Friday 8 January 2016

DEEP REVIEW : Wazir – A Farhan Akhtar movie with Big B in lead role

वजीरः एक भटकी हुई, कमजोर बदले की कहानी
REVIEW RATING - 2*

अमिताभ का किरदार फिल्म की जान है। 
पिछले कुछ सालों में कई बार ऐसा हुआ है जब फिल्मकारों ने मेगा स्टार अमिताभ बच्चन को लेकर प्रयोग किए हैं। कुछ सफल (पा व पीकू) हुए हैं तो कुछ विफल (शामिताभ), लेकिन एक बात सत्य है कि अमिताभ की फिल्म में उनके किरदार से ज्यादा पसंदीदा और कुछ नहीं होता। लोग अमिताभ को देखने जाते हैं। यही वजह है कि जब लोग ‘पीकू’ देखने जाते हैं तो उन्हें दीपिका से ज्यादा अमिताभ के किरदार से लगाव हो जाता है। कुछ ऐसा ही ‘वजीर’ के साथ भी है। फिल्म शुरू भी फरहान अख्तर पर होती है और खत्म भी फरहान पर लेकिन बीच में अमिताभ का पात्र सबके दिलो-दिमाग पर छा जाता है। ऐसा लगने लगता है कि अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर की जोड़ी कुछ ऐसा कमाल करेगी जो चौंका देगा, हिला देगा। पर ऐसा कुछ नहीं होता और एक धमाके के साथ अमिताभ का किरदार खत्म हो जाता है और फिल्म वहीं चार्म खो देती है।

DEEP REVIEW में डालते हैं फिल्म के प्लस व माइनस प्वाइंट्स पर नजरः-
1. ये जान लेना जरूरी है कि यह न तो एक्शन फिल्म है, न थ्रिलर, न दो दोस्तों की कहानी और न ही इमोशनल ड्रामा। ये एक साधारण रिवेंज यानी बदले की कहानी है। फरहान अख्तर अपनी बेटी के हत्यारों से बदला शुरू में ही ले लेते हैं और अमिताभ बच्चन बाद में। फिल्म के बारे में शुरू से ही प्रचारित किया जा रहा है कि ये दोस्ती की कहानी है लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। अमिताभ बच्चन अपनी बेटी की हत्या का बदला लेने के लिए फरहान अख्तर को मोहरे की तरह यूज करते हैं और यही फिल्म की कहानी है।
फरहान ने एटीएस अफसर का रोल बखूबी निभाया। 
2. एक बात समझ से बाहर है कि अमिताभ बच्चन को एक व्हील चेयर पर बैठा रहने वाला इंसान क्यों बनाया गया है ? क्या केवल इसलिए कि फरहान अख्तर को फिल्म में मुख्य नायक के रूप में पेश किया जा सके? अगर ऐसा ही करना था तो फिर इसमें अमिताभ बच्चन की जगह किसी भी कलाकार को लिया जा सकता था। अमिताभ बच्चन को अत्याधुनिक व्हील चेयर पर बैठे हुए देखकर दर्शक ये अंदाजा लगाने लगते हैं कि जो व्यक्ति खुद ही गाड़ी में बैठकर उसे चलाकार कहीं भी जा सकता है उसे अपना बदला लेने के लिए फरहान को यूज करने की क्या जरूरत थी?

3. फिल्म का क्लाइमेक्स बहुत ही कमजोर तरीके से शूट किया गया है। फरहान अख्तर जिस तरह से एक मिनिस्टर को कश्मीर में मारने के लिए जाते हैं उसमें कुछ भी नया नहीं था। न उसमें कोई प्लानिंग नजर आती है और न ही कोई रोमांच बाकी रह जाता है। मंत्री जी खुलेआम घूम रहे थे और उन्हें कोई भी आसानी से मार सकता था।

4. फिल्म पहले हाफ में कई अच्छे प्रभावशाली संवादों के व सींस के जरिये दर्शकों को बांधने में सफल रहती है। फिल्म के पहले ही सीन में ‘तेरे बिन’ गीत आ जाता है। जिसमें फरहान व खूबसूरत अदिति की पूरी कहानी दिखा दी जाती है। इससे संकेत मिलते हैं कि निर्देशक उनकी प्रेम कहानी आदि पर ज्यादा समय न खर्च करके अमिताभ बच्चन व फरहान पर फोकस करने जा रहा है। ऐसा ही होता भी है। फरहान और अमिताभ के बीच कई अच्छे सीन क्रिएट किए गए हैं। खासतौर से प्यादों को प्यालो में भरी वोदका में डुबोकर शतरंज खेलने वाला सीन तो बहुत बेहतरीन लिखा गया है। इस सीन में शर्त ये थी कि जिसके प्यादे मरते जाएंगे वो उन प्यालों को पीता रहेगा। बच्चन जान बूझकर हार रहे थे और पी रहे थे, और सब जानते हैं कि शराब पीकर संवाद बोलने का अंदाज अमिताभ बच्चन का कुछ और ही होता है। उनके कुछ संवादों पर आप अनायास ही ताली बजा उठेंगे।

5. अमिताभ बच्चन जिस समय अपनी पुरानी व्हील चेयर जल जाने के बाद दूसरी व पहली से ज्यादा आधुनिक चेयर लेते हैं तो दर्शकों को यकीन हो जाता है कि वे कुछ बड़ा करने की योजना बना रहे हैं। ये उत्सुकता उस समय और अधिक बढ़ जाती है जब वे फरहान को बिना बताए कश्मीर के लिए रवाना हो जाते हैं लेकिन जब एक ही धमाके में वे खत्म हो जाते हैं तो ऐसा लगता है कि फिल्म अपने मकसद से भटक गई। जो दर्शक बंधकर पहले हाफ को देख रहे थे वे दूसरे हाफ में खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं।
सबसे पापुलर 'अतरंगी' गीत क्लाइमेक्स में आता है 
6. फिल्म का संगीत इसका सबसे मजबूत पक्ष है। सारे गीत बैकग्राउंड में बजते है और अच्छे लगते हैं। इसके लिए कई संगीतकारों का प्रयोग किया गया है जिससे विविधता का आभास होता है, लेकिन संगीत के मामले में निर्देशक ने एक बड़ी भारी गलती की है। अमिताभ व फरहान अख्तर का गाया गीत ‘अतरंगी यारी’ फिल्म के एंड में टाइटल्स के साथ प्रयोग किया गया है जबकि इसे मुख्य फिल्म में यूज किया जाता तो ये ज्यादा प्रभावशाली साबित होता। अंत में दर्शक केवल थियेटर से बाहर निकलने की सोचने लगता है और एक गीत के लिए सिनेमा में बैठे रहना बोझ लगता है। गीत बहुत ही अच्छा है और इसे कैश करने के लिए इसे फिल्म में बीच में कहीं यूज किया जाता तो बेहतर होता।
अदिति सजल आंखों से दिल को छू लेती हैं। 

7. अभिनय के लिहाज से अमिताभ बच्चन व फरहान अख्तर बेजोड़ हैं। भले ही निर्देशक कितना भी कमजोर हो ये दोनों ही अपने पात्र को उठा देने में सक्षम हैं और दोनों ने यही किया भी है। अमिताभ जिस तरह से संवाद बोलते हैं वो अद्भुत है। उनका किरदार बेहद जिंदादिल है और दर्शकों पर छा जाता है। एटीएस आफिसर के रोल में फरहान अख्तर एकदम फिट नजर आते हैं। उनमें वो परिपक्वता नजर आती है जो इस तरह के रोल निभाते समय दिखाई जानी चाहिए। अदिति राव हैदरी नेचुरल ब्यूटी हैं और वे हर समय सुंदर लगती हैं। उनके कास्ट्यूम बेहतरीन तरीके से डिजाइन किए गए हैं जो उनके मुस्लिम किरदार को उभारकर सामने लाते हैं। अभिनय करने के नाम पर उन्हें ज्यादातर समय रोना ही था बस। एक धूर्त राजनीतिक का रोल मानव कौल ने शानदार निभाया है। कश्मीरी होने का लाभ भी उन्हें मिला है।
मानव कौल सबको चौंका देते हैं। 
8. फिल्म का कहानी में बहुत ही झोल हैं। अमिताभ बच्चन शुरू से ही कहते हैं कि उनकी बेटी की मौत हादसे में नहीं हुई बल्कि मर्डर किया गया है। पर किस आधार पर? केवल मानव कौल की आंखों से उन्होंने ये कैसे जान लिया कि उसने उनकी बेटी की हत्या की थी। मानव कौल की बेटी फरहान के पूछने पर कुछ नहीं बोलती लेकिन जब फरहान अख्तर मानव की हत्या करने के लिए आते हैं तो सब कुछ उगल देती है। वह इतने बड़े रहस्य से पर्दा उठाती है जो अविश्वनीय है। एक आतंकी हमले में सारे गांव के पचास से ज्यादा लोग मार दिए गए और किसी को मानव कौल पर शक नहीं हुआ ? मानवकौल आतंकी था तो उसने गांव की ही एक बच्ची को अपनी बेटी कैसे दिखा दिया? एक आतंकी का चंद साल में ही केंद्र सरकार में मंत्री बन जाना भी एक अविश्सनीय बात नजर आती है। इसी तरह से अमिताभ बच्चन का दिल्ली के राष्ट्रपति भवन की ओर से आने वाली रोड से गुजर रहे मंत्री की कार पर जूता फेंकने वाला सीन हजम नहीं होता। इसे कहीं सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान भी दिखाया जा सकता था। इसी तरह के अनगिनत झोल पूरी फिल्म में हैं।
बेहतरीन सीन को कमजोर फिल्मांकन। 
9. फरहान अख्तर बेहतरीन कलाकार हैं लेकिन ये जान लेना भी जरूरी है कि अगर आप अमिताभ बच्चन को मुख्य किरदार में ले रहे हैं तो उनके सामने किसी दूसरे कलाकार को जबरन मुख्य किरदार में स्थापित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। ‘शामिताभ’ पूरी तरह से अमिताभ की फिल्म थी लेकिन उसमें धनुष को जरूरत से ज्यादा फुटेज देकर आर बाल्की जैसे डायरेक्टर भी मात खा गए थे। यहां भी यही होता नजर आता है।

10. फिल्म में रिपीट वैल्यू का अभाव है। आप इसे एक बार देख सकते हैं लेकिन दोबारा देखने के लिए इसमें कुछ नहीं है। शतरंज की बाजी में बादशाह के बाद सबसे ताकतवर वजीर होता है पर यहां फिल्म का टाइटल वजीर होने के बावजूद अंत तक ये स्थापित नहीं हो पाता कि वजीर अमिताभ बच्चन का किरदार है या फिर फरहान अख्तर का ? अगर आप अमिताभ के फैन हैं तो इसे जरूर देख ही लेंगे और अगर आपको फरहान अख्तर पसंद हैं तो उनके लिए भी ये फिल्म देखी जा सकती है। वे यहां अब तक अपने सबसे अलग रोल में नजर आए हैं और उनके लिए एक बार तो फिल्म देखी ही जा सकती है।

- हर्ष कुमार













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