमानदार है। नक्सली इलाके (सुकमा, छत्तीसगढ़) में एक 76 मतदाताओं के बूथ पर निष्पक्ष मतदान कराने का जिम्मा उन्हें सौपा जाता है। वे अर्धसैनिक बलों की टुकड़ी के साथ पोलिंग बूथ पर जाते हैं और तमाम मुश्किलों के बीच वोट डलवाने में सफल रहते हैं। हालांकि जिस तरीके से मतदान सैनिक कराते हैं उससे वे सहमत नहीं थे लेकिन फिर भी आधे लोग मतदान कर देते हैं। बस इसके बाद सब लोग वापस लौट जाते हैं और अपने-अपने काम में लग जाते हैं।

 फिल्म की खासियत यह है कि इसमें किसी भी प्रकार का उपदेश नहीं दिया गया है। नक्सल प्रभावित व दूर दराज के इलाकों में चुनावी प्रक्रिया कैसे होती है और चुनाव प्रणाली के बारे में वहां के आदिवासी लोगों को कितनी जानकारी है इसकी तस्वीर फिल्म में बहुत ही ईमानदारी से खींची गई है। शानदार स्क्रीनप्ले व डायलाग हैं जो व्यवस्था पर व्यंग्य करने के साथ-साथ दर्शकों को गुदगुदाते भी रहते हैं। उदाहरण के तौर पर वह सीन जिसमें सैन्य अफसर यह कहता है- मैं लिखकर देता हूं कि कोई वोट डालने नहीं आएगा। इस पर पीठासीन अधिकारी का दायित्व निभा रहे राजकुमार राव उसके सामने कागज-पेन रखते हैं और कहते हैं लिखो। इस सीन पर दर्शक तालियां बजाने को मजबूर हो जाते हैं। फिल्म में एकमात्र महिला किरदार के रूप में एक आदिवासी टीचर को भी पोलिंग टीम में दिखाया गया है जो अपने क्षेत्र की समस्याओं से भी अवगत कराती रहती है। मतदानकर्मियों में से एक रघुबीर यादव हैं जो अच्छी कॉमेडी करते हैं। उनकी कॉमेडी भी व्यंग्य से भरी हुई है और कई मौकों पर चोट करने में सफल रहती है। फिल्म में नक्सली इलाकों में तैनात सैनिकों की समस्या भी उठाई गई है जो सुविधाओं के अभाव में वहां रहते हैं। जिनकी तनख्वाह बहुत कम होती है, आधुनिक हथियारों की कमी है।


कुल मिलाकर फिल्म एक संदेश देती है। संदेश यह है कि देश में आज भी ऐसे इलाके भी हैं जहां लोगों को अपने मताधिकार के बारे में नहीं पता है। उनका प्रत्याशी कौन है लोग यह भी नहीं जानते। इसलिए जब न्यूटन उनसे कहता है कि उनका चुना हुआ प्रतिनिधि दिल्ली में जाकर उनकी बात कहेगा तो वे अपने सरपंच को ही भेजने की बात करने लगते हैं। यह अच्छी बात है कि ऐसी फिल्म को लोग देख रहे हैं। इसी हफ्ते रिलीज हुई ‘भूमि’ जैसी बड़ी फिल्म से यह कई गुना बेहतर है। इसमें ‘टायलेट-एक प्रेम कथा’ की तरह से व्यवसायिक लटके झटके तो नहीं हैं लेकिन संदेश देने के मामले में यह उससे कहीं कम नहीं है। इसे देखें और पूरे परिवार के साथ देखें, यकीन मानिए पैसे व्यर्थ नहीं जाएंगे।

- हर्ष कुमार सिंह

Watch : Deep Review of Newton 


Friday 22 September 2017

DEEP REVIEW : Bhoomi

बदले की कहानी है संजय दत्त की कमबैक फिल्म

Rating- 2*

'भूमि' फिल्म के उस हिस्से की विशेष रूप से तारीफ होनी चाहिए जिसमें उसने बलात्कार करने वाले नाबालिग आरोपी की उम्र को लेकर सवाल खड़े किए हैं। दिखाया गया है कि अफगानिस्तान, सऊदी अरब, ईरान व कोरिया जैसे देशों में ऐसे आरोपी को कितनी बेरहमी से मारा जाता है। जबकि हमारे देश में उसे सुधार गृह भेजा जाता है। यहां तक की उसे क्षमायाचना का भी प्रावधान है। फिल्म के इस हिस्से को छोड़ दिया जाए तो 'भूमि' फिल्म कहीं भी रेप के मुद्दे पर कोई बहस शुरू करती नहीं नजर आती। यह एक बदले की कहानी है जिसमें एक पिता अपनी बेटी के बलात्कारियों को मौत के घाट उतारता है।

कुछ महीने पहले रवीना टंडन की 'मातृ' व श्रीदेवी की 'मॉम' में जो दिखाया गया था उससे इसमें कुछ भी अलग नहीं दिखाया गया है। बल्कि अगर इन्हें रैंक किया जाए तो 'भूमि' का नंबर तीसरा ही होगा। श्रीदेवी की फिल्म इन सबसे ज्यादा संवेदनशील थी। 'भूमि' की बस एक ही खासियत है कि इसमें संजय दत्त वापसी कर रहे हैं। उनके फैंस इसे देख सकते हैं। जेल से बाहर आने के बाद यह उनकी पहली फिल्म है और लगता है कि निर्देशक ओमंग कुमार इसे कैश कराना चाहते थे। उन्होंने फटाफट कहानी गढ़ी और संजय दत्त को सुना दी। फिल्म भी जल्दबाजी में शूट की गई है। ओमंग कुमार फिल्म जल्दी बनाने में एक्सपर्ट हैं। तीन साल में उनकी तीसरी फिल्म है। पहले 'मैरीकॉम', फिर 'सरबजीत' और अब 'भूमि'। और यकीन मानिए जो मौलिकता उनकी 'मैरीकॉम' में थी वह बाकी किसी में नहीं नजर आई। 'भूमि' तो उनकी सबसे कमजोर फिल्म है।
कहानी आगरा की दिखाई गई है। बार-बार ताजमहल दिखाया जाता है लेकिन इसका फिल्म से कोई ताल्लुक नहीं है। अरुण (संजय दत्त) जूते का काम करता है लेकिन यह नहीं साफ किया गया है कि क्या वह मोची (या दलित बिरादरी का) है? उनके रहन सहन को देखकर तो यह नहीं लगता। वैसे आगरा में बहुत से दूसरा जातियों के जूता व्यवसायी भी हैं। भूमि (अदिति राव हैदरी) संजय की बेटी है जिसे वह बहुत प्यार करते हैं। शुरू की आधा घंटे की फिल्म में तो यही दिखाने की कोशिश की गई है कि वे अपनी बेटी से कितना प्यार करते हैं। यह हिस्सा बहुत ही बोर करता है। अदिति के अपने प्रेमी (कोई नया हीरो) के साथ दो गाने भी इसी हिस्से में दिखा दिए गए हैं लेकिन कोई भी गीत ऐसा नहीं है जो आप याद रख सकें। इसके बाद वही कहानी शुरू हो जाती है जो रेप के मामलों में दिखाई जाती रही है। चार लोग भूमि से रेप करते हैं। उसकी शादी भी टूट जाती है। पुलिस व कानून कुछ नहीं कर पाते और अंत में संजय दत्त व अदिति खुद ही बदला लेने की ठान लेते हैं। बदला लेने का कहानी भी बेहद घिसी पिटी हुई है। या यूं कहें कि बहुत ही कमजोर है। संजय इतनी आसानी से सब को मार डालते हैं कि बस पूछिए मत। पुलिस भी उनकी मदद करने लगती है। इससे पहले 'मातृ' व 'मॉम' में भी पुलिस को मददगार दिखाया गया था।
संजय दत्त इस फिल्म में बुजुर्ग नजर आते हैं जो उनकी उम्र के हिसाब से सही है। एक जवान बेटी के पिता वे असली जीवन में भी हैं और यहां भी उसके लिए उपयुक्त नजर आते हैं। वैसे जेल से आने के बाद संजय दत्त ने अपने शरीर पर मेहनत नहीं की और उनका पेट बाहर निकला नजर आता है। वे उतने फिट भी नहीं दिखे। एक्शन सींस में वे उतने प्रभावशाली नहीं नजर आए। कुछ सींस में उन्होंने अभिनय अच्छा किया है। अदालत में अपनी बेटी के समर्थन में आवाज उठाना और शराब पीकर मोहल्ले के लोगों को धिक्कारने वाले सीन में उन्होंने प्रभावित किया है। अदिति राव हैदरी अच्छी कलाकार हैं। आंसू बहाने का काम उन्हें मिला था जिसे वे अच्छी तरह से निभा गई हैं। कोई और अभिनेत्री होती तो वह भी यही करती। उन्हें केवल आंसू बहाने थे और 'बेचारी बेटी' की भूमिका निभानी थी और इसमें वे सफल रही हैं। हां लंबे समय बाद शेखर सुमन को बड़े पर्दे पर देखकर अच्छा लगा। संजय के दोस्त ताज की भूमिका उन्होंने बढिय़ा निभाई है। बाकी कलाकार औसत हैं।
ऐसे गंभीर विषयों पर फिल्म बनाने के लिए अच्छे डायलाग व संगीत की जरूरत होती है और इसमें ये दोनों ही गायब हैं। ओमंग कुमार ने 'सरबजीत' की तरह इसमें भी इन पर ध्यान नहीं दिया। सबसे गलत बात तो यह लगी जब इंटरवल के एकदम बाद सन्नी लियोनी का वाहियात आयटम सांग ठूंस दिया। इसकी कतई जरूरत नहीं थी। न गीत समझ में आया कि क्या है और न ही सनी लियोनी का डांस? इससे फिल्म केवल कमजोर व लंबी ही हुई। फोटोग्राफी कुछ हिस्सों में अच्छी है। खासतौर से क्लाइमेक्स में राजस्थान की बावड़ी का सीन बहुत ही बढिय़ा पिक्चराइज किया गया है। लगता है ओमंग कुमार ने फिल्म के निर्माण के दौरान इसमें चेंज भी किए तभी तो श्राद्ध व नवरात्र की टाइमिंग सही बैठी है। अभी एक ही दिन पहले नवरात्र शुरू हुए हैं और फिल्म के क्लाइमेक्स में जय माता दी की गूंज सुनाई गई है।
कुल मिलाकर फिल्म प्रभावित नहीं करती। परिवार के साथ आप इसे देखेंगे तो समय खराब होगा और न आप अपने परिवार को मनोरंजन कर पाएंगे और ना ही कोई सीख हासिल करा पाएंगे।

- हर्ष कुमार सिंह 


Watch : DEEP REVIEW of Bhoomi (Subscribe- harshkumarvideos) 

Friday 15 September 2017

DEEP REVIEW : Simran

कंगना की हौसला अफजाई के लिए जरूर देखें ये फिल्म 

Rating: 3*

अगर आप सिमरन से ये उम्मीद कर रहे हैं कि ये दूसरी क्वीन है तो आपको धक्का लग सकता है। यह फिल्म क्वीन की तरह मनोरंजन से भरपूर नहीं है। न उस तरह का संगीत है न कहानी। बस केवल कंगना ही कंगना है। कंगना रनौत ने इस फिल्म के माध्यम से यह संदेश देने की कोशिश की है कि अब वे उस पोजिशन में पहुंच चुकी हैं कि उन्हें किसी भी स्टार को अपनी फिल्म में लेने की जरूरत नहीं है। हालांकि इसे आप उनका अति आत्मविश्वास भी कह सकते हैं लेकिन अगर अब कंगना को ऐसा लगता है तो कोई क्या कर सकता है?

कंगना ने हाल ही में एक इंटरव्यू में पूछे गए सवाल के जवाब में कहा है कि अगर अपने रवैये के कारण फिल्म इंडस्ट्री में उन पर लोग बैन भी लगा देते हैं तो उन्हें इसकी फिक्र नहीं है। वे तीन-तीन नेशनल अवार्ड जीत चुकी हैं और सिरे से तीन-तीन सुपर हिट (क्वीन, तनु वेड्स मनु व तनु वेड्स मनु रिटर्नंस)फिल्में दे चुकी हैं। ऐसे में अगर उनका कैरियर खत्म भी हो जाता है तो उन्हें कोई परवाह नहीं। इंडस्ट्री में गुटबाजी, भाई-भतीजावाद जैसे मुद्दों से आजिज आ चुकी कंगना रनौत ने अब अपना तरीका अपनाया है बालीवुड से पंगा लेने का।
सिमरन के साथ कंगना ने प्रोडक्शन की कमान भी संभाल ली है। यानी अब वे अपनी मर्जी की फिल्म करेंगी अपनी मर्जी के निर्देशक के साथ काम करेंगी और अपनी इच्छा से स्टार चुनेंगी। और इसी वजह से सिमरन में कोई बड़ा स्टार नहीं लिया गया है। छोटे से छोटे रोल में भी नए व अपेक्षाकृत कम पापुलर कलाकारों को कास्ट किया गया है। मैं अपनी बात करूं तो पूरी फिल्म की जितनी भी स्टार कास्ट है उनमें से किसी का नाम मुझे नहीं पता। उनके नाम जानने के लिए मुझे गूगल पर सर्च करना होगा और यह मैं करना नहीं चाहता।
कंगना की पिछली फिल्म रंगून जब बाक्स आफिस पर ढेर हो गई थी तो इंडस्ट्री का एक बड़ा तबका बहुत खुश हुआ था। पार्टियां हुई थी। कंगना ने इतने लोगों से पंगे लिए हैं कि वे उनकी नाकामयाबी को सेलीब्रेट कर रहे हैं। अब सिमरन बाक्स आफिस पर क्या करिश्मा दिखाती है यह तो एक हफ्ते में पता चल ही जाएगा लेकिन यहां हम बात करते हैं इस फिल्म के खास बातों पर।

प्रफुल्ल पटेल (कंगना) गुजराती परिवार से है और अपने मां-बाप के साथ अमेरिका में रहती है। होटल में हाउसकीपिंग का जॉब करती है। अपने पैसे एकत्र करके घर खरीदना चाहती है। तलाक हो चुका है, 30 साल की आयु पार कर चुकी है लेकिन बिंदास जीने की तमन्ना उसके मन में है। एक दिन जुए में इत्तेफाक से कुछ पैसे जीत जाती है तो जुए में रिस्क उठाकर अपने घर के लिए जमा किए हुए पैसे भी हार जाती है। कुछ लोगों से पैसा उधार ले लेती है और उन्हें भी जुए में हार जाती है। उनका उधार चुकाने के लिए चोरी करने लगती है, बैंक लूटने लगती है। मां-बाप शादी के लिए जोर डालते हैं तो पैसे के लालच में उसके लिए भी तैयार हो जाती है। उसे देखने आया लड़का भी उसे पसंद करता है। वह पैसे से उसकी मदद करना चाहता है लेकिन खुद्दार कंगना को यह पसंद नहीं आता। अंत में कंगना गिरफ्तार हो जाती है और 10 महीने की सजा उसे हो जाती है।
फिल्म का अंत सुखद और मजेदार है। पर फिल्म उतनी जोरदार नहीं है जितनी होनी चाहिए थी। मनोरंजन कम है। गीत-संगीत कुछ खास नहीं है। अगर कुछ देखने लायक है तो है वो है कंगना का अभिनय। कंगना ने क्वीन से कमतर काम नहीं किया है। बस लोगों को यह कहानी, जो कहा जा रहा है सत्यकथा पर आधारित है, शायद हजम नहीं हो। कंगना के अभिनय में उनके निजी जीवन के संघर्ष व उतार चढ़ाव की झलक नजर आती है। एक आम हिंदुस्तानी लड़की का अंग्रेजी बोलने का जो अंदाज उन्होंने दिखाया है वो दर्शकों को खूब हंसाता है। कंगना का अभिनय तो खैर है ही स्वाभाविक। लगता ही नहीं है कि वे एक्टिंग कर रही हैं। वे किरदार में इतना घुस जाती हैं कि लगता है कि जैसे वे चरित्र को ही जी रही हैं।
फिल्म के निर्देशक हंसल मेहता हैं। वे इससे पहले कई जबर्दस्त व पुरस्कार विजेता (अलीगढ़, शाहिद व सिटीलाइट) फिल्में बना चुके हैं लेकिन मैंने उनकी यह पहली फिल्म देखी है। अपनी निर्देशन क्षमता से उन्होंने कोई खास प्रभावित नहीं किया। फिल्म में हर सीन में कंगना ही नजर आती हैं और हंसल भी लगता है कि यह फिल्म कंगना के लिए ही बना रहे थे। अब तो सुनने में यह भी आ रहा है कि कंगना निर्देशक भी बन रही हैं। यानी कंगना ने पूरी फिल्म इंडस्ट्री से ही ठान ली है। ऐसे में उनका हौसला तो बढ़ाने की जरूरत है। इसलिए यह फिल्म एक बार जरूर देखें और इस साहसी अभिनेत्री की हौसला अफजाई करें।

- हर्ष कुमार सिंह 

Watch Video - Deep Review of Simran





Friday 8 September 2017

Watch: आखिर क्या है 'पदमावती' की कहानी



संजय लीला भंसाली की बहुप्रतीक्षित फिल्म 'पदमावती' की कहानी को लेकर खूब बवाल हो चुका है। आखिर क्या है इसका सच। क्या कहानी थी रानी पदमावती की। इसी से परदा उठाया गया है इस वीडियो में। देखें, सुनें और शेयर करें। फिल्म में रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण, शाहिद कपूर व अदिति राव हैदरी मुख्य भूमिका में हैं।

Watch : Story of Film Padmavati ! Facts and findings!! 

(Subscribe- harshkumarvideos) 

 

फिल्म 1 दिसंबर 2017 को रिलीज होगी।

Monday 4 September 2017

पहलाज निहलानी के विरोध और समर्थन में एक पोस्ट

विरोध मेंः
संस्कारी का टैग पा चुके सेंसर बोर्ड के पूर्व चेयरमैन पहलाज निहलानी के पास अब किसी सवाल का जवाब नहीं है। एक महीने पहले सेंसर बोर्ड के चेयरमैन पद से अपमानजनक तरीके से हटा दिए गए पहलाज निहलानी बतौर वितरक अपनी पहली फिल्म की हिरोईन की खूबसूरती की तारीफ करके सारे सवालों से किनारा करते नजर आए। ऐसा ही होता है, कहते हैं सवाल करने से आसान काम कुछ नहीं लेकिन जब जवाब देने की बारी आती है तो पसीने छूट जाते हैं।
एक साल पहले उड़ता पंजाब फिल्म को पास करने से इनकार कर देने वाले पहलाज निहलानी अब खुद उसी स्थिति में खड़े नजर आ रहे हैं जहां कुछ समय पहले तक वे दूसरों को किया करते थे। 90 के दशक में बालीवुड के एक कामयाब निर्माता रहे पहलाज निहलानी केंद्र में मोदी सरकार के गठन के समय सेंसर बोर्ड के चेयरमैन बनाए गए थे। उसके बाद से कोई महीना ऐसा नहीं गया जब पहलाज निहलानी अपने दायित्व को निभाते समय किसी विवाद में न फंसे हों। किसी भी फिल्म में इंटीमेट सींस हों या फिर कोई ऐसा डायलाग हो जिसमें कोई राजनीतिक एंगल उन्हें नजर आता हो तो समझ लीजिए आपकी फिल्म फंस गई। इंतहा तो उस समय हो गई जब उड़ता पंजाब को उन्होंने पास करने से केवल इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि इसमें देश के एक राज्य की छवि धूमिल हो रही थी। अमूमन सामान्य तौर पर सॉफ्ट टारगेट बन जाने वाली पूरी फिल्म इंडस्ट्री उनके खिलाफ उठ खड़ी हुई और पहलाज के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इसमें अनुराग कश्यप, एकता कपूर, अभिषेक कपूर, मुकेश भट्ट, महेश भट्ट जैसे बड़े नाम शामिल थे। खैर फिल्म रिलीज भी हुई थी और अच्छा खासा बिजनेस भी करने में सफल रही थी।

प्रेस कांफ्रेंस में पहलाज निहलानी
बहरहाल पहलाज पर लगातार उठ रही उंगलियों के बाद सरकार ने खुद को असहज स्थिति से बचाने के लिए पहलाज से किनारा कर लिया। जैसे ही स्मृति ईरानी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनी वैसे ही पहलाज को हटाकर लेखक प्रसून जोशी को सेंसर बोर्ड की कमान सौंप दी गई।
अब पहलाज निहलानी दूसरे फिल्म निर्माताओं की तरह ही हैं और लंबे समय से डिब्बे में बंद पड़ी फिल्म जूली 2 को रिलीज करने जा रहे हैं। फिल्म में दक्षिण की अभिनेत्री राय लक्ष्मी लीड स्टार हैं और निर्देशक हैं दीपक शिवदासानी। दीपक व पहलाज का पुराना व्यवसायिक रिश्ता रहा है। 90 के दशक में दीपक ने पहलाज के लिए भी कुछ फिल्में बनाई थीं लेकिन पिछले कुछ साल से दीपक गायब से हो गए हैं। इससे पहले उन्होंने नेहा धूपिया को लेकर जूली फिल्म बनाई थी जो अपने बोल्ड सींस की वजह से ही याद की जाती है। नेहा ने इसमें एक सेक्स वर्कर का किरदार निभाया था। हालांकि फिल्म बहुत बड़ी हिट नहीं थी लेकिन नुकसान में भी नहीं रही थी। सीक्वल फिल्मों के दौर में दीपक ने कन्नड़ अभिनेत्री राय लक्ष्मी के साथ इस फिल्म को बनाया और दो साल से यह फिल्म रिलीज की राह तक रही है। वजह, वितरक नहीं मिल रहे। और जानते हैं इसे रिलीज करने का बीड़ा उठाया तो किसने ? अपने संस्कारी पहलाज निहलानी ने। फिल्म 6 अक्टूबर को रिलीज होने जा रही है और इसी सिलसिले में पहलाज व फिल्म की टीम ने सोमवार को एक प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया। अब जब से चेयरमैन पद से हटे हैं तब से पहलाज मीडिया के घेरे में आए ही नहीं थे और आज मौका था। सवालों की शुरूआत भी पहलाज से ही हुई और अंत भी। मजेदार बात यह थी कि पहलाज सवालों का जवाब देते हुए इतने नर्वस नजर आए कि वे सवाल क्या पूछा जा रहा है और उसका क्या जवाब देना चाहिए ये उन्हें सूझा ही नहीं। सवाल कुछ भी था बस जवाब यही था कि मैंने सेंसर बोर्ड में रहते हुए कुछ भी गलत नहीं किया। हां उन्होंने यह जरूर कहा कि आप लोग फिल्म देखने से पहले ही यह ओपिनियन क्यों बना रहे हैं कि फिल्म में आपत्तिजनक सींस होंगे। मीडियाकर्मी भी कम नहीं थे। सवाल उछला कि पहला पार्ट सबने देखा है और उसमें इतने हॉट सींस थे फिर यह कैसे मान लिया जाए कि इसमें नहीं होंगे ? बहरहाल फिल्म के निर्माता निर्देशक को बीच में कूदना पड़ा और बात को फिल्म की दिशा में मोड़ने की कोशिश की लेकिन मीडिया के हमले कम नहीं हुए। अंत में पहलाज को यही कहना पड़ा कि इस फिल्म में इतनी सुंदर हिरोईन है और आप किसी चक्कर में पड़े हुए हैं। फिल्म देखिए और इसके बाद फैसला कीजिए।
जूली 2 की हिरोइन राय लक्ष्मी प्रेस कांफ्रेंस में।
समर्थन मेंः
पहलाज निहलानी का नाम आते ही सेंसर बोर्ड के चेयरमैन के रूप में उनकी कथित तौर पर कट्टर संस्कारी छवि ही सामने उभर आती है। आलोचनाएं करते समय लोग यह भी भूल जाते हैं कि 90 के दशक में मनोरंजक फिल्में पेश करने का कीर्तिमान भी पहलाज निहलानी के नाम रहा है। बतौर सेंसर बोर्ड चीफ उनकी कार्य प्रणाली कुछ ज्यादा ही टारगेट पर रही। सेंसर की कैंची जब भी उन्होंने उठाई तब-तब उनकी बनाई गई फिल्मों के अश्लील संवादों व डबल मीनिंग डायलाग्स की चर्चा मीडिया ने जोर-शोर से की।
सेंसर बोर्ड का चेयरमैन रहते समय उन्होंने जो भी काम किया या फिल्मों को प्रमाण पत्र देते समय जो भी नजरिया अपनाया उसे लेकर सवाल तो बहुत उठे लेकिन इस पर एतरफा हमले ही ज्यादा हुए। हर बार यह मान लिया गया कि पहलाज कुछ गलत कर रहे हैं। इसके अन्य पहलुओं पर बहस, जिसकी गुंजाइश थी, नहीं हुई।
उड़ता पंजाब की ही बात करें। इस फिल्म को देखने के बाद पंजाब के लोगों में इस ओपनियन ने भी जन्म लिया कि यह फिल्म उनके राज्य के बारे में बहुत ही गलत छवि पेश कर रही है। पहले पंजाब का नाम आते ही जहां लहलहाते खेत, भंगड़ा करते युवक व गिद्धा डालती युवतियों की छवि उभर आती थी वहीं अब पंजाब का नाम चिट्टा यानी ड्रग्स से जुड़ गया। हालांकि इस तरह की आवाजें राजनीतिक ज्यादा थीं। पंजाब में विधानसभा चुनाव सिर पर थे और वहां की अकाली-भाजपा सरकार लगातार इसे लेकर निशाने पर थी कि स्टेट में नशे का कारोबार बहुत फैल गया है। और यह फिल्म ठीक चुनाव से कुछ समय पहले रिलीज हो रही थी। तमाम दबावों के बाद फिल्म रिलीज तो जरूर हो गई थी लेकिन यह महसूस किया गया था कि वास्तव में यह फिल्म पंजाब जैसे खुशहाल राज्य की बहुत ही डार्क छवि सामने लाती है।
मेरे मित्र कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य का ये बेहतरीन कार्टून।
 अब जबकि पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड चेयरमैन नहीं रहे हैं और फिर से अपने निर्माण व वितरण के धंधे में वापसी कर रहे हैं तो उन्हें निशाने पर लिया जा रहा है। जूली 2 के नाम से बनी एक फिल्म, जो लगभग 2 साल से रिलीज की राह तक रही है, को पहलाज रिलीज करने जा रहे हैं। उन्होंने सोमवार को इसके ट्रेलर रिलीज इवेंट में मीडिया के बहुत कड़े सवालों का सामना किया। इस प्रेस कांफ्रेंस में सारे सवाल उसी दिशा में रहे। आपने चेयरमैन रहते हुए तो दूसरों की फिल्मों पर सवाल उठाए और अब आप ही ऐसी बोल्ड फिल्म रिलीज करने जा रहे हैं ? सवाल उठना वाजिब ही है लेकिन इस पर पहलाज ने अपनी राय दी कि आप फिल्म को देखने से पहले ही क्यों अपनी धारणा बना रहे हैं। पहलाज ने कहा- फिल्म को यू/ए सर्टीफिकेट दिया गया है और इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। इसके बावजूद वे मीडिया के सवालों को लगातार झेलते रहे और यही कहने का प्रयास करते रहे कि आप पहले फिल्म देख तो लें।
जूली के स्टिल में राय लक्ष्मी
यहां अहम सवाल यह भी उठता है कि क्या बतौर निर्माता या वितरक भी पहलाज ऐसे सवालों का ही हमेशा जवाब देते रहेंगे? सोशल मीडिया ने भी उन पर कड़ी प्रतिक्रया दी है। सोशलाइट सुहेल सेठ ने टि्वटर पर चुटकी भी ले डाली- चलिए लगता है कि पहलाज अब सेंसर बोर्ड चीफ के दायित्व से मुक्त हो गए हैं और खुद को डिलाइटिड फील कर रहे हैं कि वे हमारे लिए जूली 2 जैसी फिल्म पेश कर सकें। सुहेल सेठ खुद बालीवुड से जुड़े रहे हैं लेकिन पहलाज निहलानी का सेंसर बोर्ड चेयरमैन के रूप में कामकाज शायद उन्हें इतना अखरा कि वे उनके समर्थन के लिए खुद को तैयार नहीं कर सके।
बालीवुड से उनके समर्थन में एक आवाज नहीं उठी है। बात-बात पर ट्वीट कर देने वाला बालीवुड अब खामोशी का रुख अख्तयार कर चुका है। ऐसे में पहलाज खुद को अकेला ही खड़ा महसूस करेंगे।
इस मुद्दे पर बहुत ज्यादा बहस नहीं की गई कि क्या सेंसर बोर्ड के चेयरमैन रहते हुए उन्होंने जो भी किया था उसके लिए क्या ऊपर से उन्हें कोई गाइड लाइन दी गई थी? क्या सही है क्या गलत है, क्या पास किया जाए और क्या नहीं, इसे लेकर क्या उन्हें कोई दिशा दी गई थी ? इस पर कोई चर्चा नहीं हुई और बस चेयरमैन के रूप में उनका कार्यकाल खत्म होने के साथ ही शायद संतुष्टि के भाव ने जन्म ले लिया और अब शायद पहलाज निशाने पर ही बने रहेंगे।

- हर्ष कुमार सिंह

Friday 1 September 2017

DEEP REVIEW : Baadshaho

इलियाना डी क्रूज के कैरियर की सबसे अहम फिल्म  
Rating - 1*

इस फिल्म को देखने के बाद अगर आप यह बता दें कि इसका नाम 'बादशाहो' क्यों है तो समझिए आप कौन बनेगा करोड़पति में 7 करोड़ का इनाम जीतने के हकदार हैं। इस फिल्म को इलियाना डी क्रूज के अलावा किसी भी अन्य कलाकार ने क्या सोचकर साइन किया होगा इसका जवाब वे ही दे सकते हैं। वैसे मिलन लुथारिया व अजय देवगन की जोड़ी ने इससे पहले 'कच्चे धागे' व 'वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई' जैसी बेहतरीन फिल्में दी हैं लेकिन यहां यह जोड़ी बुरी तरह मात खा गई।

एक छोटी सी कहानी को इतनी खींच दिया गया कि दर्शक इंटरवल तक आते-आते ही यह पूछने लगते हैं कि यार बहुत बड़ी फिल्म है। अभी तो इंटरवल ही नहीं हुआ खत्म कब होगी? समझ में नहीं आता कि 'द डर्टी पिक्चर' जैसी बेहतरीन आल टाइम क्लासिक बनाने वाला मिलन लुथारिया जैसा निर्देशक कैसे इतनी घटिया फिल्म बना सकता है। वैसे राजस्थान से मिलन को हमेशा प्यार रहा है और उन्होंने इसका ताना बाना भी वहीं बुना लेकिन कहानी इतनी कमजोर चुनी कि बात नहीं बन सकी। इस फिल्म से अगर किसी को फायदा हो सकता है तो वो है इलियाना। उनके कैरियर की यह सबसे बड़ी फिल्म है। मेरा मानना है कि इतना लंबा व सेंटर कैरेक्टर वाला किरदार आज की तारीख में किसी अभिनेत्री को निभाने के लिए नहीं मिलता है। इलियाना को इसका आभास हो गया था और उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया। न्यूड सीन से लेकर लंबे-लंबे किस तक उन्होंने किसी भी चीज में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिल्म चले या न चले लेकिन इलियाना को इससे फायदा होना तय है।

कहानी गीतांजलि (इलियाना) के ईर्द गिर्द घूमती है। गीतांजलि राजस्थान की एक रियासत की रानी है। 1975 में देश में इमरजैंसी लगती है तो सरकार मनमानी करने लगती है। इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी की तरह दिखने वाला संजीव (एक नेता) गीतांजलि पर गंदी नीयत रखता है और उसके इनकार करने पर उसके पीछे पड़ जाता है। उसे जेल में डालकर उसका सारा खजाना हड़प कर लेने की साजिश करता है। गीतांजलि का बॉडीगार्ड भवानी (अजय देवगन) अपने दोस्त दलिया (इमरान हाशमी) व गुरुजी (संजय मिश्रा) के साथ मिलकर खजाने को बचाने की कोशिश करता है। इसमें गीतांजलि की दोस्त संजना (एशा गुप्ता) भी उनकी मदद करती है। लंबी खिचड़ी पकती है। बिना किसी गीत संगीत के फिल्म यूं ही राजस्थान की लोकेशंस व राजस्थान जैसे दिखने वाले स्टूडियो सेट्स पर धक्के खाते रहती है और अंत में बिना किसी तार्किक नतीजे पर पहुंचे खत्म हो जाती है। खजाना जनता के बीच पहुंच जाता है और बाकी किसी को कुछ हाथ नहीं लगता। कुछ ऐसा ही हाल दर्शकों का हो चुका होता है। वे भी खुद को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं। अरे ये क्या हुआ? इलियाना कहां गई? उसका प्रेमी कहां गया? कुछ पता नहीं चलता।
पहली बात तो यह समझ में नहीं आई कि इस फिल्म को इमरजैंसी की बैकग्राउंड पर क्यों बनाया गया? हाल ही में 'इंदु सरकार' भी उसी टाइम पीरियड पर बनी थी और उसका बाक्स आफिस पर क्या हाल हुआ था सब जानते हैं। यहां तो हालत और भी बुरी है। इतनी बड़ी स्टार कास्ट के बाद भी फिल्म में रत्तीभर रोमांच नहीं है। कहानी को 1975 का दिखाने के लिए बस इतना किया गया है कि इमरान हाशमी, इलियाना व एशा को बैलबाटम पहना दी गई हैं। मोबाइल के बजाए लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल होता है। बाकी कुछ भी 1975 का नहीं लगता। सनी लियोनी आइटम सांग के लिए आती है तो ऐसा लगता है जैसे आजकल का ही कोई अन्य चालू आइटम सांग देख रहे हैं। गोलियां चलती हैं तो धड़ाधड़ चलती ही रहती हैं। सारी गन्स व पिस्टल ऑटोमैटिक हैं जिनकी गोलियां खत्म होने का नाम नहीं लेती।
एक्टिंग की बात करें तो अजय देवगन, इमरान हाशमी, विद्युत जामवाल, एशा गुप्ता व संजय मिश्रा सभी साधारण हैं। अजय देवगन को कहानी अच्छी मिलती है तो वे जोरदार काम करते हैं लेकिन पिछले कुछ समय से उनका कहानी का चुनाव बहुत खराब रहा है। 'एक्शन जैक्शन' व 'शिवाय' जैसी बेसिर पैर की फिल्में वे कर रहे हैं। इमरान हाशमी तो कभी अच्छे अभिनेता थे ही नहीं। संजय मिश्रा फिर भी दिल लगा देते हैं थोड़ा बहुत।
कुल मिलाकर यह फिल्म एक बार देखने लायक भी नहीं है। यदि आप कोई फिल्म देखना ही चाहते हैं तो 'बादशाहो' के बजाय 'टायलेट एक प्रेम कथा' या फिर 'बाबूमोशाए बंदूकबाज' ही देख लें तो बेहतर होगा। कम से कम पैसा खराब होने का पछतावा तो नहीं होगा।
- हर्ष कुमार 

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Friday 11 August 2017

DEEP REVIEW : Toilet - Ek Prem Katha

‘शौच’ के साथ ‘सोच’ बदलने के लिए अक्षय को धन्यवाद 

Rating- 5*****

इसे कहते हैं असली सिनेमा। मनोरंजन का मनोरंजन और समाज के लिए संदेश भी। इस काम को राजकुमार हिरानी ने भी किया कुछ साल पहले जब उन्होंने गांधीगिरी का संदेश दिया था लेकिन अक्षय कुमार ने कमाल ही कर दिया है। उन्होंने महिलाओं की आजादी व समानता को अमली जामा पहनाए जाने के लिए मुहिम ही छेड़ दी है। इसके लिए उन्होंने जरिया बनाया खुले में शौच करने की कुप्रथा को खत्म करने की सोच को बढ़ावा देकर। फिल्म केवल देश की सरकार की सोच में कंधे से कंधा मिलाने की ही बात नहीं करती बल्कि यह भी संदेश बहुत जोरदार तरीके से देने की कोशिश करती है कि जब तक हम खुद को नहीं बदलेंगे तब तक कोई सरकार कुछ नहीं कर सकती।

फिल्म के दो मैसेज बहुत साफ हैं:-
1. शौचालय व महिलाओं की आजादी की बात सभ्यता के खिलाफ लड़ाई है और यह वो चीज है जिसे किसी ने आज तक देखा नहीं है बल्कि हम सबके अंदर ही है।

2. फिल्म यह भी सबक देती है कि जब तक कोई समस्या हमें निजी तौर पर नहीं महसूस होती तब तक हम उसे समस्या ही नहीं समझते।

मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के साथ ही देश में महिलाओं के लिए घर-घर शौचालय बनाए जाने का अभियान शुरू किया था। लाल किले की प्राचीर से खुद पीएम ने कहा था कि अगले स्वतंत्रता दिवस तक सभी सरकारी स्कूलों में बालिकाओं के लिए अलग से शौचालय बनाए जाने चाहिए। बस तभी से यह अभियान जारी है। हो सकता है कि सरकारी स्कूलों में ऐसा हो गया हो लेकिन यह हकीकत है कि आज भी गांव-देहात में न केवल लाखों महिलाएं बल्कि पुरुष भी खुले में शौच करने के लिए जाते हैं। कुछ इसे आदत बताते हैं तो कुछ दकियानूसी विचारधारा की वजह से ऐसा करते हैं। यह फिल्म दोनों तरह के मोर्चों पर टक्कर लेती नजर आती है। और सबसे खास बात है कि तमाम भाषणबाजी और नाटकबाजी के बाद भी आप बोर नहीं होते और हंसते-हंसते फिल्म खत्म हो जाती है।
कहानी वेस्ट यूपी के प्रसिद्ध मथुरा में केंद्रित है। केशव (अक्षय कुमार) को पढ़ी लिखी जया (भू्मि पेढनेकर) से प्यार हो जाता है और किसी न किसी तरह वह उसे शादी करने के लिए तैयार कर लेता है। जया को उस समय बहुत धक्का लगता है जब वह देखती है कि उसकी ससुराल में शौचालय नहीं है। जया खुले में शौच करने से इंकार कर देती है। केशव उसे कभी प्रधान के घर शौचालय में ले जाता है तो कभी ट्रेन में। चोरी की टायलेट भी लाता है लेकिन पिता की रूढि़वादी सोच उसे कामयाब नहीं होने देती। जया मायके चली जाती है। इसके बाद शुरू होता है गांव में टायलेट बनवाने का सिलसिला। अंत में केशव व जया की मुहिम रंग लाती है और शौच के साथ सोच भी बदल जाती है।

फिल्म के कहानी व पटकथा तो कमाल के हैं ही संवाद तो बेहद शानदार हैं। ऐसी फिल्मों में डायलाग ही तो असली काम करते हैं। एक नहीं कई सीन इतने शानदार तरीके से लिखे गए हैं। फिर भी तीन का यहां जिक्र करना जरूरी है:-

1. केशव की दादी जब जया के मायके उसकी शिकायत लगाने आती है और जया अपनी भड़ास वहां से गुजर रही महिलाओं को कसकर फटकार लगाकर निकलती है। भूमि ने कमाल कर दिया है।

2. केशव घर में टॉयलेट बनाता है तो पिता उसे तुड़वा देते हैं। इसके बाद केशव गुस्से में जिस तरह से अपने पिता व गांव वालों को झिंझोड़ता है, यह सीन देखने वाला है। गजब के डायलाग लिखे गए हैं।

3. जया के ताऊ जी (अनुपम खेर) जब केशव के पिता से मिलने उनके घर आते हैं। चंद संवादों में ही सारी बात कह देते हैं। अनुपम कहते हैं- अगर आप नहीं बदलोगे तो कुछ नहीं बदलेगा।


फिल्म की तारीफ इसलिए भी की जानी चाहिए क्योंकि यह गंभीरता का पुट न लेकर हास परिहास के अंदाज में अपनी बात कहती है। निर्देशक ने कठोर संदेश भी प्यार से दिए हैं और लोग सिनेमा में ठहाके ही लगाते रहते हैं। गीत संगीत भी बेहतरीन है। ‘हंस मत पगली प्यार हो जाएगा’ व ‘तू लट्ठमार’ (मशहूर वृंदावन की होली) बेहतरीन गीत हैं और फिल्म में जान फूंक देते हैं।

एक और बात फिल्म को स्पेशल बना देती है और वो हैं इसकी लोकेशंस। फिल्म बिल्कुल ओरिजनल लोकेशंस पर शूट की गई है और इसलिए दर्शक इससे बहुत ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं। कोई भी सीन स्टूडियो में नहीं फिल्माया गया है। यह ऐसी फिल्म है जिसे सभी राज्यों में टैक्स फ्री किया जाना चाहिए। अगर इस तरह की फिल्मों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचाया गया तो यह इसके साथ अन्याय होगा। पता नहीं हमारे देश में अच्छी फिल्मों को टैक्स फ्री करने का चलन क्यों कम होता जा रहा है? वो भी तब जबकि यह फिल्म यह भी कह देती है कि हमें हर चीज के लिए सरकारी तंत्र की मुंह नहीं तकना चाहिए। जब हम घर में टीवी, मोबाइल अपने पैसे से खरीद सकते हैं तो टायलेट क्यों नहीं बनवा सकते।

खैर अक्षय ने ऐसा प्रयास किया है कि इसे सराहा जाना चाहिए और अगर आप उन्हें उनकी मेहनत का फल देना चाहते हैं तो इस फिल्म को पूरे परिवार के साथ सिनेमा में जाकर देखें और अपना योगदान दें।

-हर्ष कुमार सिंह 

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Friday 4 August 2017

DEEP REVIEW : Jab Harry Met Sejal

शानदार अनुष्का शर्मा के लिए देखें 'जब हैरी मेट सेजल'

Ratings- 2*

शाहरुख खान ने 'जब हैरी मेट सेजल' के साथ ट्रैक बदलने की नाकाम कोशिश की है। माना कि शाहरुख रोमांटिक फिल्मों के बादशाह रहे हैं लेकिन 90 के दशक में। आज के दौर में जिस तरह की रोमांटिक फिल्में बन रही हैं उनमें शाहरुख फिट नहीं बैठते। इम्तियाज अली इससे पहले 'तमाशाÓ बना चुके हैं जो बिल्कुल इसी तरह के कथानक पर आधारित थी। पर उसमें नायक के रूप में रनबीर कपूर थे और वे इस तरह की फिल्मों के मास्टर हैं। इससे पहले रनबीर ने 'ये जवानी है दीवानी में' भी इसी तरह का किरदार निभाया था और वह ब्लॉक बस्टर साबित हुई थी। हालांकि 'तमाशा' उतनी नहीं चली थी लेकिन जिस तरह के युवा किरदार को रनबीर ने निभाया था वो लोगों को पसंद आया था।

शाहरुख खान 50 की उम्र पार कर चुके हैं और इस फिल्म में वे बिल्कुल नहीं जमे हैं। सब जानते हैं कि अनुष्का शर्मा ने अपने कैरियर की शुरूआत शाहरुख के साथ (रब ने बना दी जोड़ी) ही की थी लेकिन दोनों की जोड़ी पसंद की गई थी यश चोपड़ा की 'जब तक है जान में' । यश चोपड़ा की अंतिम फिल्म थी और उसमें शाहरुख ने एक मैच्योर किरदार निभाया था जिसके साथ कम उम्र की एक लड़की एकतरफा प्यार में पड़ जाती है लेकिन बाद में शाहरुख अपने असली प्यार (कैटरीना) के साथ चले जाते हैं। उस कहानी में शाहरुख खान बहुत जमे थे लेकिन 'जब हैरी मेट सेजल' में यूरोप की गलियों में बिंदास और युवा अनुष्का के साथ लड़कों वाली हरकतें करते हजम नहीं होते। शाहरुख ने 'रईस' में एक्शन के साथ झटका खाने के बाद कुछ नया करने की कोशिश की और इम्तियाज अली को बतौर निर्देशक भी लिया लेकिन सब कुछ गड़बड़ हो गया।
इम्तियाज अली जिस तरह की फिल्में बनाते हैं वे शाहरुख खान के लिए सही नहीं हैं। शाहरुख खान ने फिल्म के लिए अपने गेटअप को बदलने व युवा दिखने की नाकाम कोशिश की है। ओपन चेस्ट शर्ट पहनना, सीने पर बड़ा सा टैटू बनाना और बिगडै़ल युवकों की तरह हरकतें भी खूब की हैं लेकिन वे जमते नहीं इस रोल में। रही सही कसर पूरी कर दी कमजोर कहानी में। आज के दौर की 90 प्रतिशत फिल्मों की तरह यह फिल्म भी बिना कहानी के शुरू की गई लगती है।
एक लाइन की कहानी है। सेजल यूरोप में अपने मंगेतर के साथ सगाई करने आती है लेकिन अपनी रिंग खो देती है। मंगेतर नाराज होता है तो रिंग ढूंढने के लिए यूरोप में रुक जाती है और अपने गाइड हैरी के साथ उन सब जगहों पर जाती है जहां-जहां वह घूमते समय गई थी। खुद को बिंदास व बोल्ड लड़की दिखाने के लिए सेजल खुद को हैरी की गर्लफ्रेंड बना लेती है और दोनों करीब आ जाते हैं। सेजल यह सोचने लगती है कि काश उसकी अंगूठी न मिले और उसका व हैरी का सफर यूं ही चलता रहे। पर अंगूठी तो उसके अपने पर्स में ही मिल जाती है। अंत में वह भारत लौट आती है और शादी से इनकार कर देती है। हैरी उसे ढूंढता हुआ भारत आता है और इसके बाद हैप्पी एंड। दोनों शादी कर लेते हैं और हैरी अपने साथ सेजल को लेकर पंजाब लौट जाता है।
इस जरा सी कहानी में झोल ही झोल हैं। पंजाब वाला एंगल फिल्म में क्यों डाला गया है समझ से परे है। सपने में बार-बार शाहरुख को ंपंजाब क्यों दिखता था यह समझाने में निर्देशक विफल रहे हैं। जबकि दर्शक सोच रहा होता है कि शायद इसकी भी कोई कहानी होगी। ढाई घंटे लंबी इस फिल्म में इम्तियाज अली ने संगीत के जरिये रंग भरने की कोशिश की है। जहां भी कहानी आगे बढ़ती नजर नहीं आती वहीं पर एक गाना डाल दिया गया है। हालांकि गाने इतने छोटे-छोटे हैं कि जल्दी ही निकल जाते हैं लेकिन कोई भी ऐसा नहीं है कि जिसे आप याद रख सकें या बार-बार सुन सकें। जबकि इससे पहले इम्तियाज की फिल्मों में संगीत बहुत ही मजबूत पक्ष रहा है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि शाहरुख को इम्तियाज अली के साथ हर हाल में फिल्म करनी थी इसलिए कर ली। बिना कहानी के ही फिल्म शुरू हो गई, बन गई और रिलीज हो गई। संवाद भी संगीत की तरह ही कमजोर हैं। इस तरह की फिल्में संवादों के दम पर ही आगे बढ़ती हैं लेकिन यहां वह भी मिसिंग है। अभिनय के लिहाज से शाहरुख तो उम्दा हैं ही बस कमी यही है कि किरदार उन्हें सूट नहीं करता। अनुष्का शर्मा को तो मैं हमेशा बेहतरीन अदाकारा बताता रहा हूं। कैटरीना व प्रियंका से वे आगे निकल चुकी हैं। 'सुल्तान' जैसी फिल्म में भी अनुष्का ने अपनी उपस्थिति का अहसास करा दिया था। वे वर्तमान दौर की सबसे उम्दा अदाकारा हैं। उनमें ताजगी है और एक बिंदासपन है जो उन्हें करीना व दीपिका जैसी अभिनेत्रियों की श्रेणी में ला खड़ा करता है। यह अनुष्का ही हैं जो 'ऐ दिल है मुश्किल' व 'जब हैरी मेट सेजल' जैसी फिल्मों में भी दमदार काम करके दिखा देती हैं। मेरा मानना है कि यह फिल्म केवल अनुष्का के लिए तो देखी जा सकती है बाकी इसमें देखने लायक कुछ नहीं है।
इस फिल्म को मोबाइल पर देखने के लिए यहां क्लिक करें
शाहरुख खान जब से निर्माता बने हैं तब से उनकी फिल्मों के स्तर में गिरावट आई है। आमिर खान व सलमान खान उनसे बेहतर इसलिए हैं क्योंकि वे कहानी चुनने के बाद फिल्म में हाथ डालते हैं जबकि शाहरुख के साथ ऐसा नहीं है। उन्हें अपने समकक्ष अक्षय कुमार से सीखना चाहिए जो एक से एक विविधता वाली कहानी चुनते हैं और एक से एक बेहतरीन फिल्म करते हैं।

- हर्ष कुमार सिंह 



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Friday 14 July 2017

DEEP REVIEW: Jagga Jasoos

'निर्माता रनबीर कपूर' के कैरियर की 'मेरा नाम जोकर'

Rating: 1*

कहानियों से भरी इस फिल्म की समीक्षा के पहले ये तीन कहानियां जरूर पढ़ लें:-
1. बतौर निर्माता रनबीर कपूर की यह पहली फिल्म है। सिद्धार्थ राय कपूर व अनुराग बसु भी सहयोगी निर्माता हैं। उनके साथ रनबीर पहले भी काम करते रहे हैं और इसलिए तीनों ने यह ज्वाइंट वेंचर बनाया है।
2. अनुराग बसु ने रनबीर के कैरियर की सबसे बेहतर फिल्म 'बर्फी' उन्हें दी थी। रनबीर उनके साथ एक और फिल्म करने के लिए बेताब थे भले ही वे कुछ भी बना दें। 'बर्फी' में अनुराग ने उन्हें गूंगा-बहरा बनाया था तो यहां हकला बना दिया।
3. फिल्म में कैटरीना कैफ केवल इसलिए हैं क्योंकि वे रनबीर की गर्लफ्रेंड हैं, नहीं तो कोई भी हिरोईन इस फिल्म को करने के लिए तैयार नहीं होती। यह कैटरीना की भूल है। उनके लिए फिल्म में कुछ था ही नहीं।

रनबीर कपूर इस दौर के सबसे बेहतरीन अभिनेता हैं इसमें कोई दोराय नहीं। वे कुछ भी करते हैं वो अलग ही होता है। अमिताभ बच्चन ने कहा था कि रनबीर बिना चेहरे पर हावभाव लिए एकटक देखते भी रहते हैं तो उसमें भी उनका अभिनय होता है। यह बात बिल्कुल सही भी है। वे स्ट्रेट फेस से भी अपनी बात कह देते हैं। उनमें ये मासूमियत भरी प्रतिभा अपने दादा राज कपूर से आई है। भोले आदमी के किरदार वे बखूबी निभाते थे और हसोड़ भी थे। बस गंभीरता के मामले में वे मात खा जाते थे। रनबीर ने 'पिक्चर शुरू' के नाम से अपना बैनर बनाया है और पहली फिल्म प्रोड्यूस की है और यकीन मानिए उन्होंने शुरू में ही 'मेरा नाम जोकर' बना दी है। फिल्म देखकर लगता है कि उन्होंने एक बेहद प्रयोगधर्मी फिल्म बनाने का फैसला किया, पर गच्चा खा गए। फर्क केवल इतना है कि 'मेरा नाम जोकर' को सब आज भी याद करते हैं लेकिन आने वाले समय में 'जग्गा जासूस' को कोई पूछेगा भी नहीं। जब राज कपूर ने चार घंटे की दो इंटरवल वाली 'मेरा नाम जोकर' बनाई थी तो उस समय के लिहाज से वह बहुत लंबी फिल्म थी। आज जबकि दो घंटे से भी कम समय में फिल्में निपट जाती हैं तो रनबीर ने तीन घंटे के करीब की फिल्म बना दी। इतिहास रिपीट होगा। 'मेरा नाम जोकर' भी नहीं फ्लाप रही थी और 'जग्गा जासूस' का भी हश्र वही होगा। शायद दादा जी की तरह रनबीर भी इस फिल्म को सबसे पसंदीदा बताते रहें लेकिन यह फिल्म देखने लायक नहीं बन पाई है।
 'जग्गा जासूस' को देखने के बाद केवल दो लोगों की ही तारीफ की जा सकती है। एक तो संवाद लेखक की और दूसरे कैमरामेन की। बाकी फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे पसंद किया जा सके या फिर जिसकी वजह से मैं यह फिल्म देखने की सिफारिश कर दूं। कहानी एक हकले लड़के की है जिसे अपने पिता की तलाश है। जासूसी का शौक है। बीच-बीच में अपने हुनर से वह कुछ मिस्ट्री भी हल करता जाता है। बस यही कहानी है और इसे ही खींचतान कर तीन घंटे के करीब का कर दिया गया है। संवाद कभी-कभी अच्छे हैं लेकिन कहानी इतनी पेचिदा और स्क्रीनप्ले इतना उलझा हुआ है कि कब क्या हुआ था इसे याद करने के लिए आपको बार-बार दिमाग पर जोर डालना पड़ता है। अगला सीन देखने के चक्कर में आप यह भूल ही जाते हैं कि आप क्या याद करने की कोशिश कर रहे थे। फिल्म की शुरूआत 1995 में नार्थ ईस्ट के पुरुलिया में हथियार गिराए जाने की घटना से होती है तो लगता है कि फिल्म में कुछ बहुत ही दिलचस्प देखने को मिलेगा लेकिन कहानी उट पटांग तरीके से आगे बढ़ती है और जमकर पकाती है। अंत में जरूर यह मैसेज देने की कोशिश करती है कि कुछ ताकतें हथियारों के जरिये किस तरह आतंकवाद को बढावा दे रही हैंं, लेकिन लोग फिल्म देखते समय इतना पक चुके होते हैं कि यह उन्हें बेमानी और फिजूल नजर आएगा।

वर्तमान दौर के सबसे प्रतिभाशाली संगीतकार प्रीतम चक्रवर्ती ने संगीत दिया है जो उनकी अन्य फिल्मों के मुकाबले बेहद कमजोर है। 'उल्ला का पट्ठा' व 'मिस्टेक' गीत फिल्म में इसलिए अच्छे लगते हैं क्योंकि वे टीवी और यूट्यूब पर हम अनगिनत बार देख चुके हैं अन्यथा फिल्म का संगीत पक्ष बेहद कमजोर है। अनुराग बसु ने यह फिल्म काव्यात्मक संवादों में संगीत से सजाने की कोशिश की है और इस प्रयोग में वे बुरी तरह से फेल रहे हैं। पांच दशक पहले इसी तर्ज पर चेतन आनंद ने 'हीर रांझा' बनाई थी जिसने बाक्स आफिस पर इतिहास रचा था। लेकिन उस फिल्म की कहानी और मिजाज कुछ और था। उसमें मदन मोहन ने यादगार संगीत दिया था।
इस फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे याद रखा जा सके। रनबीर ने एक्टिंग बेहतरीन की है और वे हर फिल्म में बेहतरीन ही करते हैं। हां, ये भी बता दूं कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी कुछ सेकेंड के लिए इसमें भी जाते हैं। इन दिनों नवाज हर फिल्म में नजर आ रहे हैं। उन्हें आइटम सांग की तरह यूज किया जाने लगा है। वैसे उनके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। कैटरीना कैफ के लिए भी यह फिल्म नुकसान देह ही साबित होगी। इसे रनबीर के कैरियर के दूसरी 'बॉम्बे वेलवेट' कह दूं कोई गलत नहीं होगा।

आपको सलाह देना चाहूंगा कि इसे बिल्कुल मत देखें। समय व पैसा बरबाद होगा। अगर आप बच्चों को इसलिए लेकर जा रहे हैं कि शायद यह बच्चों की फिल्म है तो बहुत बड़ी गलती करेंगे। बच्चे आपको कभी माफ नहीं करेंगे इस सजा के लिए।

- हर्ष कुमार सिंह 

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Sunday 9 July 2017

एक कंगना ही काफी नहीं है, बालीवुड को और चाहिए

साल भर में न जाने कितने फिल्म पुरस्कार समारोह होते हैं। उनमें तमाम हिंदी फिल्मी गीतों पर कलाकार परफोर्म करते हैं। हिंदी फिल्मों के लिए पुरस्कार भी जीतते हैं लेकिन जैसे ही थैंकिंग स्पीच देने की बात आती है तो सब अंग्रेजी में शुरू हो जाते हैं। सब हिंदी फिल्मों में काम करते हैं लेकिन जब भी मौका आता है तो हिंदी बोलने में शर्म महसूस करते हैं।
 
 हम लोग भी उन्हीं सितारों को अच्छा व पढ़ा लिखा समझते हैं जो ताबड़तोड़ अंग्रेजी बोलते हैं। गोविंदा या नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसा कोई कलाकार हिंदी में धन्यवाद देता है तो हम कहते हैं- लगता है इसे अंग्रेजी नहीं आती। फिल्में ही क्यों क्रिकेट की दुनिया में भी तो कुछ ऐसा ही है। जो खिलाड़ी अंग्रेजी नहीं बोल पाते उन्हें हम हेय दृष्टि से देखते हैं। शुक्र है वीरेंद्र सहवाग जैसे बल्लेबाजों का जिन्होंने अपनी सारी जिंदगी आक्रामक बल्लेबाजी करते हुए दुनियाभर के गेंदबाजों की पिटाई की और हिंदी का झंडा भी बुलंद रखा। अब हिंदी की कमेंट्री में भी उन्होंने नए आयाम स्थापित किए। बात खेलों की करूं तो अक्सर देखता हूं कि क्रोएशिया, रूस, जर्मनी, उक्रेन, चीन, जापान, कोरिया जैसे देशों के खिलाड़ी अपने देश की भाषा में ही बोलना पसंद करते हैं। उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती।
हिंदी बोलने में हमारे बालीवुड में ही सबसे ज्यादा शर्म महसूस की जाती है। जबकि यह भी सब जानते हैं कि हिंदी फिल्मों की पहुंच देश में सबसे ज्यादा है और अगर अमिताभ बच्चन आज देश के सबसे बड़े महानायक हैं तो इसलिए क्योंकि वे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से आते हैं। रजनीकांत तमिल भाषाई होने के कारण सुपर स्टार होते हुए भी देश में वो पहचान नहीं रखते जो उनके समकालीन अमिताभ बच्चन की है। जिक्र अमिताभ बच्चन का चला है तो यह भी लिखना जरूरी है कि हिंदी बोलने में अमिताभ बच्चन को कोई जवाब नहीं। अक्सर कई अभिनेत्रियों को मैंने यह कहते सुना है कि वे बच्चन साहब को केवल इसलिए पसंद करती हैं क्योंकि वे हिंदी बहुत अच्छी बोलते हैं। बेबी डॉल सिंगर कनिका कपूर ने तो उन्हें दुनिया का सबसे सैक्सी मर्द बता दिया था केवल उनकी हिंदी बोलने की अदा की वजह से ही। पर जानते हैं अमिताभ बच्चन को हिंदी बोलने के लिए केवल इसलिए इतना पसंद किया जाता है क्योंकि वे अंग्रेजी भी उतनी दक्षता से बोलते हैं। या यूं कहें कि जिस तरह की अंग्रेजी वे बोलते हैं वो बालीवुड के दूसरे फिल्म स्टार्स के भी बस की बात नहीं है। एकदम इंटरनेशनल क्लास और ग्रामर की दृष्टि से एकदम परफेक्ट।

बालीवुड में हिंदी व अंग्रेजी की लड़ाई को एक नया रूप दिया है क्वीन कंगना रनौत ने। कंगना बालीवुड में अपनी शर्तों पर काम करने वाली हिरोईन के रूप में पहचान बना चुकी हैं। लगभग 10 साल तक संघर्ष करने के बाद कंगना ने अपना जो मुकाम बनाया है उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है। हिमाचल प्रदेश से आई और बालीवुड की सुपर स्टार बन गई। कंगना ने अक्सर हिंदी भाषी होने के कारण अपनी अनदेखी की बात कही। कंगना ने साफ कहा कि बालीवुड में उनसे कुछ लोग केवल इसलिए खुलकर बात नहीं करते थे क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं जानती थी। आज वे अंग्रेजी भी बोलती हैं और उन्हें फैशन आईकन तक कहा जाने लगा है।
मेरे इस ब्लॉग के पीछे कंगना रनौत ही एक मुख्य वजह हैं। कंगना ने पिछले दिनों दो टीवी शो में कुछ बातें कहीं और उन्हें लेकर काफी कुछ लिखा गया। काफी विद करण में कंगना ने होस्ट व निर्माता निर्देशक करण जौहर पर भाई भतीजावाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। शो का फोरमेट कुछ ऐसा है जिससे कुछ विवाद हमेशा होते रहे हैं लेकिन इस बार इस बात ने तूल पकड़ लिया। कंगना ने कह दिया कि करण जौहर बालीवुड में भाई भतीजावाद को सबसे ज्यादा बढ़ावा देते हैं और हमेशा बड़े बालीवुड घरानों के बच्चों को ही अपनी फिल्मों में लेते हैं। हालांकि बाद में कंगना ने यह भी कहा कि उन्होंने ऐसा इसलिए भी कहा क्योंकि शो में थोड़ा मिर्च मसाला आ जाएगा लेकिन मामला मजाक तक नहीं रहा गंभीर हो गया। कंगना के आरोप के जवाब में करण जौहर ने सोशल मीडिया पर लिखा कि वे क्या करें जब बालीवुड घरानों के बच्चे हैं ही इतने प्रतिभाशाली? अगर बालीवुड में ही अच्छे कलाकार सामने आ रहे हैं तो वे उन्हें क्यों नहीं साइन करें?

करण ने अपने तर्क दिए लेकिन बात यहीं नहीं थमी। कंगना रनौत ने करण के इन तर्कों को खारिज किया। हाल ही में कंगना रनौत नजर आई रिपब्लिक वल्र्ड चैनल पर अनुपम खेर के चैट शो में। इस इंटरव्यू में जब अनुपम खेर ने उनसे करण के साथ हुए विवाद के बारे में पूछा तो कंगना ने खुलकर अपनी बात कही। कंगना ने कहा कि करण की यह बात उन्हें बिल्कुल हजम नहीं हुई कि केवल बालीवुड में ही टैलेंट पैदा हो रहा है। केवल चार घरानों तक ही बालीवुड सीमित नहीं है। कंगना ने जोर देकर कहा कि दरअसल यहां अंग्रेजी में बात करने वालों को ज्यादा तवज्जो दी जाती है, उन्हें ही सम्मान मिलता है। पर ऐसा नहीं है। उन्होंने अपनी और अनुपम की ओर इशारा करते हुए कहा कि यहां ऐसे भी लोग हैं जो बाहर से आए और अपना स्थान बनाया। अनुपम ने भी उनसे सहमति जताई। करण जौहर के जवाब में कंगना ने बहुत तफ्सील से अपनी बात कही। कंगना का तर्क था कि बालीवुड के बच्चे बचपन से ही फिल्मों के माहौल में आंख खोलते हैं। उन्हें उसी तरह की ट्रेनिंग मिलती है। उन्हें तैयार करने में कई लोग जुटे होते हैं। इसके अलावा जब वे पहली फिल्म के लिए तैयार होते हैं तो उनकी एक फैन आडियंस भी तैयार हो चुकी होती है जो उनके माता-पिता या परिवार की वजह से उन्हें देखने जाती है। जबकि बाहर से आए कलाकारों को सब कुछ जीरो से शुरू करना होता है।

दरअसल बालीवुड में भाई भताजीवाद, हिंदी-अंग्रेजी का भेदभाव पहले भी था और आगे भी बना रहेगा। सवाल यह है कि क्या एक कंगना रनौत से यह फासला खत्म करना संभव होगा? नहीं हमें एक नहीं सैकड़ों कंगना चाहिए ऐसा करने के लिए।

सलाम है कंगना और उनके जज्बे को।
 

हम आपके साथ हैं कंगना। 


- हर्ष कुमार सिंह

 

Friday 7 July 2017

DEEP REVIEW: MOM ***

कुछ नया नहीं, केवल श्रीदेवी और अपने बच्चों के लिए देखें 

Ratings- 3*

 महिला प्रधान फिल्मों के नाम पर पिछले कुछ साल से दिल्ली का निर्भया कांड या यूं कहें गैंगरेप की घटनाएं पसंदीदा विषय बन गया है। पिछले दो साल में ही इस तरह के थीम को लेकर मातृ, जज्बा, पिंक और मॉम जैसी कई फिल्में बनी हैं। मेरा तो मानना है कि बेगम जान भी इसी सब्जेक्ट को दिमाग में रखकर बनाई गई थी। इन सभी में मां और बेटी की कहानियां हैं। बेटी को तकलीफ में देखकर नायिका के भीतर की मां जाग जाती है और फिर सभी अपने-अपने तरीके से अपनी कहानी को अंजाम तक ले जाती हैं। मॉम भी कुछ अलग नहीं है। मुझे तो आश्चर्य यह हो रहा है कि मॉम व अभी कुछ महीने पहले आई फिल्म मातृ की कहानी में इतनी समानता कैसे है? दोनों में ही नायिका स्कूल टीचर हैं। दोनों में ही पुलिस अंत में हिरोईन को एक के बाद एक हत्याएं करते हुए रंगे हाथ पकडऩे के बाद भी कुछ नहीं कहती। केवल फर्क यह है कि मातृ में मां व बेटी, दोनों रेप का शिकार होती हैं जबकि मॉम में केवल बेटी। अब चूंकि दोनों ही फिल्में एक साथ बन रही थी और हो सकता है कि लेखकों को इस बात की भनक हो गई थी कि दोनों की कहानी एक ही है और इसलिए कुछ फर्क कर दिया गया। मातृ में रवीना टंडन का पति उन्हें ही सारी घटना के लिए जिम्मेदार ठहराता है जबकि मॉम में श्रीदेवी के पति को उनके सपोर्ट में दिखाया गया है।

मूल कहानी को छोड़ दिया जाए तो मॉम और मातृ में बहुत से बुनियादी फर्क हैं। मॉम एक बड़े स्केल पर बनाई गई फिल्म है। इसमें सब कुछ बड़े पैमाने पर रचा गया है। सपोर्टिंग कास्ट में नवाजुद्दीन सिद्दीकी व अक्षय खन्ना जैसे मंझे हुए कलाकार रखे गए हैं जिनकी वजह से फिल्म में दर्शकों की दिलचस्पी बनी रहती है। कहानी एक लाइन की है। श्रीदेवी की 18 साल की बेटी से चार लोग गैंगरेप करते हैं और आरोपी सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं। सिस्टम से नाराज होकर श्रीदेवी एक जासूस की मदद से आरोपियों से बदला लेती हैं। फिल्म बहुत ही साधारण बन जाती अगर इसमें श्रीदेवी, और ए आर रहमान का बैकग्राउंड म्यूजिक न होता। ए आर रहमान ने बैकग्राउंड संगीत से फिल्म के स्केल को बहुत ऊपर उठा दिया है। कुछ संवाद भी अच्छे हैं। जैसे- भगवान हर जगह नहीं हो सकता इसलिए उसने मां बना दी, गलत और बहुत गलत में से कुछ चुनना हो तो आप क्या करोगे?

श्रीदेवी ने इंग्लिश विंग्लिश के पांच साल बाद यह फिल्म की है लेकिन मेरा मानना है कि यह फिल्म उतनी बेहतर नहीं बन सकी है। न ही इसकी बाक्स आफिस पर सफलता के कोई आसार नजर आते हैं। इस तरह की फिल्में बहुत ही डार्क होने के कारण रिपीट वैल्यू वाली नहीं होतीं। मनोरंजन कम होता है तो लोग फिल्म देखने सपरिवार नहीं जाते। इंग्लिश-विंग्लिश बहुत ही मनोरंजक व पारिवारिक फिल्म थी और उसे आप बार-बार देख सकते हैं। मैसेज देने में सबसे ज्यादा सफल पिंक रही थी जिसमें इस विषय को सबसे ज्यादा खूबसूरती से हैंडल किया गया था।
श्रीदेवी का फैन होने के नाते मैं मॉम में इससे कुछ ज्यादा उम्मीद कर रहा था। जहां तक एक्टिंग का सवाल है तो श्रीदेवी ने जबर्दस्त काम किया है। हाल फिलहाल आई दूसरी महिला प्रधान फिल्मों से यह थोड़ी मजबूत अगर नजर आती है तो इसका पूरा श्रेय श्रीदेवी को ही है। जब अस्पताल में श्रीदेवी पहली बार अपनी बेटी को देखती हैं और फूट-फूटकर रोती हैं तो उनके अभिनय की बुलंदियां नजर आती हैं। यह सबूत मिल जाता है कि उन्हें क्यों इतनी आला दर्जे की अभिनेत्री माना जाता है। इसके अलावा कई और दृश्यों में भी श्रीदेवी अपनी छाप छोड़ती हैं। वैसे लगता है श्रीदेवी कुछ ज्यादा ही डाइटिंग करती हैं। खासतौर से क्लोज अप्स में चेहरे की हड्डियां नजर आती हैं, अगर थोड़ा सा वजन बढ़ा लें तो भी कोई दिक्कत नहीं होगी। फिल्म में श्रीदेवी की बेटी का रोल निभाने वाली सजल अली व पति बने अदनान सिद्दीकी, दोनों ही पाकिस्तानी कलाकार हैं, और उन्होंने अपने रोल के साथ पूरा न्याय किया है। अदनान को हमने कई पाकिस्तानी टीवी सीरियल्स में देखा है वे शानदार कलाकार हैं। सजल अली बेहद खूबसूरत हैं और एक्टिंग के लक्षण उनमें इस फिल्म में नजर आते हैं। बाप-बेटी के बीच भी कुछ मार्मिक सीन हैं। खासतौर से जब दोनों मोबाइल पर मैसेजिंग के जरिये बात करते हैं तो दर्शकों की आंखें भर आती हैं। ऐसी फिल्में भले ही बाक्स आफिस पर क्रांति नहीं करती लेकिन सबक तो देकर जाती हैं। इसलिए मेरी सलाह है कि आप भी बच्चों के साथ जाकर इस फिल्म को जरूर देखें। कम से कम फिल्म देखने से बच्चों की समझ में तो यह तो आएगा कि मां-बाप की सलाह मानना उनके लिए क्यों जरूरी है और अभिभावक अपने बच्चों के दुश्मन नहीं हैं। इसके अलावा उन लोगों के लिए भी इनमें सबक होता है जिनके बच्चे गलत सोहबत में बिगड़ रहे हैं।

- हर्ष कुमार सिंह

Friday 26 May 2017

DEEP REVIEW: Sachin - A Billion Dreams *****


Rating: 5*
सचिन और क्रिकेट के दीवानों के लिए अनमोल तोहफा

अगर आप किसी परीक्षा में बैठने जा रहे हैं तो इस फिल्म को देख लीजिए। आपमें वो एनर्जी आ जाएगी जो किसी इम्तहान को पास करने के लिए जरूरी है।

यदि आप अपने दफ्तर में विपरीत हालात से गुजर रहे हैं परेशान हैं तो सचिन की ये फिल्म आपको दिक्कतों से निपटने के लिए जरूरी हौसला दे देगी।

अगर आप खिलाड़ी हैं और आपको लग रहा है कि आप के साथ इंसाफ नहीं हो रहा है या फिर खराब परफोर्मेंस से जूझ रहे हैं तो फिर ये फिल्म आपके लिए है।

और अगर आप क्रिकेट में दिलचस्पी नहीं रखते हैं या फिर क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले इस महान क्रिकेटर में आपकी दिलचस्पी कभी नहीं रही है तो फिर ये फिल्म आपके लिए नहीं है। पैसे खराब मत कीजिए।



सचिन तेंदुलकर ने 24 साल इंटरनेशनल क्रिकेट खेली। 100 से ज्यादा इंटरनेशनल शतक लगाए। इस दौरान देश में भी 10 प्रधानमंत्री बदले, देश बदला, क्रिकेट का स्वरूप बदला। देश ने न जाने कितने उतार चढ़ाव देखे। ऐसे में इस मास्टर ब्लास्टर की लाइफ पर अगर फिल्म बनाने की कोई सोचता है तो फिर इसे केवल डॉक्यूमेंट्री फार्म में ही बनाया जा सकता था। ऐसी ही फिल्म बनी भी है। ज्यादातर हिस्से ओरिजनल वीडियों को कंपाइल करके बनाए गए हैं और कई बार ऐसी फील आती है कि जैसे आप स्टार स्पोर्ट्स का सुपर स्टार सीरीज का कोई कार्यक्रम देख रहे हैं। लेकिन ए आर रहमान की धुनें और सचिन के निजी जीवन से जुड़े क्षणों का भावुक चित्रण फिल्म को फीचर फिल्म की फील देने में सफल रहता है। इस तरह की फिल्म की समीक्षा नहीं की जा सकती और न ही की जानी चाहिए।

फिल्म में ही इंग्लैंड के पूर्व कप्तान नासिर हुसैन कहते हैं- “सचिन तेंदुलकर पर स्लेजिंग (क्रिकेट के मैदान में होने वाली गाली गलौच) का असर कोई होने वाला नहीं है क्योंकि वे मैदान में खेल रहे 11 खिलाड़ियों की नहीं बल्कि करोड़ों लोगों की आवाज सुनते हैं।“ यही फिल्म का मूड है। यह फिल्म सचिन के फैंस के लिए है।

महान सचिन तेंदुलकर को अनगिनत सलामियां इस फिल्म में दी गई हैं। फिल्म सचिन के बचपन से शुरू होती है और उनकी रिटायरमेंट स्पीच तक जाती है लेकिन इसका मूल सचिन के उस ख्वाब मे छिपा है जो उन्होंने विश्व कप ट्राफी जीतने के लिए देखा था और जो 2011 में पूरा हुआ। फिल्म में सचिन ने बताया भी है कि 2003 के विश्व कप में उन्हें मैन आफ द सीरीज के रूप में सोने का बैट दिया गया था लेकिन उन्होंने उसे पैक करके रख दिया गया था क्योंकि जिस ट्राफी को वो जीतना चाहते थे वो बगल के ड्रैंसिंग रूम में आस्ट्रेलियाई टीम के पास थी। सब जानते हैं कि भारत फाइनल में कंगारुओं के हाथों पराजित हो गया था।

फिल्म में उन क्षणों को भी दिखाया गया है जिनमें सचिन ने अपने कैरियर के बुरे दिन देखे। सचिन ने फिल्म के जरिये शायद पहली बार अपनी पीड़ा बयान की है कि जब उन्हें पहली बार कप्तानी से हटाया गया था तो किसी ने उन्हें फोन करने की जहमत भी नहीं उठाई थी। फिल्म में यह भी संकेत दिए गए हैं कि अपने से काफी सीनियर अजहरुद्दीन को हटाकर जब सचिन को कप्तान बनाया गया था तो भारतीय टीम दो खेमों में बंट गई थी और सचिन को कप्तान के रूप में बहुत बुरे अनुभव से गुजरना पड़ा था। अजहर पर टीम में गुटबाजी कराने के आरोप भी अप्रत्यक्ष रूप से लगाए गए हैं। 2007 के विश्व कप से पहले जिस तरह से कोच चैपल ने भारतीय टीम के बैटिंग आर्डर का बदल दिया था उस पर भी विस्तार से रोशनी इसमें डाली गई है। ग्रेग चैपल के ओरिजिनल वीडियो दिखाए गए हैं जिसमें वे खुद हार की जिम्मेदारी न लेते हुए टीम के खराब खेल को दोषी ठहराते नजर आते हैं। यह फिल्म का सबसे शानदार हिस्सा है। यहीं बताया गया है कि 2007 में सचिन ने संन्यास के बारे में सोचना शुरू कर दिया था लेकिन इसी समय उनके पास उनके क्रिकेटिंग हीरो विव रिचर्ड्स का फोन आता है जो उन्हें खेलना जारी रखने के लिए कहते हैं। और इसके बाद का दौर उनके जीवन का सबसे सुनहरा दौर साबित हुआ, ये बात सब जानते हैं।

2011 के विश्व कप में जीत को सचिन ने अपने जीवन की सबसे शानदार पल बताया है और एक तरह से धोनी की फिल्म की तरह ये फिल्म भी यहीं खत्म हो जाती है। अंत में केवल कुछ अंश उनकी रिटायरमेंट स्पीच के हैं और फिर भारत रत्न का सम्मान। 2011 के विश्व कप के सेमीफाइनल में पाकिस्तान को हराने के बाद जब ड्रैसिंग रूम में कोच गैरी कर्सटन टीम को संबोधित कर रहे होते हैं उसका वीडियो भी आप पहली बार देखेंगे। कर्सटन कहते हैं कि आप लोग शायद सेलीब्रेट करना चाहते हैं लेकिन वे चाहते हैं आप सब लोग आराम करें फिर मुंबई में फाइनल के लिए सफर करें और दो दिन उसकी तैयारी करें। सेलीब्रेट करके समय खराब न करें। इस समय का सदुपयोग आराम करके करें। इस तरह के क्षण आपके रोंगटे खड़े कर देते हैं।


फिल्म में गीत संगीत की जो गुंजाइश थी वो केवल बैकग्राउंड संगीत तक ही सीमित है। ए आर रहमान ने तीन धुनें बनाई हैं जो फिल्म में शानदार तरीके से इस्तेमाल की गई हैं। फिल्म में समीक्षा करने लायक कुछ नहीं है लेकिन बताने के लायक बहुत कुछ है। बस यही कहना चाहूंगा कि अगर आप क्रिकेट के दीवाने हैं तो ये फिल्म आपके लिए है। जाएं और परिवार के साथ इसका आनंद लें आप निराश नहीं होंगे।



- हर्ष कुमार सिंह

Friday 19 May 2017

Full Text of Sachin Tendulkar's interview

करोड़ों देशवासियों को समर्पित है 'सचिन-ए बिलियन ड्रीम्स' : सचिन तेंदुलकर 

दिनांकः 19 मई 2017
स्थानः होटल आईटीसी मौर्य, नई दिल्ली
समयः शाम 6.30 बजे


''कोई भी खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर बन सकता है। बस उसे फोकस करना चाहिए अपने वर्तमान पर। अतीत की विफलताओं को भुलाकर नए लक्ष्य निर्धारित करें, मेहनत करें और इसके बाद सफलता आपको खुद फॉलो करेगी।"
ये प्रेरक शब्द हैं महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर के नए क्रिकेटरों के लिए।
सचिन अपने जीवन पर बनी फिल्म 'सचिन-ए बिलियन ड्रीम्स' के सिलसिले में 'नवोदय टाइम्स/पंजाब केसरी' से बात कर रहे थे। 26 मई को रिलीज होने जा रही इस फिल्म का निर्देशन जेम्स एरस्कीन ने किया है और संगीत दिया है ए आर रहमान ने। भारत रत्न सचिन तेंदुलकर और फिल्म के निर्माता रवि भागचंदका ने इस फिल्म से जुड़े कई दिलचस्प पहलू शेयर किए:-

जो मिला मां- बाप के आशीर्वाद से
सचिन ने बताया कि वे आज जो कुछ भी हैं वह सब कुछ माता-पिता का आशीर्वाद व भगवान की देन है। बचपन से ही घर में ऐसा माहौल मिला कि किसी और चीज के बारे में सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ी। घर में हर समय क्रिकेट का ही जिक्र रहता था। बस खेलना और सिर्फ खेलना। घर पर इतना क्रिकेटिंग माहौल रहा कि कभी बैंक अकाउंट की बात नहीं होती थी। बस मां-पिताजी सब यही पूछते थे कि कितने रन बनाए, कितने विकेट लिए? सचिन का कहना है कि उनके घर में सबका एक ही मंत्र था- अप और डाउन की भूल जाओ। पिछले मैच में क्या हुआ इसकी मत सोचा बल्कि अगले मैच में क्या करना है इसकी योजना बनाओ।

अंजलि का योगदान भी अद्भुत
सचिन का 24 साल लंबा क्रिकेट करियर 13 साल की उम्र से ही शुरू हो गया था। सचिन बताते हैं कि 13 साल की उम्र में ही अंडर 15 के नेशनल कैंप के लिए उनका चयन हो गया था और उसके बाद यह सफर रिटायरमेंट मैच पर ही जाकर थमा। सचिन के अनुसार, जहां उनके शुरूआती करियर में माता-पिता व भाई-बहन को योगदान अहम रहा वहीं इंटरनेशनल क्रिकेट खेलते समय उनकी पत्नी अंजलि का योगदान महत्वपूर्ण रहा। अंजलि गोल्ड मैडलिस्ट डॉक्टर हैं और उनका अपना भी करियर था लेकिन मेरे खेल और क्रिकेट के प्रति जुनून को देखते हुए उन्होंने अपने करियर की परवाह नहीं की और घर-परिवार की सारी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया।

जीवन में एक हीरो का होना जरूरी
44 वर्षीय सचिन तेंदुलकर का मानना है कि आप किसी भी फील्ड से हों लेकिन आपके लिए अपना एक हीरो होना जरूरी है। हो सकता है कि आज के बच्चे सचिन तेंदुलकर बनना चाहते हों लेकिन जब वे खेलते थे तो उनके आदर्श महान सुनील गावस्कर व विव रिचर्ड्स हुआ करते थे। गावस्कर की ठोस बल्लेबाजी और विव रिचर्ड्स की आक्रामकता का मिश्रण उन्होंने अपने खेल में लाने की हमेशा कोशिश की। उभरते हुए खिलाडिय़ों के लिए बहुत ही जरूरी टिप्स देते हुए सचिन ने कहा कि विफलता के भय को बिल्कुल दिमाग से बाहर निकाल दें। अगर दिल से क्रिकेट निकल रही है तो खेलो वरना इसका ख्याल दिमाग से निकाल दो। 


जीवन की दूसरी इनिंग के भी बनाए हैं लक्ष्य
एक सवाल के जवाब में सचिन ने कहा कि क्रिकेट करियर की इनिंग उनके रिटायरमेंट मैच के साथ ही खत्म गई थी अब वे अपनी दूसरी इनिंग खेल रहे हैं। जिस देश ने उन्हें इतना प्यार व सम्मान दिया है उसके बदले वे भी देश को बहुत कुछ देना चाहते हैं। उन्होंने अपनी फिल्म का पहला शो भी देश के सैनिकों के लिए आयोजित किया है। सचिन बताते हैं कि वे यूनिसेफ से जुड़े हुए हैं। एक गांव भी गोद लिया हुआ है और अब दूसरा लेने की तैयारी है। इसके अलावा स्प्रैडिंग हैप्पीनेस के नाम से एक अभियान से भी वे जुड़ गए हैं। इसका लक्ष्य उन वंचित लोगों की सहायता करना है जो बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी दूर हैं। सचिन का कहना है कि यह दूसरी इनिंग वे आत्म संतुष्टि के लिए खेलना चाहते हैं।


आज की भारतीय टीम की बैंच स्ट्रैंथ कमाल की देश में अगला सचिन कौन हो सकता है, इस सवाल के जवाब में सचिन का कहना था कि भारतीय क्रिकेट टीम इस समय एक से एक खिलाडिय़ों से भरी पड़ी है। अगर मैदान में खेल रही एकादश मजबूत है तो बाहर बैंच पर बैठे खिलाड़ी भी कमजोर नहीं हैं। किसी भी खिलाड़ी को चोट लगती है तो उसकी जगह लेने के लिए एक से एक क्रिकेटर बाहर तैयार बैठे हैं। उन्होंने जून में चैंपिंयस ट्राफी के लिए जा रही टीम को बहुत ही संतुलित भी बताया।

असली वीडियो हैं फिल्म का हिस्सा 
सचिन ने बताया कि इस फिल्म में उनके जीवन के कुछ असली वीडियो भी शामिल किए गए हैं जिन्हें उन्होंने अपने परिवार के लोगों के साथ सलाह मशविरा करने के बाद चुना है। सचिन ने कहा कि उनके जीवन की तीन टीमें रही हैं। एक घर पर, दूसरी ड्रैसिंग रूम में और तीसरी लाखों-करोड़ो वो लोग जो उन्हें चाहते व प्यार करते हैं। यह फिल्म उन्हीं को वे समर्पित करना चाहते हैं।

'पंजाब केसरी' के लिए पंजाब का किस्सा
कई गंभीर मुद्दों पर बेबाकी व दिल से जवाब देने के बीच सचिन तेंदुलकर ने एक दिलचस्प किस्सा भी सुनाया। उन्होंने कहा कि 'पंजाब केसरी' से बात कर रहा हूं तो किस्सा भी पंजाब का ही सुनाता हूं। सचिन ने बताया कि 1994 में हम लोग पंजाब में खेल रहे थे तो हरभजन सिंह(भज्जी) वहां भारतीय टीम के लिए नेट्स पर गेंदबाजी करने के लिए आए हुए थे। वे कोई भी शाट मारते तो कुछ ही देर में भज्जी उनके सामने आकर खड़े हो जाते थे। मैं पूछता था कि क्या बात है तो भज्जी पूछते थे कि आपने ही तो बुलाया है। दरअसल सचिन को बार-बार अपना हेलमेट ठीक करने के लिए गर्दन ऊपर नीचे हिलाने की आदत थी और वहां फील्ड में मौजूद भज्जी को लग रहा था कि वे शायद उन्हें बुला रहे हैं।

(यह इंटरव्यू पंजाब केसरी जालंधर, नवोदय टाइम्स नई दिल्ली, जगबानी (पंजाबी) हिंद समाचार (उर्दू) के 21 मई 2017 के अंकों में छपा।)

Saturday 22 April 2017

DEEP REVIEW : Maatr ****

Rating-4*

रवीना टंडन के दमदार अभिनय से सजी एक कसी हुई फिल्म 

 

रेप की घटनाओं को लेकर पिछले कुछ सालों में कई फिल्में बनी हैं। इनमें बार-बार यह दिखाया गया है कि कैसे इन घटनाओं में शामिल पीडि़ताओं को इंसाफ यहां तक समाज में खुद को एडजस्ट करने तक के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। एक साल पहले आई फिल्म पिंक ने इस बारे में काफी जागरुकता का माहौल बनाया। जीरो एफआईआर क्या होती है, जैसे मुद्दे को इससे बड़े पैमाने पर प्रचार भी मिला लेकिन मातृ इस मुद्दे पर एक दूसरे पहलू को पेश करती है। यह हम आप सभी जानते हैं कि जिस तरह से पिंक में दिखाया गया है वह आसान नहीं है और हर मामले में उस तरह से इंसाफ हासिल कर पाना सरल नहीं है। मातृ में थोड़ी सी नाटकीयता के साथ यही दिखाया गया है कि अगर इंसाफ मिलने की कोई उम्मीद न रहे तो खुद भी ऐसे लोगों से निपटा जा सकता है। इस फिल्म की खासियत यही है कि जिस समय आप फिल्म देख रहे होते हैं तो दर्शकों को भी यह लगने लगता है कि फिल्म में विद्या चौहान (रवीना टंडन) ने जो तरीका अपनाया है वही सही है। रवीना टंडन ने अपने जानदार अभिनय से फिल्म को प्रभावशाली बना दिया है। वे रोल में एकदम फिट नजर आती हैं और तमाम संवेदनाओं को बेहतरीन तरीके से सामने लाने में सफल रही हैं। भले ही वह एक मां की वेदना हो या एक अबला का प्रतिशोध।
फिल्म की कहानी एक स्कूल फंक्शन से शुरू होती है। स्कूल टीचर विद्या अपनी बेटी के साथ देर रात घर लौट रही होती है। गाड़ी शार्टकर्ट के चक्कर में एक सुनसान रास्ते पर डाल देती है। स्कूल से ही उनका पीछा कर रहे कुछ बिगडै़ल नौजवान मां-बेटी से गैंगरेप करते हैं और इस हादसे में बेटी की मौत हो जाती है। पेंच यह है कि इन सात आरोपियों का सरगना मुख्यमंत्री का बेटा था। पुलिस इस वजह से मामले को रफा-दफा करने का प्रयास करती है और तीन फर्जी आरोपियों को पकड़कर केस निपटा देती है। विद्या का पति भी इस पूरे घटनाक्रम के लिए उसे ही दोषी ठहराता है और उससे अलग हो जाता है। विद्या अपनी एक दोस्त के घर रहने पर मजबूर हो जाती है। विद्या हालात से लडऩे का पूरा प्रयास करती है। बेटी की यादों के बीच खुद को गुमा देने की भी कोशिश करती है लेकिन एक दिन गाड़ी ड्राइव करते हुए सात आरोपियों में से एक को बाइक पर जाते हुए देखती है तो उसके मन में बदला लेने की भावना जाग जाती है। वह सुनियोजित तरीेके से एक-एक करके सारे आरोपियों को मौत के घाट उतारती है। पुलिस लगातार इस मामले में उस पर नजर भी रखती है। अंत में जब विद्या सीएम व उसके बेटे की हत्या करती है तो पुलिस को भी उसके साथ सहानुभूति की मुद्रा में दिखा दिया गया है।

फिल्म छोटी व कसी हुई है। पहला हाफ रवीना टंडन की एक्टिंग के सभी रंग दिखाता है। वैसे तो रवीना ने सभी सीन अच्छे से निभाए हैं लेकिन जब वह घर पर बेटी को याद करके बाथरूम में तौलिये से लिपटकर रोती है तो दर्शकों का दिल भर आता है। ऐसे ही कुछ और अच्छे सीन भी हैं जहां रवीना ने अपने अभिनय की रेंज दिखाई है। शुरू में जब वह घायल रहती है तो  वैसे भी रवीना नेशनल अवार्ड जीत चुकी हैं और दमन, अक्स व सत्ता जैसी फिल्मों में वे पहले भी अपना लोहा मनवा चुकी हैं।
ऐसी फिल्मों के साथ सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह होता है कि इन्हें सेंसर बोर्ड ए सर्टीफिकेट दे देता है। जबकि इस तरह की फिल्में उन किशोरों के लिए देखना बहुत जरूरी है जो इस तरह के दौर से या घटनाओं से गुजरते हैं। उनके लिए इनमें एक सबक भी होता है कि अगर क्षणिक भावनाओं में आकर आप गलत करेंगे तो उसका अंजाम भी बुरा ही होगा। मेरे हिसाब से यह फिल्म आप पूरे परिवार के साथ भी देख सकते हैं।

अश्तर सईद का निर्देशन ठीक ठाक है। फिल्म बहुत सीमित बजट में बनाई गई है और इसमें ज्यादा खर्च की कोई गुंजाइश भी नहीं थी। फोटोग्राफी कई बार अच्छी है। रेप सीन में कैमरे का प्रयोग बहुत ही खूबसूरत तरीके से किया गया है। इसके अलावा स्काई शॉट्स कई स्थान पर बहुत अच्छे हैं। स्वीमिंग पूल का एक शॉट तो बहुत ही मोहक लगता है। संगीत की इसमें जरूरत ही नहीं थी। एक गीत बार-बार बजता है जो सुनने में अच्छा लगता है।

यह फिल्म रवीना की फिल्म है और एक लंबे समय बाद उन्होंने जोरदार वापसी की है। अगर उन्होंने इस तरह के ही रोल चुने तो वे खुद को शानदार अदाकारा के रूप में पूरी तरह स्थापित कर लेंगी।

- हर्ष कुमार सिंह